Naari Bhakti Sutra - 12 in Hindi Spiritual Stories by Radhey Shreemali books and stories PDF | नारद भक्ति सूत्र - 12. विकारों से बचाव

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नारद भक्ति सूत्र - 12. विकारों से बचाव

12.

विकारों से बचाव

कस्तरति कस्तरति मयाम् ? यः संगांस्त्यजति, यो महानुभावं सेवते, निर्ममो भवति॥४६॥
अर्थ : कौन तरता है, कौन तरता है माया से ? जो सब संगों का त्याग करता है, जो महापुरुषों की सेवा करता है, जो ममता रहित होता है।

पिछले सूत्र में नारद जी ने बताया कि कैसे विकार एक तरंग की भाँति भीतर प्रवेश करते हैं और समुद्र बन जाते हैं, अब इस सूत्र में वे इस विकारी और मायावी समुद्र से बाहर निकलने का मार्ग बता रहे हैं।

वे कहते हैं, इस माया से वही तर सकता है, वही इसकी भँवर से बाहर आ सकता है, जिसमें कुछ विशेष गुण हो। पहला गुण यह होना चाहिए कि वह सब तरह के बाहरी व आंतरिक कुसंगों का त्याग करता हो। संगों के बारे में आपने पिछले कुछ सूत्रों में भी पढ़ा था कि हमारे द्वारा किया जानेवाला संग हम पर कैसा प्रभाव डालता है। सोच-समझकर संग का चुनाव करना और उससे अनासक्त रहना कितना आवश्यक है वरना विकारों का संग आपको भक्ति मार्ग से हटा सकता है।

दूसरे गुण में वे कहते हैं, महापुरुषों के संग में रहने से, उनकी सेवा करने से विकारों के भँवर से छूटा जा सकता है। महापुरुषों का संग हम पर कितना सकारात्मक प्रभाव डालता है, इसके बारे में भी आप पढ़ चुके हैं। जितना उनके संघ में रहेंगे, उनकी सेवा करेंगे, उतनी ही हमारी भक्ति बढ़ेगी, मन निर्मल और शुद्ध होगा। संतों, महापुरुषों के आस-पास की सकारात्मक और भक्तिपूर्ण ऊर्जा ही सामान्य मनुष्य को बदलकर अपने जैसा बना लेती है।

तीसरे गुण में नारद जी ने भक्तों को ममता रहित होने को कहा है। उन्होंने ऐसा क्यों कहा है, इसे समझना आवश्यक है। अकसर लोग ममता को अच्छा गुण, भाव या प्रेम समझते हैं और ममता होना अच्छी बात मानते हैं। ममता यदि निःस्वार्थ है, अव्यक्तिगत है तो उसमें दोष नहीं। अन्यथा वह भी विकार ही है क्योंकि वह आपकी बुद्धि हर लेती है। ममता, आपका उतना ही नुकसान कर सकती है, जितना द्वेष करता है।

द्वेष भी इंसान की बुद्धि भ्रमित कर, उससे गलत कर्म करा सकता है, ऐसे ही ममता भी करा सकती है। रामायण में कैकेयी और महाभारत में धृतराष्ट्र का उदाहरण तो आपने पढ़ा ही होगा। दोनों के मन में अपने पुत्रों के प्रति ममता थी, मोह था किंतु यह निःस्वार्थ प्रेम नहीं था। इस ममता का क्या परिणाम हुआ, यह सभी जानते हैं।

ममता से रहित होने से नारद जी का तात्पर्य यही है कि प्रेम से किसी तरह की आसक्ति, किसी तरह का स्वार्थ, किसी तरह की व्यक्तिगत अभिलाषा जुड़ी नहीं होनी चाहिए वरना वह आपको बाँध लेती है।

यः विविक्तस्थानं सेवते, यो लोकबंधमुन्मूलयति, निक्त्रैगुणण्यौ भवति, योगक्षेम त्यजति ॥४७||
अर्थ : जो निर्जन स्थान का सेवन करता है, लौकिक बंधनों को तोड़ देता है, तीनों गुणों से पार हो जाता है तथा जो योग और क्षेम का त्याग कर देता है।।४७।।

प्रस्तुत सूत्र में नारद जी ने माया के भवसागर से निकलने वाले भक्तों के चार और गुण बताए हैं किंतु इन गुणों पर बात करने से पहले एक बात समझना बहुत आवश्यक है कि किसी भी उपदेश को, आध्यात्मिक कथन को शाब्दिक अर्थ से नहीं समझना चाहिए बल्कि उसके भाव को पकड़ना चाहिए वरना अर्थ का अनर्थ हो जाता है।

हमारे ज़्यादातर आध्यात्मिक और पौराणिक ग्रंथ हज़ारों साल पुराने हैं। उस समय की स्थिति और आज की स्थिति में ज़मीन-आसमान का अंतर है। यदि हम उनके शाब्दिक अर्थ पकड़ेंगे तो वे आज के समय में उपयुक्त नहीं लगेंगे। ऐसे में या तो हम ये मान लेंगे कि वे सब बेकार की बातें हैं या फिर उनका पूरी तरह पालन करने पर कट्टर और हठधर्मी हो जाएँगे।

इसीलिए आजकल ये दो विपरीत विचार धाराएँ बढ़ रही हैं– या तो लोग कट्टर नास्तिक हो रहे हैं या कट्टर और रूढ़िवादी आस्तिक...। अध्यात्म और धर्म से समझ गायब होती जा रही है, जबकि वही अध्यात्म का मूल है।

नारद जी के भक्ति सूत्र समझने के लिए हम उनके मर्म को पकड़ेंगे, शब्दों को नहीं। जैसा कि उन्होंने भक्त का आवश्यक गुण बताया है कि वह निर्जन स्थान का सेवन करता है।

अब यदि शाब्दिक अर्थ पर जाया जाए तो लगेगा नारद जी संन्यास लेने को कह रहे हैं। उनके अनुसार भक्ति तभी संभव है, जब भक्त घर-बार छोड़कर किसी निर्जन स्थान जैसे जंगल या पहाड़ पर चला जाए और सारे सांसारिक कार्य छोड़ सिर्फ भक्ति करे।

ऐसा करना पुराने जमाने में ज़रूरी हो सकता था क्योंकि पहले साधु-संन्यासी, आध्यात्मिक गुरु भी संसार से दूर, निर्जन स्थानों में रहकर ध्यान-साधना किया करते थे। तब ज्ञानवर्धक पुस्तकें सहजता से उपलब्ध नहीं थीं। ऐसे में गुरु के मुख से ज्ञान वचन सुनकर शिष्य ज्ञान पाते थे। सत्य साधकों के पालन-पोषण का भार संसारियों ने सहज स्वीकार किया हुआ था। वे उन्हें जीवन यापन हेतु भिक्षा देना अपना कतर्व्य मानते थे।

इसके अलावा पहले परिवार बड़े और संयुक्त हुआ करते थे। यदि परिवार का कोई एक सदस्य संन्यासी होता था तो उसके बीवी-बच्चों अथवा माता-पिता का भरण-पोषण बाकी लोग सँभाल लेते थे। किंतु आज की सामाजिक स्थिति पूरी तरह बदल चुकी है। आप अपने कर्तव्यों को किसी दूसरे के ऊपर छोड़कर नहीं जा सकते। भक्त हो, संन्यासी अथवा संसारी – सभी के लिए आत्मनिर्भर होना आवश्यक है। वैसे भी यदि कोई सच्चे मन से भक्ति करना चाहता है तो संसार में रहकर भी कर सकता है क्योंकि भक्ति कोई बाहरी क्रिया नहीं बल्कि आंतरिक भाव है। संत कबीर और संत रैदास जैसे महानतम भक्तों ने यह अपने जीवन चरित्र से सिखाया है।

नारद जी ने भक्त के लिए जिस निर्जन स्थान में रहने की बात कही है, उस स्थान को खोजने के लिए जंगल या पहाड़ों पर जाने की ज़रूरत नहीं, आपके घर का, वर्किंग प्लेस का कोई ऐसा कोना जहाँ आप बिना व्यवधान भक्ति कर सकें, ध्यान कर सकें, वहीं आपके लिए निर्जन स्थान है।

मान लीजिए, घर में एक कमरे में टी.वी. चल रहा है तो आप दूसरे कमरे में या बाहर गार्डन, बाल्कनी आदि जगह पर बैठकर प्रभु का गुणगान कर सकते हैं। बाहर से शोर आ रहा है तो कानों में हेडफोन या रूई लगा सकते हैं। अगर आपका मन भक्ति में रमा है तो बाहरी शोरगुल और व्यवधान आपको प्रभावित नहीं करेंगे। आप ट्रैफिक में, बाज़ार में, किसी भी जगह मन ही मन भक्तिभाव में डूबे रह सकते हैं।

अगला गुण नारद जी बताते हैं— माया और विकारों के भवसागर से वही भक्त पार हो सकता है, जो लौकिक बंधनों को तोड़ देता है। लौकिक बंधन यानी इस लोक में बने रिश्ते जैसे माता-पिता, पति-पत्नी, संतान, मित्र एवं अन्य नातेरिश्तेदार। यदि इस गुण का भी शाब्दिक अर्थ पकड़ लिया जाए तो लगेगा नारद जी परिवार को छोड़, संन्यासी होने की बात कह रहे हैं। जबकि ऐसा नहीं है। वास्तव में वे लौकिक रिश्तों में आसक्त होने को मना कर रहे हैं। लौकिक रिश्ते बंधन न बनें, इसके लिए उनके प्रति अनासक्त रहना आवश्यक है। रिश्तों में आसक्ति दुःख पैदा करती है, जबकि निष्काम प्रेम सदा आनंद ही देता है।

जब किसी इंसान को किसी से आसक्ति होती है तो वह चाहने लगता है कि यह इंसान हमेशा मेरे साथ ही रहे, कभी मुझसे जुदा ना हो, किसी और के साथ न जाए... जिस कारण वह हमेशा असुरक्षित और दुःखी रहता है। इसी आसक्ति और मोह की वजह से कई बार माँ अपने बच्चे को ज़रा सा दूर नहीं होने देती। बेटे की शादी हो जाने पर भी वह उसे बहू के साथ बाँटना नहीं चाहती। बहुत से माता-पिता यह जानते हों कि उनके बच्चों का भला उनसे दूर जाकर शिक्षा हासिल करने में है या नौकरी करने में है, फिर भी वे मोहवश उन्हें अपने पास ही रखना चाहते हैं, जिसका बुरा असर बच्चों के भविष्य पर पड़ता है।

रिश्तों में ऐसी आसक्ति से बचना चाहिए वरना वे आपको बाँध लेते हैं और बँधा हुआ असुरक्षित, दुःखी इंसान भक्ति नहीं कर सकता। भक्तों की तो पहचान ही यही है कि वह अपना सर्वस्व ईश्वर को समर्पित कर, उसी की रजा में राज़ी रहता है। वह सिर्फ उसी से संबंध जोड़ता है और अपने बाकी लौकिक संबंधों को उसी का दिया हुआ दायित्व समझकर अनासक्त भाव से निभाता है।

नारद जी भक्तों का अगला लक्षण बताते हुए कह रहे हैं – जो तीनों गुणों से पार होकर गुणातीत हो जाता है, वही माया के सागर से पार होता है। आइए, समझते हैं कि नारद जी किन तीन गुणों की बात कर रहे हैं। 

कुदरत ने इंसान की तीन तरह की मूल प्रकति बनाई है। सामान्यतः हरेक इंसान में किसी एक तरह की प्रकृति प्रधान रहती है, बाकी दो आंशिक रहती हैं। इनमें पहली प्रकृति अथवा गुण है तमोगुण। जिस शरीर में यह गुण प्रधान होता है उसे आराम पसंद होता है। सुस्ती, तंद्रा, अति निद्रा, आलस्य, कामचोरी, लापरवाही, गुस्सा आदि तमोगुणी इंसान की निशानी है।

इंसान का दूसरा गुण है– रजोगुण। रजोगुणी स्वभाव का इंसान लगातार कर्मरत रहना चाहता है। उसका दिमाग हमेशा 'व्हाट नेक्स्ट' कहकर चलता रहता है। एक काम पूरा करते ही वह दूसरा काम करने के लिए बेचैन रहता है। ऐसे लोग अकसर कहते हुए पाए जाते हैं, 'हमारा कर्म ही हमारी पूजा है।' लेकिन उन्हें सही मायने में कर्म और पूजा का अर्थ मालूम ही नहीं होता। वे बस भागते-दौड़ते अपना जीवन गुज़ार देते हैं।

इंसान का तीसरा गुण है– सत्वगुण। सत्वगुण प्रधान इंसान अच्छे और भले कार्य करता है। जैसे समाजसेवा करना, लोगों की भलाई के काम करना, धार्मिक, सामाजिक कामों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेना आदि। इसीलिए सत्वगुण को रज और तम से बेहतर माना जाता है। अपने अच्छे कार्यों की वजह से सत्वगुणी इंसानों का समाज में बड़ा मान-सम्मान होता है। लोग उन्हें धर्मात्मा-पुण्यात्मा जैसे संबोधन देते हैं।

लेकिन बहुत से लोग अपने सत्वगुण का भी अहंकार पाल लेते हैं, जिस कारण उनकी आध्यात्मिक प्रगति रुक जाती है। वे ऊपर से तो भक्त दिखते हैं किंतु भीतर से वे दंभी और पाखंडी हो जाते हैं। ऐसे लोग सेवा-पूजा आदि कार्य ईश्वर के निमित्त नहीं बल्कि अपने नाम-प्रतिष्ठा के निमित्त करने लगते हैं।

नारद जी कहते हैं — एक सच्चा भक्त इन तीनों गुणों सत्व, रज और तम से पार होकर गुणातीत हो जाता है। वह किसी भी गुण से चिपकता नहीं, बस ज़रूरत के समय उन गुणों का उपयोग करता है और फिर उससे अलग हो जाता है। उदाहरण के लिए सोने के समय वह शांति से सोता है तब उसे रजोगुणी की तरह काम के विचार तंग नहीं करते। जब उसका नींद से उठने का समय होता है तो उसे तमोगुणी की तरह क्लेश नहीं होता।

जब वह कोई कर्म करता है तो 'मैंने किया' कहकर कर्तापन का अभिमान नहीं रखता और उसके फल से आसक्त नहीं होता। वह यथा योग्य सोता है, यथा योग्य कर्म करता है, यथा योग्य खाता है, यथा योग्य अपने समस्त दायित्व पूरे करता है।

जब वह किसी की सहायता करता है तो अपने अहंकार को पोषित नहीं करता बल्कि उसे ईश्वरीय कार्य मानकर, ईश्वर के ही निर्मित करता है। उसका सत्वगुण उसे अहंकारी नहीं बनाता बल्कि सेवा रूप में उससे भक्ति की अभिव्यक्ति कराता है।

नारद जी कहते हैं– सच्चा भक्त सत्व, रज और तम इन तीनों गुणों का ज़रूरत अनुसार उपयोग करता है। वह किसी भी गुण में न अटकते हुए भक्ति में लीन रहकर, अपनी अभिव्यक्ति करता है। ऐसा भक्त विकारों और माया से अछूता रहता है।

इस सूत्र में बताया गया भक्त का चौथा गुण है– वह योग और क्षेम का त्याग कर देता है। यहाँ योग का अर्थ है भक्त की प्राप्तियाँ और क्षेम का अर्थ है उन प्राप्तियों की रक्षा करना, उनसे चिपकाव रखना। यदि कभी आप किसी बड़े नामी कलाकार या खिलाड़ी के घर जाएँ तो देखेंगे कि उसने ड्राइंग रूम (हॉल) में अपनी उपलब्धियों के सर्टिफिकेटस्, ट्रॉफीज् आदि सजाई होती हैं। मेहमानों के सामने वह उन सभी का बढ़-चढ़कर वर्णन करेगा कि उसने कौन सा मेडल, कौन सा सर्टिफिकेट कब हासिल किया। ऐसा करते हुए उसके चेहरे पर अजीब सी संतुष्टि, गर्व और प्रसन्नता रहेगी। अर्थात उसने अपनी प्राप्तियाँ, उपलब्धियाँ सीने से चिपकाकर रखी हुई हैं।

वहीं दूसरी ओर कुछ ऐसी भी ख्वाहिशें होती हैं, जिन्हें इंसान पाना चाहता है किंतु प्राप्त नहीं कर पाता। ऐसे में वह चीज़ों को या अवसरों को याद कर-करके दुःखी होता रहता है कि 'ओह! मैं यह नहीं कर पाया।'

एक भक्त इन दोनों ही अवस्थाओं से मुक्त रहता है। वह व्यक्तिगत महत्वकांक्षाओं के पीछे नहीं भागता, अपनी उपलब्धियों के नशे में डूबता नहीं और जो नहीं प्राप्त कर सका, उसके पीछे दुःखी होकर नहीं बैठता। वह प्राप्ति-अप्राप्ति में सम और सहज रहकर ईश्वर भक्ति करता है।