आज सुबह कुछ अलग-सा था। रिया की नींद जल्दी खुल गई थी। हल्की धूप खिड़की के पर्दों से छनकर उसके कमरे में उतर रही थी। बाहर पंछियों की चहचहाहट थी, लेकिन उसके मन में अजीब-सी बेचैनी थी। कुछ अधूरा-सा लग रहा था… कुछ जो पूरा किए बिना चैन नहीं मिलेगा।
रिया ने खुद से कहा, “आज नहीं टालूंगी, स्टोर रूम की सफाई आज होकर ही रहेगी।”
वो कमरा जिसे घर में कोई ज़्यादा नहीं खोलता था। वहाँ पुरानी चीजें थीं—कुछ टूटे हुए खिलौने, कुछ पुराने ट्रंक, फर्नीचर और एक शांत-सी गंध जो वक़्त के साथ चुपचाप वहाँ बस गई थी। रिया ने झाड़ू उठाई, खिड़की खोली और काम में जुट गई।
जैसे-जैसे वो धूल साफ कर रही थी, वैसे-वैसे कुछ पुरानी यादें भी उसकी आँखों के सामने घूमने लगीं। तभी उसकी नज़र कोने में रखी एक पुरानी अलमारी पर पड़ी, जिस पर मकड़ी के जाले और धूल की मोटी परत चढ़ी हुई थी। कुछ था उस अलमारी में जो उसे खींच रहा था। उसने जैसे ही दरवाज़ा खोला, एक पुरानी डायरी उसके सामने थी—धूल में सनी, लेकिन बड़ी ही सादगी से बँधी हुई।
उसने धीरे से डायरी उठाई। जैसे ही पहला पन्ना पलटा, एक खुशबू फैली—पुराने कागज़ों की, स्याही की, और दादी माँ की यादों की। रिया की आँखें भर आईं। ये दादी माँ की डायरी थी… वही दादी, जो अब इस दुनिया में नहीं थीं, लेकिन जिनकी कहानियाँ अब भी रिया के दिल में बसी थीं।
पहला पन्ना:
“आज मैंने पहली बार स्कूल जाने की ज़िद की। पापा बोले, ‘लड़कियाँ घर पर ही पढ़ लें तो बेहतर।’ लेकिन माँ ने मेरी आँखों की चमक देखी और मेरा हाथ थाम लिया—‘चलो, मेरी बच्ची पढ़ेगी।’ उस दिन मुझे लगा, औरत होना कोई बंदिश नहीं, एक ताक़त है।”
रिया ने ये पढ़ा और उसकी आँखों में एक चमक आ गई। दादी माँ ने जिन संघर्षों का सामना किया था, वो कितने सादगी से यहाँ दर्ज था। उसने अगला पन्ना पलटा।
दूसरा पन्ना:
“प्रिय अर्जुन,
आज तुमसे दूर रहते हुए तीसरा साल बीत गया। तुम्हारी यादें हर सुबह की चाय में घुल जाती हैं। हर बार जब तुम्हारी चिट्ठी आती है, मैं उसे बार-बार पढ़ती हूँ। और हर बार कुछ शब्द जवाब के लिखती हूँ… फिर मिटा देती हूँ। तुमने कहा था, ‘मुझे भूल जाओ,’ लेकिन अर्जुन, कुछ रिश्ते दुआ बनकर रह जाते हैं।
—राधा।”
रिया को यह जानकर झटका-सा लगा कि दादी माँ की ज़िंदगी में एक ऐसा रिश्ता भी था जिसे उन्होंने कभी जिया नहीं, बस संजोकर रखा। प्यार जो पूरा नहीं हुआ, लेकिन कभी ख़त्म भी नहीं हुआ।
तीसरा पन्ना:
रिया की उंगलियाँ जैसे ही उस पन्ने पर पहुँचीं, उसकी नज़र एक तारीख पर अटक गई—
"10 मार्च, 1965 — आज पहली बार उन्हें देखा। स्टेशन पर, हल्के नीले कुर्ते में, हाथ में किताब लिए। और मानो जैसे समय वहीं थम गया।"
कुछ पल के लिए रिया को लगा जैसे सब थम सा गया हो।
वो पढ़ती रही, लेकिन उसका मन अब शब्दों से आगे चला गया था। हल्का नीला कुर्ता… किताबें… स्टेशन… और फिर वो समझ गई।
"यह तो दादा जी थे!" रिया के होंठों से एक धीमी फुसफुसाहट निकली।
दादी माँ ने कभी अपने प्यार को इतने सीधे, इतने मासूम लहज़े में ज़ाहिर किया था—ये रिया ने पहले कभी नहीं जाना। उनके और दादा जी के बीच का रिश्ता हमेशा एक सम्मान और शालीनता से भरा दिखता था… लेकिन आज, इस एक पन्ने ने साबित कर दिया कि उन दोनों के बीच भी कभी एक नाज़ुक-सा, खामोश-सा प्यार था।
रिया की आँखें भर आईं।
उसने कल्पना की—स्टेशन की भीड़, धीमी हवा, और एक युवा लड़की जो पहली बार अपने भविष्य को एक अनजान चेहरे में देख रही थी।
"दादी… आपने कभी बताया क्यों नहीं?" उसने डायरी को अपने सीने से लगाते हुए कहा।
उसे अब समझ आ रहा था कि रिश्ते केवल सालगिरह और तस्वीरों से नहीं बनते, बल्कि ऐसे ही अनकहे पलों से बनते हैं—जो डायरी के किसी कोने में दबे होते हैं, और किसी स्टोर रूम की धूल से उठकर सीधे दिल तक पहुँच जाते हैं।
चौथा पन्ना :
“आज मेरी गोद में जो नन्हा-सा चाँद मुस्कुरा रहा है, वो मेरा बेटा है- रवि। उसकी हर मुस्कान में मुझे खुद से ज़्यादा प्यार महसूस होता है। और आज मैंने समझा कि माँ होना क्या होता है। उस वक़्त मैं सिर्फ 25 साल की थी, पर उस दिन मैं एक उम्र बड़ी हो गई।”
रिया ने वो लाइन बार-बार पढ़ी—क्योंकि ‘रवि’ उसके का नाम है। वो उन अनकहे एहसासों को पढ़ रही थी, जिन्हें दादी माँ ने कभी ज़ुबान से नहीं, बस डायरी में ज़ाहिर किया था।
एक पन्ना और:
“वो दोपहर याद है जब हमने बारिश में टिन शेड के नीचे गुलाब जामुन बनाए थे—भाप से उठती खुशबू और तुम्हारी खिलखिलाहट… रिया, वो मेरी सबसे मीठी यादों में से एक है। जब तू मेरी गोद में थी और मैंने सोचा, काश ये पल हमेशा ठहर जाए।”
रिया की रुलाई अब थमी नहीं। डायरी में उसका नाम भी था। वो जानती थी कि ये डायरी दादी माँ की आत्मा थी—उनका जीवन, उनके जज़्बात, उनके अधूरे ख्वाब।
एक जगह लिखा था—
"जब मैं उदास होती हूँ, तो पुराने खत पढ़ लेती हूँ। लगता है जैसे गुज़रा हुआ वक्त फिर से मेरे पास बैठ गया हो, चाय की प्याली लेकर।"
एक और पन्ना :
“खुशबू बनके रह जाऊँगी,
जब तू मुझे ढूंढेगी हवा में,
तेरे हर आँसू में चुपचाप उतर आऊँगी,
बस तुझे एहसास भी ना होगा…
कि मैं तुझमें अब भी ज़िंदा हूँ।”
रिया ने उस कविता को पढ़ा और डायरी को अपने सीने से लगा लिया। वो सिर्फ काग़ज़ के पन्ने नहीं थे, वो रिश्ते थे जो वक़्त के आर-पार बहते चले आ रहे थे।
अंतिम पन्ना:
डायरी का आख़िरी पन्ना जैसे उसकी रूह को छू गया—
“जब मैं ना रहूँ, तो इस डायरी को पढ़ना।
शायद तब तू मुझे समझेगी,
मेरी खामोशियों को सुनेगी,
और मेरे अधूरे ख्वाब पूरे करेगी।”
रिया की आँखें नम हो गईं। उसने डायरी को बंद किया, लेकिन उसका मन अब उस वक्त में खो चुका था जहाँ उसकी दादी मुस्कुरा रही थीं, जहाँ हर पन्ना एक एहसास था।
अंत में रिया ने भी डायरी के आखिरी पन्ने पर कुछ लिखा-
"ये पन्ने सिर्फ दादी की यादें नहीं हैं, ये मेरी पहचान हैं। अब मैं भी अपने पन्ने जोड़ूँगी... ताकि कल को कोई और इन्हें पढ़े और मुझे महसूस कर सके।"
दोस्तों कुछ कहानियाँ पढ़ी नहीं जाती, महसूस की जाती है।
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फिर मिलेंगे एक नई कहानी के साथ तब तक के लिए अलविदा।