The tourist spot turned into a graveyard in Hindi Anything by Rohan Beniwal books and stories PDF | कब्रगाह में तब्दील हुआ पर्यटन स्थल

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कब्रगाह में तब्दील हुआ पर्यटन स्थल

कश्मीर—जिसे धरती का स्वर्ग कहा गया था, आज वह नरक से भी बदतर हो चुका है। पहाड़ों की शांत छांव में जब सैलानी सुकून की तलाश में पहुंचे थे, तब शायद उन्होंने नहीं सोचा था कि यही वादियाँ उनका अंतिम दृश्य बन जाएँगी।
एक तरफ भारत अपने लोकतंत्र की मजबूत छवि दुनिया के सामने प्रस्तुत करता है, वहीं दूसरी तरफ उसके ही नागरिक, उसकी ही धरती पर, सिर्फ इसलिए मारे जा रहे हैं क्योंकि वे ‘बाहर से आए थे’।

22 अप्रैल 2025 की तारीख अब सिर्फ कैलेंडर में एक दिन नहीं रही, वह अब एक खून से सनी शर्म है, एक खरोंच है हमारे जमीर पर, और एक कराहती चीख है इंसानियत की कब्र से।

28 निर्दोष सैलानी मारे गए। गोलियों से नहीं—सोच से।
उनकी हत्या उन बंदूकों ने नहीं की, जिन्हें हम दुश्मन कहते हैं, बल्कि उस खामोशी ने की जो अब तक इस आतंक को "मसला" समझती रही है।
क्या अब भी कोई यह कहेगा कि "ये तो संवेदनशील मुद्दा है"?
कौनसी संवेदना, किसका मुद्दा?

बंदूकधारी आतंकी, जो खुद को किसी खुदा का सिपाही कहते हैं, उन बच्चों को भी नहीं बख्शते जो छुट्टियों में वादियाँ देखने आए थे। क्या उनका गुनाह सिर्फ इतना था कि वे मुसाफिर थे?

कितना आसान हो गया है आज किसी का गला रेत देना, गोली मार देना, और फिर इंटरनेट पर किसी संगठन का नाम चिपका देना। और उससे भी आसान हो गया है चुप रह जाना।

हमने आतंक को विचारधारा मान लिया है, और खामोशी को धर्मनिरपेक्षता।
हमने इंसान को गिनती में और आतंक को बहस में बदल दिया है।
जिस देश में “अतिथि देवो भवः” कहा जाता है, वहाँ अब अतिथियों की लाशें देवताओं की मूर्तियों के सामने पड़ी हैं।

यह सिर्फ एक आतंकी हमला नहीं था।
यह हमारी राष्ट्रीय चेतना पर हमला था।
यह हमारी असंवेदनशीलता पर तमाचा था।
यह एक याद दिलाने वाली चीख थी—कि तुम अब भी सो रहे हो।

इन हमलों के बाद क्या होता है? सोशल मीडिया पर दो दिन की गहमागहमी, न्यूज चैनलों की टीआरपी रेस, नेताओं की "कड़ी निंदा", और फिर… फिर वही पुराना शांति गीत।
आतंक के सौदागर फिर अपने अड्डों में लौट जाते हैं।
जनता भूल जाती है, सरकार बयान दे देती है, और हम फिर किसी अगली त्रासदी के इंतजार में अपना मोबाइल स्क्रॉल करते हैं।

पर जो गए, वे लौटेंगे नहीं।

प्रश्न यह नहीं है कि हमला क्यों हुआ।
प्रश्न यह है कि इतने वर्षों बाद भी हमलावर क्यों हैं?
प्रश्न यह है कि जो आतंकवाद को धर्म, राष्ट्रवाद या मानवाधिकार की आड़ में जस्टिफाई करते हैं—वो अब भी खुले क्यों घूम रहे हैं?

पहरों में बैठे वे लोग, जो हर आतंकी हमले के बाद यह पूछते हैं कि "लेकिन सेना ने क्या किया?", आज कहाँ हैं?
क्या वे अब भी इस हमले को "प्रतिक्रिया" कहेंगे?
क्या यह भी "पॉलिटिकल प्रॉब्लम" की उपज है?

नहीं साहब, यह कोई पॉलिटिकल प्रॉब्लम नहीं है।
यह अमानवीयता की पराकाष्ठा है।
यह राक्षसी सोच की जीत है।
यह हमारे समाज की नैतिक हार है।

ये वो समय है जब हमारे पास सिर्फ दो विकल्प हैं—या तो हम आतंक के खिलाफ बिना शर्त, बिना एजेंडा खड़े हों… या फिर स्वीकार कर लें कि हम अब किसी सभ्य समाज का हिस्सा नहीं हैं।

सरकार की नीतियाँ, खुफिया एजेंसियों की नाकामी, या सीमाओं की सुरक्षा—इन सब पर प्रश्नचिह्न लगेगा और लगना भी चाहिए। लेकिन सबसे बड़ा प्रश्न यह है—क्या हम आतंक के विरुद्ध एक नैतिक एकता बना पाए?

या फिर हम अब भी मजहब, जाति, विचारधारा और राजनीतिक हितों में उलझे रहेंगे?

पाहलगाम का हमला न केवल निर्दोषों की हत्या है, बल्कि यह भारत की आत्मा पर किया गया घातक प्रहार है।
और जो इस हमले को केवल एक न्यूज़ हेडलाइन समझते हैं, वे भी कहीं न कहीं इस अपराध में सहभागी हैं।

हम अगर अब भी नहीं जागे, तो अगली बार गोलियाँ किसी टूरिस्ट पर नहीं, आपके दरवाज़े पर चलेंगी।
क्योंकि आतंक की कोई सीमा नहीं होती। न भाषा, न धर्म, न सरहद।

जो लोग आतंक को “विरोध” समझते हैं, वे इतिहास के सबसे बड़े मूर्ख हैं।
यह विरोध नहीं, अधर्म है।
यह विरोध नहीं, नरसंहार है।
यह विरोध नहीं, इंसानियत के ख़िलाफ़ युद्ध है।

अब वक्त आ गया है कि हर नागरिक, हर संस्था, हर सरकार इस बात को स्पष्ट करे—क्या वे आतंक के साथ हैं या उसके खिलाफ?

कोई भी मध्य मार्ग अब नहीं बचा।
जो चुप हैं, वे अपराधी हैं।
जो बहाना बना रहे हैं, वे कायर हैं।
और जो न्याय की मांग कर रहे हैं, वे ही सच्चे देशभक्त हैं।

आज एक देश को चाहिए—क्रोध, जागरूकता और दृढ़ निश्चय।
दया, सहानुभूति और कूटनीति के सारे प्रयास अब विफल हो चुके हैं।
अब समय है सीधे संवाद का—कि "जो निर्दोषों की जान लेता है, वह किसी धर्म, किसी जाति, किसी विचारधारा का प्रतिनिधि नहीं—वह केवल एक हत्यारा है। और हत्यारे को सिर्फ एक चीज़ मिलनी चाहिए—न्याय!"