Silence of friendship, circumstances, and compulsion in Hindi Philosophy by Rohan Beniwal books and stories PDF | दोस्ती, हालात और मजबूरी की खामोशी

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दोस्ती, हालात और मजबूरी की खामोशी

दोस्ती, हालात और मजबूरी की खामोशी


जीवन में दोस्ती एक अनमोल रिश्ता है, जो खून के रिश्तों से भी अधिक गहराई लिए होता है। दोस्ती में वह अपनापन होता है जिसे शब्दों में बाँधना आसान नहीं। यह रिश्ता न किसी औपचारिकता का मोहताज होता है और न किसी शर्त का। पर कभी-कभी जीवन की परिस्थितियाँ इतनी उलझी हुई होती हैं कि सबसे करीबी दोस्त से भी हमें दूर होना पड़ता है, और वह भी बिना किसी गलती के। यह दूरी तब और भी ज्यादा कचोटती है जब वह मजबूरी बन जाती है, एक ऐसा फैसला जिसे दिल नहीं बल्कि हालात लेते हैं।


जब दोस्तों के बीच कोई विवाद या लड़ाई होती है, तो वह केवल दो लोगों तक सीमित नहीं रहती। अगर आप उन दोनों के करीब हैं, तो आप अनजाने में एक ऐसे मोड़ पर खड़े हो जाते हैं जहाँ आपको किसी एक का साथ देना पड़ता है या फिर तटस्थ रहकर खामोशी ओढ़ लेनी पड़ती है। दोनों ही विकल्प तकलीफदेह होते हैं। एक तरफ आप एक दोस्त को खोने का डर झेलते हैं, और दूसरी तरफ अपने भीतर उठते सवालों और अपराधबोध से लड़ते रहते हैं।


ऐसी स्थितियाँ अकसर कॉलेज के दिनों में या कामकाजी जीवन की शुरुआत में सामने आती हैं, जब दोस्ती का दायरा बड़ा होता है और हर रिश्ता अपने-आप में महत्वपूर्ण लगता है। दो दोस्तों की लड़ाई में तीसरे को बीच का रास्ता अपनाना पड़ता है। वह चाहता है कि दोनों पक्षों को समझाए, सबकुछ पहले जैसा हो जाए, पर असल ज़िंदगी में हर बात इतनी आसान नहीं होती। कभी-कभी ऐसा लगता है कि भले ही आपने कोई गलती नहीं की, फिर भी आपको सज़ा मिल रही है।


इस मजबूरी में जब आपको एक ऐसे दोस्त से दूरी बनानी पड़ती है जो आपके सबसे करीब रहा हो, तो वह दूरी सिर्फ शारीरिक नहीं होती—वह एक मानसिक खालीपन भी छोड़ जाती है। दिन-रात उसकी बातें, यादें, साथ बिताए पल आँखों के सामने घूमते रहते हैं। आप बार-बार सोचते हैं कि क्या इस दूरी को टाला जा सकता था? क्या मैंने सही किया? क्या उस दोस्त को मेरी मजबूरी समझ आएगी?


मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। हम रिश्तों से बँधे रहते हैं और उनके टूटने का दर्द गहराई तक असर करता है। जब कोई अपना अचानक पराया हो जाए, तो वह अकेलापन सिर्फ अकेलेपन तक सीमित नहीं रहता—वह आत्मचिंतन में बदल जाता है। हम अपने निर्णयों को, अपनी नीयत को, यहाँ तक कि अपनी अच्छाई को भी सवालों के घेरे में ला खड़ा करते हैं। यही वह समय होता है जब हमें अपने आप को संभालना पड़ता है।


ऐसे में सबसे जरूरी है आत्म-संवाद। खुद से बात करना, अपने निर्णयों को समझना और अपनी भावनाओं को स्वीकारना। अगर हमने सच में कोई गलती नहीं की और हालात ने हमें मजबूर किया, तो उस गिल्ट को अपने अंदर पनपने से रोकना चाहिए। ये मान लेना चाहिए कि कुछ चीज़ें हमारे नियंत्रण में नहीं होतीं और रिश्तों में भी कभी-कभी विराम ज़रूरी हो जाता है।


मगर इस पूरी प्रक्रिया में एक बात नहीं भूलनी चाहिए—दोस्ती अगर सच्ची है, तो वह वक्त के साथ फिर से जुड़ सकती है। जो रिश्ता हालात के थपेड़ों में भी जीवित रहता है, वही असल में मजबूत होता है। अगर आपका दोस्त भी उतना ही सच्चा है जितना आप उसके लिए रहे हैं, तो वह एक दिन आपकी मजबूरी को समझेगा और लौट आएगा। रिश्तों में संवाद की बहुत बड़ी भूमिका होती है। हो सकता है कि कुछ समय बाद, किसी छोटे से मैसेज या संयोग से फिर से बात शुरू हो जाए और जो टूटा था, वह फिर से जुड़ जाए।


दूसरी ओर, अगर वह रिश्ता वापस नहीं लौटता, तो उसे एक अच्छी याद की तरह संजोकर रखना चाहिए। हर रिश्ता जीवन भर साथ नहीं चलता, पर हर रिश्ता कुछ न कुछ सिखा जरूर जाता है। हमें उस दोस्ती को उसकी अच्छी यादों के लिए याद रखना चाहिए, न कि उसकी कड़वाहट के लिए। यह सोचकर आगे बढ़ना चाहिए कि जो हुआ, वह हमारे हाथ में नहीं था, पर आगे हम खुद को कैसे संभालते हैं, वह हमारे हाथ में है।


कभी-कभी जिंदगी हमें ऐसे मोड़ पर ले आती है जहाँ हमें अपनी भावनाओं से ऊपर उठकर व्यवहारिक होना पड़ता है। यह आसान नहीं होता, खासकर तब जब सामने वाला दिल के बहुत करीब हो। पर यह भी एक सीख होती है कि हम अपने आत्मसम्मान को भी रिश्तों में बराबरी से स्थान दें। किसी दोस्ती में अगर बार-बार सिर्फ एक ही पक्ष समझौते कर रहा हो, तो वह रिश्ता लम्बे समय तक नहीं टिक सकता। इसलिए जरूरी है कि हम रिश्तों में आत्म-मूल्यांकन करते रहें और यह समझते रहें कि हम किस हद तक किसी के लिए झुक सकते हैं।


एक और अहम बात यह है कि किसी से दूरी बना लेने का मतलब यह नहीं कि आप उसके लिए बुरा चाहते हैं। कई बार हम दूर रहकर भी किसी की भलाई की दुआ कर सकते हैं। यह उस रिश्ते की सबसे खूबसूरत बात होती है कि उसमें कड़वाहट नहीं होती, बस खामोशी होती है—एक ऐसी खामोशी जिसमें अपनापन भी है और एक अदृश्य सम्मान भी।


इस लेख को लिखते हुए यह बात और भी स्पष्ट होती है कि दोस्ती जितनी खूबसूरत होती है, उतनी ही नाजुक भी होती है। इसे संभालना भी एक कला है और कभी-कभी इसे खोकर भी हम बहुत कुछ सीखते हैं। जरूरी नहीं कि हर रिश्ता हमेशा साथ रहे, पर जरूरी है कि हम अपने दिल में उसके लिए कोई बुराई न रखें।


अंततः यही कहा जा सकता है कि यदि जीवन में कभी ऐसी स्थिति आए जहाँ आपको किसी दोस्त से मजबूरन दूर होना पड़े, तो खुद को दोष देने की बजाय उस परिस्थिति को स्वीकार करें। अगर रिश्ता सच्चा था, तो वह जरूर लौटेगा। और अगर नहीं लौटता, तो यकीन मानिए, आपके जीवन में आगे और भी खूबसूरत रिश्ते आएँगे जो आपको समझेंगे, अपनाएँगे और आपको उस अधूरेपन को महसूस नहीं होने देंगे।


इसलिए मजबूरी की खामोशी को अपनी कमजोरी नहीं, बल्कि अपनी परिपक्वता मानिए। और जब भी उस खोए हुए दोस्त की याद आए, तो बस मुस्कुरा दीजिए। क्योंकि आपने जो किया, वह दिल से किया था—और सच्ची दोस्तीहमेशा दिल से ही होती है।