सूरजपुर—नाम सुनते ही मन में उजाले का एहसास होता था, लेकिन हकीकत में ये गाँव अब भी अंधेरे में डूबा था। ये अंधेरा बिजली के न होने का नहीं था, बल्कि सपनों की कमी का, शिक्षा की कमी का, और सबसे ज़्यादा, उम्मीद की कमी का था।
गाँव छोटा था, सीधा-सादा, लेकिन ज़िंदगी ठहर सी गई थी। खेतों में हल चलाने वाले हाथों ने कभी किताब नहीं उठाई थी। बच्चे वही करते जो उनके माता-पिता करते आए थे—खेत, पशु और मेहनत। स्कूल जाना एक सपना था, और पढ़-लिख कर कुछ बनना तो जैसे किस्मत वालों की बात मानी जाती थी।
इसी गाँव में रहता था अर्जुन, पंद्रह साल का लड़का। साँवला रंग, दुबला शरीर, पर आँखों में एक अलग सी चमक। वो हर सुबह चार बजे उठता, घर के और खेत के कामों में अपने माता-पिता का हाथ बंटाता और फिर अपनी टूटी हुई साइकिल लेकर तीन किलोमीटर दूर स्कूल जाता।
अर्जुन के पिता मज़दूर थे—दिहाड़ी पर काम करते थे। माँ बीमार रहती थीं, कभी खाँसी, कभी कमजोरी, और कभी सिर दर्द से कराहती थीं। दवा के लिए पैसे नहीं होते, और डॉक्टर तो गाँव में कोई था ही नहीं।
फिर भी अर्जुन के चेहरे पर कभी शिकन नहीं होती थी। वो मानता था कि हालात कैसे भी हों, अगर इरादा मज़बूत हो तो रास्ता ज़रूर बनता है।
एक दिन स्कूल में एक नए टीचर आए—विवेक सर। उन्होंने दिल्ली से ट्रांसफर लिया था और सरकारी योजना के तहत गाँव के स्कूल में पोस्टिंग पाई थी। पहले ही दिन उन्होंने बच्चों से सवाल किया:
"तुम बड़े होकर क्या बनना चाहते हो?"
कुछ बच्चों ने कहा—"डॉक्टर", "इंजीनियर", "पुलिस वाला"—पर कुछ ऐसे भी थे जो चुप थे, जिन्हें ये सवाल ही अजनबी लगता था।
जब विवेक सर ने अर्जुन से पूछा, वो थोड़ी देर चुप रहा, फिर बोला:
"मैं बदलाव बनना चाहता हूँ, सर।"
विवेक सर मुस्कराए, थोड़ी देर अर्जुन की आँखों में झाँका, फिर बोले:
"बदलाव तो एक चिंगारी से ही शुरू होता है। क्या तुम वो चिंगारी बनोगे?"
अर्जुन ने सिर हिलाया। उस दिन के बाद कुछ बदल गया।
वो अब पहले से ज्यादा मेहनत से पढ़ने लगा। छुट्टी के बाद भी किताबों से चिपका रहता। लेकिन जो सबसे बड़ा बदलाव आया, वो ये था—उसने गाँव के बच्चों को पढ़ाना शुरू किया।
शुरुआत एक पेड़ के नीचे से हुई। दो बच्चे आए—रामू और गुड्डी। अर्जुन उनके लिए पुरानी स्लेट और किताबें लेकर आया। उसने उन्हें अक्षर, गिनती और अपना नाम लिखना सिखाया।
धीरे-धीरे बच्चों की संख्या बढ़ने लगी—पाँच, दस, पंद्रह, फिर पच्चीस।
गाँव वालों को पहले ये सब मज़ाक लगा। कुछ ने ताना मारा, “अरे ये तो खुद बच्चा है, दूसरों को क्या पढ़ाएगा?” कुछ ने अपने बच्चों को रोकने की भी कोशिश की।
लेकिन जब उन्हीं के बच्चे घर आकर उन्हें उनका नाम लिखकर दिखाने लगे, छोटे-छोटे सवाल हल करने लगे, तब लोगों की सोच बदली।
एक दिन एक किसान बोला, “मेरा बेटा अब हिसाब खुद करता है—कितना गेहूँ बेचा, कितना पैसा मिला। अर्जुन ने तो सच में कमाल कर दिया।”
ऐसा नहीं है रुकावटें नहीं आई, रुकावटें भी आईं।
हर बदलाव के रास्ते में रुकावटें आती हैं। अर्जुन के सामने भी आईं।
एक बार गाँव के कुछ बड़े लोगों ने कहा, “ये लड़का बच्चों को पढ़ा कर उनका दिमाग खराब कर रहा है। खेतों में काम करने वाला अब कलम पकड़ेगा क्या?”
अर्जुन को धमकी तक मिली—“अगर पढ़ाना बंद नहीं किया, तो अंजाम बुरा होगा।”
पर अर्जुन नहीं डरा। उसने कहा:
"अगर हमें आगे बढ़ना है, तो पढ़ना ही पड़ेगा। हम हमेशा खेतों तक ही सीमित नहीं रह सकते।"
उसके इस आत्मविश्वास ने गाँव के युवाओं को सोचने पर मजबूर कर दिया। कुछ लड़कों ने अर्जुन के साथ मिलकर एक छोटा सा स्कूल बनाने का सपना देखा।
विवेक सर ने अर्जुन की मेहनत देखकर शिक्षा विभाग में उसके बारे में रिपोर्ट भेजी। कुछ महीनों में एक NGO ने अर्जुन को पढ़ाई के लिए स्कॉलरशिप दी। उसके पास अब किताबें थीं, स्टेशनरी थी, और सबसे ज़रूरी—सपनों को उड़ान देने के लिए समर्थन था।
वो दसवीं में टॉपर बना, फिर 12वीं का और फिर बाहर जाकर कॉलेज किया—B.Ed. की डिग्री ली। लेकिन उसने नौकरी के लिए शहर की ओर नहीं देखा।
वो लौटा... सूरजपुर।
अब वो सिर्फ़ अर्जुन नहीं था। अब वह "गुरु अर्जुन" था। गाँव का पहला शिक्षक जो इसी मिट्टी से पैदा हुआ था।
अर्जुन ने अपने खेत का एक हिस्सा दान किया। वहाँ एक छोटी सी लाइब्रेरी खोली। कुछ पुराने कंप्यूटर जुटाए। फिर एक स्कूल की नींव रखी—“प्रेरणा पब्लिक स्कूल”।
बच्चे अब दरी पर नहीं, बेंच पर बैठते थे। स्लेट की जगह कॉपियाँ थीं, और पहली बार गाँव में कोई इंटरनेशनल सिलेबस लागू हुआ।
लड़कियाँ जो कभी स्कूल नहीं जाती थीं, अब शान से स्कूल यूनिफॉर्म पहनकर आती थीं। माँ-बाप, जो कभी पढ़ाई को फालतू मानते थे, अब बच्चों की मार्कशीट देखने के लिए उत्सुक रहते थे।
सालों बाद, आज सूरजपुर बदल गया है। गाँव में एक हेल्थ सेंटर है, एक छोटा बैंक है, और सबसे महत्वपूर्ण—हर घर में कम से कम एक पढ़ा-लिखा बच्चा है।
अर्जुन अब एक प्रेरणास्त्रोत है। टीवी चैनल्स, न्यूज़पेपर, और यहाँ तक कि सरकार तक उसकी कहानी पहुँची है। उसे राष्ट्रीय शिक्षक सम्मान मिला। लेकिन जब उससे किसी ने पूछा:
“तुम्हें सबसे बड़ा इनाम क्या लगा?”
अर्जुन मुस्कराया, और सामने खड़े अपने पुराने छात्र रामू, गुड्डी और सीमा की ओर इशारा किया—जो अब खुद शिक्षक, नर्स और इंजीनियर बन चुके थे।
“यही हैं मेरा इनाम। यही हैं वो चिंगारियाँ, जिन्होंने रोशनी फैलाई।”
अब सूरजपुर के बच्चे भी सपने देखते हैं, डॉक्टर बनने के, इंजीनियर बनने के, और सबसे ज़्यादा—एक चिंगारी बनने के।
सीख:
हर बड़ा बदलाव एक छोटी सी चिंगारी से शुरू होता है।
जरूरत है उस चिंगारी को बुझने न देने की।
अर्जुन जैसे लोग हमें याद दिलाते हैं कि कोई भी सपना इतना बड़ा नहीं होता जिसे एक सच्ची कोशिश पूरा न कर सके।
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