गर्मियों की छुट्टियों की शुरुआत थी। स्कूल बंद हो चुके थे, और शहर की भागदौड़ से कुछ समय के लिए राहत मिल गई थी। माया—एक 13 साल की होशियार और जागरूक लड़की—अपने मम्मी-पापा के कहने पर दिल्ली से बिहार के एक छोटे से गाँव बसंतपुर आई थी, अपनी नानी के पास छुट्टियाँ बिताने।
बसंतपुर, जहाँ मिट्टी की खुशबू थी, जहाँ गोधूलि बेला(सूर्यास्त से ठीक पहले का समय) में साइकिल की घंटियाँ और बैलों की घंटियाँ एक साथ गूंजती थीं। जहाँ नहर के किनारे बैठकर बच्चे आम के अचार के साथ रोटी खाते थे, और शाम को चौपाल पर गाँव के बड़े-बुज़ुर्ग किस्से सुनाते थे। माया को यह सादगी बहुत भा रही थी। पर कुछ ऐसा था जिसने उसे अंदर से बेचैन कर दिया था।
गाँव में स्वास्थ्य और बीमारी को लेकर जो धारणा थी, वो माया के लिए एक अजनबी और तकलीफदेह अनुभव बन गया था। यहाँ लोग मामूली बुखार से लेकर बड़ी बीमारी तक के लिए अस्पताल नहीं जाते थे। उन्हें यकीन था कि गाँव के बाहर पीपल के पेड़ के नीचे बैठने वाले "भूत-बाबा" सब ठीक कर सकते हैं—कुछ फूँक, कुछ राख, और कुछ मंत्रों से।
“यहाँ डॉक्टर नहीं, बाबा हैं?” माया ने एक दिन नानी से हैरानी से पूछा।
नानी ने मुस्कराते हुए कहा, “बेटी, ये तो परंपरा है। हमारे बाप-दादाओं के ज़माने से ऐसा ही चलता आया है।”
माया कुछ नहीं बोली। लेकिन भीतर ही भीतर वो सोचने लगी—क्या परंपरा सिर्फ़ मानने की चीज़ है, चाहे वो गलत ही क्यों न हो?
एक शाम, जब गाँव के बच्चे गली में खेल रहे थे, माया ने देखा कि उसकी पड़ोस की प्यारी सी बच्ची बुलबुल जो हमेशा उसकी उँगली पकड़कर घूमती थी, आज कहीं नज़र नहीं आ रही। पूछने पर पता चला कि बुलबुल को तेज़ बुखार है।
माया दौड़ती हुई बुलबुल के घर पहुँची। देखा तो बच्ची काँप रही थी, चेहरा लाल, और शरीर तप रहा था। उसकी माँ पास बैठी झाड़-फूँक की तैयारी कर रही थी।
“आंटी, इसे अस्पताल क्यों नहीं ले जाते?” माया ने चिंता से कहा।
“अरे माया बेटा, बाबा सब ठीक कर देंगे। डॉक्टरों के चक्कर में समय और पैसा दोनों बर्बाद होता है।” उसकी माँ बोली, मानो वही सही हो।
माया अवाक रह गई। उसने समझाने की कोशिश की, “आंटी, ये बुखार कुछ गंभीर हो सकता है। डॉक्टर को दिखाना ज़रूरी है।”
लेकिन बुलबुल की माँ का जवाब वही रहा: “तू शहर से आई है, तुझे क्या मालूम यहाँ कैसे चलता है।”
माया चुप हो गई, पर मन में तूफान चल रहा था।
उस रात, सबके सो जाने के बाद माया ने अपने मोबाइल से कस्बे के डॉक्टर डॉ. वर्मा को कॉल किया। वो उनके परिवार के परिचित थे। माया ने रोते हुए उन्हें सारी बात बताई। डॉक्टर ने थोड़ी देर में आने का वादा किया।
आधी रात को, चुपके से माया डॉक्टर को लेकर बुलबुल के घर पहुँची। शुरुआत में बुलबुल की माँ घबरा गई, लेकिन माया ने विनती की—“बस एक बार देख लीजिए, फिर चाहे जैसे चाहें करिएगा।”
डॉ. वर्मा ने जाँच की। बुलबुल को वायरल बुखार था, लेकिन अगर समय पर इलाज न होता, तो स्थिति बिगड़ सकती थी। डॉक्टर ने दवाई दी, और कुछ जरूरी हिदायतें देकर लौट गए।
अगले दिन, चमत्कार की तरह बुलबुल का बुखार उतर गया। वो मुस्कराई, उठी और माया की उँगली पकड़कर फिर से चलने लगी।
जब गाँव वालों को माया की इस हरकत के बारे में पता चला, तो खलबली मच गई।
“बाबा की जगह डॉक्टर? ये तो अपशगुन है!”
“अब गाँव में विपत्ति आएगी...”
कुछ लोगों ने यहाँ तक कह दिया कि माया को नानी के घर से निकाल देना चाहिए।
माया डरी नहीं। उसने सबके सामने खड़े होकर कहा:
“अगर बुलबुल को कुछ हो जाता, तब क्या? क्या हम सिर्फ़ परंपरा निभाने के लिए अपनी आँखें बंद कर लें? इलाज झाड़-फूँक से नहीं, विज्ञान से होता है। आप सबने देखा, बुलबुल एक दिन में ठीक हो गई। अगर हम सब मिलकर बदलाव लाएँ, तो कोई बच्चा यूँ बिना इलाज के नहीं मरेगा।”
गाँव की चौपाल में सन्नाटा छा गया।
धीरे-धीरे कुछ महिलाएँ आगे आईं। एक ने कहा, “सच में... मेरे बेटे का बुखार भी तीन दिन में नहीं उतरा था, बाबा के पास ले गई थी। काश तब अस्पताल गई होती…”
कुछ दिनों के भीतर डॉ. वर्मा को गाँव में बुलाया गया। उन्होंने एक छोटा सा स्वास्थ्य शिविर लगाया। माया ने बच्चों को टीकाकरण की अहमियत समझाई, साफ-सफाई और पोषण पर जानकारी दी। कुछ वक्त पहले जो गाँव माया से नाराज़ था, वही अब उसके साथ था।
अब जब भी कोई बीमार होता है, सबसे पहले अस्पताल जाया जाता है। “भूत-बाबा” अब सिर्फ़ किस्सों में ज़िंदा हैं, पीपल के पेड़ के नीचे अब कोई झाड़ू-राख नहीं जलती—बल्कि माया ने वहाँ एक छोटा-सा बोर्ड लगवाया है:
“बीमारी का इलाज डॉक्टर के पास है, डर का नहीं।”
कुछ साल बाद...
बसंतपुर अब पहले जैसा गाँव नहीं रहा। वहाँ अब हर महीने स्वास्थ्य शिविर लगता है। सरकार ने वहाँ एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र बनवाया है, और माया—जो अब मेडिकल कॉलेज की छात्रा है—हर छुट्टियों में वहाँ आकर बच्चों को स्वास्थ्य और विज्ञान के बारे में बताती है।
गाँव वाले अब गर्व से कहते हैं, “हमारे गाँव की माया, अंधविश्वास के अंधेरे में पहली रोशनी थी।”
सीख:
अंधविश्वास से डर पैदा होता है लेकिन जब ज्ञान और जागरूकता जब एकजुट होते हैं, तो सबसे गहरे अंधकार को भी हरा सकते हैं।
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तो अब मिलते हैं अगली कहानी के साथ। तब तक के लिए अलविदा!