इस अध्याय में बतलाया गया है कि तीन अन्य भक्त किस प्रकार शिरडी की ओर खींचे गए।
प्राक्कथन
जो बिना किसी कारण भक्तों पर स्नेह करने वाले दया के सागर हैं तथा निर्गुण होकर भी भक्तों के प्रेमवश ही जिन्होंने स्वेच्छापूर्वक मानव शरीर धारण किया, जो ऐसे भक्त-वत्सल हैं कि जिनके दर्शन मात्र से ही भवसागर के भय और समस्त कष्ट दूर हो जाते हैं, ऐसे श्री साईनाथ महाराज को हम नमन करें। भक्तों को आत्मदर्शन कराना ही सन्तों का प्रधान कार्य है। श्री साई, जो सन्त शिरोमणि हैं, उनका तो मुख्य ध्येय ही यही है । जो उनके श्रीचरणों की शरण में जाते है, उनके समस्त पाप नष्ट होकर निश्चित ही दिनप्रतिदिन प्रगति करते हैं। उनके श्री चरणों का स्मरण कर पवित्र स्थानों से भक्तगण शिरडी आते और उनके समीप बैठकर श्लोक पढ़कर गायत्री मंत्र का जाप किया करते थे । परन्तु जो निर्बल तथा सर्व प्रकार से दीन-हीन हैं और जो यह भी नहीं जानते कि भक्ति किसे कहते हैं, उनका तो केवल इतना ही विश्वास हैं कि अन्य सब लोग उन्हें असहाय छोड़कर उपेक्षा भले ही कर दें, परन्तु अनाथों के नाथ और प्रभु श्री साई मेरा कभी परित्याग न करेंगे। जिन पर वे कृपा करें, उन्हें प्रचण्ड शक्ति, नित्य-अनित्य में विवेक तथा ज्ञान सहज ही प्राप्त हो जाता है।
वे अपने भक्तों की इच्छाएँ जानकर उन्हें पूर्ण किया करते है, इसलिये भक्तों को मनोवांछित फल की प्राप्ति हो जाया करती है और वे सदा कृतज्ञ बने रहते हैं। हम उन्हें साष्टांग प्रणाम कर प्रार्थना करते हैं कि वे हमारी त्रुटियों की ओर ध्यान न देकर हमें समस्त कष्टों से बचा लें। जो विपत्ति-ग्रस्त प्राणी इस प्रकार श्री साई से प्रार्थना करता है, उनकी कृपा से उसे पूर्ण शान्ति तथा सुख-समृद्धि प्राप्त होती है।
श्री हेमाडपंत कहते है कि, “हे मेरे साई! तुम तो दया के सागर हो।” यह तो तुम्हारी ही दया का फल है, जो आज यह “साई सच्चरित्र” भक्तों के समक्ष प्रस्तुत है, अन्यथा मुझमें इतनी योग्यता कहाँ, जो ऐसा कठिन कार्य करने का दुस्साहस भी कर सकता? जब पूर्ण उत्तरदायित्व साई ने अपने ऊपर ही ले लिया तो हेमाडपंत को तिलमात्र भी भार प्रतीत न हुआ और न ही इसकी उन्हें चिन्ता ही हुई। श्री साई ने इस ग्रन्थ के रूप में उनकी सेवा स्वीकार कर ली । यह केवल उनके पूर्वजन्म के शुभ संस्कारों के कारण ही सम्भव हुआ, जिसके लिए वे अपने को भाग्यशाली और कृतार्थ समझते हैं।
नीचे लिखी कथा कपोलकल्पित नहीं, वरन् विशुद्ध अमृततुल्य है। इसे जो हृदयंगम करेगा, उसे श्री साई की महानता और सर्वव्यापकता विदित हो जाएगी, परन्तु जो वादविवाद और आलोचना करना चाहते हैं, उन्हें इन कथाओं की ओर ध्यान देने की आवश्यकता भी नहीं है। यहाँ तर्क ही नहीं, वरन् प्रगाढ़ प्रेम और भक्ति की अत्यन्त अपेक्षा हैं। विद्वान् भक्त तथा श्रद्धालु जन अथवा जो अपने को साई-पद-सेवक समझते हैं, उन्हें ही ये कथाएँ रुचिकर तथा शिक्षाप्रद प्रतीत होंगी, अन्य लोगों के लिए तो वे निरी कपोलकल्पनाएँ ही हैं । श्रीसाई के अंतरंग भक्तों को श्री साईलीलाएँ कल्पतरु के सदृश हैं। श्री साई-लीलारूपी अमृतपान करने से अज्ञानी जीवों को ज्ञान, गृहस्थाश्रमियों को सन्तोष तथा मुमुक्षुओं को एक उच्च साधन प्राप्त होता है। अब हम इस अध्याय की मूल कथा पर आते हैं।
काका जी वैद्य
नासिक जिले के वणी ग्राम में काका जी वैद्य नाम के एक व्यक्ति रहते थे। वे श्री सप्तश्रृंगी देवी के पुजारी थे। एक बार वे विपत्तियों मे कुछ इस प्रकार ग्रसित हुए कि उनके चित्त की शांति भंग हो गई और वे बिल्कुल निराश हो उठे। एक दिन अति व्यथित होकर देवी के मन्दिर में जाकर अन्तःकरण से वे प्रार्थना करने लगे कि “हे देवी! हे दयामयी ! मुझे कष्टों से शीघ्र मुक्त करो।” उनकी प्रार्थना से देवी प्रसन्न हो गई और उसी रात्रि को उन्हें स्वप्न में बोलीं कि, “तु बाबा के पास जा, वहाँ तेरा मन शान्त और स्थिर हो जाएगा।” बाबा का परिचय जानने को काका जी बड़े उत्सुक थे, परन्तु देवी से प्रश्न करने के पूर्व ही उनकी निद्रा भंग हो गई। वे सोचने लगे कि ऐसे ये कौन से बाबा हैं, जिनकी ओर देवी ने मुझे संकेत किया है। कुछ देर सोचने के पश्चात् निष्कर्ष पर पहुँचे कि सम्भव है कि वे त्र्यंबकेश्वर बाबा (शिव) ही हों । इसलिये वे पवित्र तीर्थ त्र्यंबक (नासिक) गए और वहाँ दस दिन व्यतीत किये। वे प्रातःकाल उठकर स्नानादि से निवृत्त हो, रुद्र मंत्र का जाप कर, साथ ही साथ अभिषेक व अन्य धार्मिक कृत्य भी करने लगे । परन्तु उनका मन पूर्ववत् ही अशान्त बना रहा। तब फिर अपने घर लौटकर वे अति करुण स्वर में देवी की प्रार्थना करने लगे । उसी रात्रि में देवी ने उन्हें पुनः स्वप्न में दर्शन देकर कहा कि, “तू व्यर्थ ही त्र्यंबकेश्वर क्यों गया ? बाबा से तो मेरा अभिप्राय था शिरडी के श्री साई समर्थ।” अब काका जी के समक्ष मुख्य प्रश्न यह उपस्थित हो गया कि वे कैसे और कब शिरडी जाकर बाबा के श्री दर्शन का लाभ उठायें। यथार्थ में यदि कोई व्यक्ति, किसी सन्त के दर्शन को आतुर हो तो केवल सन्त ही नहीं, भगवान भी उसकी इच्छा पूर्ण कर देते हैं। वस्तुतः यदि पूछा जाए तो सन्त और अनन्त एक ही हैं और उनमें कोई भिन्नता नहीं। यदि कोई कहे कि मैं स्वतः ही अमुक सन्त के दर्शन को जाऊँगा तो इसे निरे दम्भ के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है ? सन्त की इच्छा के विरुद्ध उनके समीप जाकर कौन दर्शन ले सकता है ? उनकी सत्ता के बिना वृक्ष का एक पत्ता भी नहीं हिल सकता। जितनी तीव्र उत्कंठा संत-दर्शन की होगी, तदनुसार ही उसकी भक्ति और विश्वास में वृद्धि होती जाएगी और उतनी ही शीघ्रता से उनकी मनोकामना भी पूर्ण होगी। जो निमंत्रण देता है, वह आदर आतिथ्य का प्रबन्ध भी करता है । काका जी के सम्बन्ध में सचमुच यही हुआ।
शामा की मान्यता
जब काकाजी शिरडी यात्रा करने का विचार कर रहे थे, उसी समय उनके यहाँ एक अतिथि आया (जो कि शामा के अतिरिक्त और कोई न था)। शामा बाबा के अन्तरंग भक्तों में से थे। वे ठीक इसी समय वणी में क्यों और कैसे आ पहुँचे, अब हम इस पर दृष्टि डालें। बाल्यावस्था में वे एक बार बहुत बीमार पड़ गए थे। उनकी माता ने अपनी कुलदेवी सप्तश्रृंगी से प्रार्थना की कि यदि मेरा पुत्र नीरोग हो जाए तो मैं उसे तुम्हारे चरणों पर लाकर डालूंगी। कुछ वर्षों के पश्चात् ही उनकी माता के स्तन में दाद हो गई। तब उन्होंने पुनः देवी से प्रार्थना की कि यदि मैं रोगमुक्त हो जाऊँ तो मैं तुम्हें चाँदी के दो स्तन चढ़ाऊँगी । पर ये दोनो वचन अधूरे ही रहे। परन्तु जब वे मृत्युशैय्या पर पड़ी थीं तो उन्होंने अपने पुत्र शामा को समीप बुलाकर उन दोनों वचनों की स्मृति दिलाई तथा उन्हें पूर्ण करने का आश्वासन पाकर प्राण त्याग दिये। कुछ दिनों के पश्चात् वे अपनी यह प्रतिज्ञा भूल गए और इसे भूले पूरे तीस वर्ष व्यतीत हो गए। तभी एक प्रसिद्ध ज्योतिषी शिरडी आए और वहाँ लगभग एक मास ठहरे । श्रीमान् बूटीसाहेब और अन्य लोगों को बतलायी उनकी सभी भविष्यवाणी प्रायः सही निकली, जिनसे सब को पूर्ण सन्तोष था। शामा के लघुभ्राता बापाजी ने भी उनसे कुछ प्रश्न पूछे। तब ज्योतिषी ने उन्हें बताया कि तुम्हारे ज्येष्ठ भ्राता ने अपनी माता को मृत्युशैय्या पर जो वचन दिये थे, उनके अब तक पूर्ण न किये जाने के कारण देवी असन्तुष्ट होकर उन्हें कष्ट पहुँचा रही हैं। ज्योतिषी की बात सुनकर शामा उन अपूर्ण वचनों की स्मृति हो आई। अब और विलम्ब करना खतरनाक समझकर उन्होंने सुनार को बुलाकर शीघ्र चाँदी के दो स्तन तैयार कराये और उन्हें मस्जिद में ले जाकर बाबा के समक्ष रख दिया तथा प्रणाम कर उन्हें स्वीकार कर वचनमुक्त करने की प्रार्थना की । शामा ने कहा कि, मेरे लिये तो सप्तश्रृंगी देवी आप ही है; परन्तु बाबा ने साग्रह कहा कि तुम इन्हें स्वयं ले जाकर देवी के चरणों मे अर्पित करो। बाबा की आज्ञा व उदी लेकर उन्होंने वणी को प्रस्थान कर दिया। पुजारी का घर पूछते-पूछते वे काका जी के पास जा पहुँचे । काका जी इस समय बाबा के दर्शनों को बड़े उत्सुक थे और ठीक ऐसे ही मौके पर शामा भी वहाँ पहुँच गए। वह संयोग भी कैसा विचित्र था ? काकाजी ने आगन्तुक से उनका परिचय प्राप्त कर पूछा कि आप कहाँ से पधार रहे है ? जब उन्होंने सुना कि वे शिरडी से ही आ रहे हैं तो वे एकदम प्रेमोन्मत्त हो शामा से लिपट गए और फिर दोनों का श्री साईलीलाओं पर वार्तालाप आरम्भ हो गया। अपने वचन संबंधी कृत्यों को पूर्ण कर वे काकाजी के साथ शिरडी लौट आए। काका मस्जिद पहुँचकर बाबा के श्रीचरणों से जा लिपटे। उनके नेत्रों से प्रेमाश्रुओं की धारा बहने लगी और उनका चित्त स्थिर हो गया। देवी के दृष्टांतानुसार जैसे ही उन्होंने बाबा के दर्शन किये, उनके मन की अशांति तुरन्त नष्ट हो गई और वे परम शांति का अनुभव करने लगे। वे विचार करने लगे कि कैसी अद्भुत शक्ति है कि बिना कोई सम्भाषण या प्रश्नोत्तर किये अथवा आशीष पाये, दर्शन मात्र से ही अपार प्रसन्नता हो रही है ! सचमुच में दर्शन का महत्व तो इसे ही कहते हैं। उनके तृषित नेत्र साई-चरणों पर स्थिर हो गए और वे अपनी जिह्वा से एक शब्द भी न बोल सके। बाबा की अन्य लीलाएँ सुनकर उन्हें अपार आनन्द हुआ और वे पूर्णतः बाबा के शरणागत हो गए। सब चिन्ताओं और कष्टों को भूलकर वे परम आनन्दित हुए। उन्होंने वहाँ सुखपूर्वक बारह दिन व्यतीत किये और फिर बाबा की आज्ञा, आशीर्वाद तथा उदी प्राप्त कर अपने घर लौट गए।
खुशालचन्द (राहातानिवासी)
ऐसा कहते हैं कि प्रातः बेला में जो स्वप्न आता है, वह बहुधा जागृतावस्था में सत्य निकलता है। ठीक है, ऐसा ही होता होगा। परन्तु बाबा के सम्बन्ध में समय का ऐसा कोई प्रतिबन्ध नहीं था। ऐसा ही एक उदाहरण प्रस्तुत है — बाबा ने एक दिन तृतीय प्रहर काकासाहेब को ताँगा लेकर राहाता से खुशालचन्द को लाने के लिये भेजा, क्योंकि खुशालचन्द से उनकी कई दिनों से भेंट न हुई थी। राहाता पहुँच कर काकासाहेब ने यह सन्देश उन्हें सुना दिया। यह सन्देश सुनकर उन्हें महान् आश्चर्य हुआ और वे कहने लगे कि दोपहर को भोजन के उपरान्त थोड़ी देर मुझे झपकी आ गई थी, तभी बाबा स्वप्न में आए और मुझे शीघ्र ही शिरडी आने को कहा। परन्तु घोड़े का उचित प्रबन्ध न हो सकने के कारण मैंने अपने पुत्र को यह सूचना देने के लिये ही उनके पास भेजा था। जब वह गाँव की सीमा तक ही पहुँचा था, तभी आप सामने से ताँगे में आते दिखे।
वे दोनों ताँगे में बैठकर शिरडी पहुँचे तथा बाबा से भेंटकर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। बाबा की यह लीला देख खुशालचन्द गद्गद् हो गए।
बम्बई के रामलाल पंजाबी
बम्बई के एक पंजाबी ब्राह्मण श्री रामलाल को बाबा ने स्वप्न में एक महन्त के वेश में दर्शन देकर शिरडी आने को कहा। उन्हें नाम ग्राम कुछ भी पता न चल रहा था। उनको श्री-दर्शन करने की तीव्र उत्कंठा तो थी, परन्तु पता-ठिकाना-ज्ञात न होने के कारण बड़े असमंजस में पड़े हुये थे। जो आमंत्रण देता है, वही आने का प्रबन्ध भी करता है और अन्त में हुआ भी वैसा ही। उसी दिन सन्ध्या समय जब वे सड़क पर टहल रहे थे तो उन्होंने एक दुकान पर बाबा का चित्र टँगा देखा। स्वप्न में उन्हें जिस आकृति वाले महन्त के दर्शन हुए थे, वे इस चित्र के ही सदृश थे। पूछताछ करने पर उन्हें ज्ञात हुआ कि यह चित्र शिरडी के श्री साई समर्थ का है और तब उन्होंने शीघ्र ही शिरडी प्रस्थान कर दिया तथा जीवनपर्यन्त शिरडी में ही निवास किया।
इस प्रकार बाबा ने अपने भक्तों को अपने दर्शन के लिये शिरडी में बुलाया और उनकी लौकिक तथा पारलौकिक समस्त इच्छाएँ पूर्ण कीं।