श्री साईबाबा की स्वीकृति और वचन देना
जैसा कि गत अध्याय में वर्णन किया जा चुका है, बाबा ने सच्चरित्र लिखने की अनुमति देते हुए कहा कि सच्चरित्र लेखन के लिये मेरी पूर्ण अनुमति है। तुम अपना मन स्थिर कर, मेरे वचनों में श्रद्धा रखो और निर्भय होकर कर्तव्य पालन करते रहो यदि मेरी लीलाएँ लिखी गई तो अविद्या का नाश होगा तथा ध्यान व भक्तिपूर्वक श्रवण करने से, दैहिक बुद्धी नष्ट होकर भक्ति और प्रेम की तीव्र लहर प्रवाहित होगी और जो इन लीलाओं की अधिक गहराई तक खोज करेगा, उसे ज्ञानरूपी अमूल्य रत्न की प्राप्ति हो जाएगी।
इन वचनों को सुनकर हेमाडपंत को अति हर्ष हुआ और वे निर्भय हो गए। उन्हें दृढ़ विश्वास हो गया कि अब कार्य अवश्य ही सफल होगा।
बाबा ने शामा की ओर दृष्टिपात कर कहा “जो, प्रेमपूर्वक मेरा नामस्मरण करेगा, मैं उसकी समस्त इच्छायें पूर्ण कर दूँगा। उसकी भक्ति में उत्तरोत्तर वृद्धि होगी। जो मेरे चरित्र और कृत्यों का श्रद्धापूर्वक गायन करेगा, उसकी मैं हर प्रकार से सदैव सहायता करूँगा। जो भक्तगण हृदय और प्राणों से मुझे चाहते हैं, उन्हें मेरी कथाएँ श्रवण कर स्वभावतः प्रसन्नता होगी। विश्वास रखो कि जो कोई मेरी लीलाओं का कीर्तन करेगा, उसे परमानन्द और चिरसन्तोष की उपलब्धि हो जाएगी। यह मेरा वैशिष्ट्य है कि जो कोई अनन्य भाव से मेरी शरण आता है, जो श्रद्धापूर्वक मेरा पूजन, निरन्तर स्मरण और मेरा ही ध्यान किया करता है, उसको मैं मुक्ति प्रदान कर देता हूँ।”
“जो नित्यप्रति मेरा नामस्मरण और पूजन कर मेरी कथाओं और लीलाओं का प्रेमपूर्वक मनन करते हैं, ऐसे भक्तों में सांसारिक वासनाएँ और अज्ञानरूपी प्रवृत्तियाँ कैसे ठहर सकती है? मैं उन्हें मृत्यु के मुख से बचा लेता हूँ।”
“मेरी कथाएँ श्रवण करने से मुक्ति हो जाएगी। अतः मेरी कथाओं को श्रद्धापूर्वक सुनो, मनन करो। सुख और सन्तोष-प्राप्ति का सरल मार्ग ही यही है। इससे श्रोताओं के चित्त को शांति प्राप्त होगी और जब ध्यान प्रगाढ़ और विश्वास दृढ़ हो जाएगा, तब अखंड चैतन्यवन से अभिन्नता प्राप्त हो जाएगी। केवल 'साई' 'साई' के उच्चारणमात्र से ही उनके समस्त पाप नष्ट हो जाएँगे।”
भिन्न-भिन्न कार्यों की भक्तों को प्रेरणा:
भगवान अपने किसी भक्त को मन्दिर, मठ, किसी को नदी के तीर पर घाट बनवाने, किसी को तीर्थपर्यटन करने और किसी को भगवत् कीर्तन करने एवं भिन्न-भिन्न कार्य करने की प्रेरणा देते हैं। परन्तु उन्होंने मुझे “साईसच्चरित्र” – लेखन की प्रेरणा की। किसी भी विद्या का पूर्ण ज्ञान न होने के कारण मैं इस कार्य के लिये सर्वथा अयोग्य था। अतः मुझे इस दुष्कर कार्य का दुस्साहस क्यों करना चाहिए? श्री साई महाराज की यथार्थ जीवनी का वर्णन करने की सामर्थ्य किसे है? उनकी कृपा मात्र से ही कार्य सम्पूर्ण होना सम्भव है । इसलिये जब मैंने लेखन प्रारम्भ किया तो बाबा ने मेरा अहं नष्ट कर दिया और उन्होंने स्वयं अपना चरित्र रचा। अतः इस चरित्र का श्रेय उन्हीं को है, मुझे नहीं। जन्मतः ब्राह्मण होते हुए भी मैं दिव्य चक्षु-विहीन था, अतः “साई सच्चरित्र” लिखने में सर्वथा अयोग्य था। परन्तु श्रीहरिकृपा से क्या सम्भव नहीं है? मूक भी वाचाल हो जाता है और पंगु भी गिरिवर चढ़ जाता है।*
* अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्
–|| गीता ९ || २२ ||
अपनी इच्छानुसार कार्य पूर्ण करने की युक्ति वे ही जाने। हारमोनियम और बंसी को यह आभास कहाँ कि ध्वनि कैसे प्रसारित हो रही है ? इसका ज्ञान तो वादक को ही है। चन्द्रकांतमणि की उत्पत्ति और ज्वार भाटे का रहस्य मणि अथवा उदधि नहीं, वरन् शशिकलाओं के घटने-बढ़ने में ही निहित है।
बाबा का चरित्र : ज्यातिस्तम्भ स्वरूप
समुद्र में अनेक स्थानों पर ज्योतिस्तम्भ इसलिये बनाये जाते हैं, जिससे नाविक चट्टानों और दुर्घटनाओं से बच जाएँ और जहाज को कोई हानि न पहुँचे। इस भवसागर में श्री साईबाबा का चरित्र ठीक उपर्युक्त भाँति ही उपयोगी है। वह अमृत से भी अति मधुर और सांसारिक पथ को सुगम बनाने वाला है। जब वह कानों के द्वारा हृदय में प्रवेश करता है, तब दैहिक बुद्धि नष्ट हो जाती है और हृदय में एकत्रित करने से समस्त कुशंकाएँ लोप हो जाती है। अहंकार का विनाश हो जाता है तथा बौद्धिक आवरण लुप्त होकर ज्ञान प्रगट हो जाता है। बाबा की विशुद्ध कीर्ति का वर्णन निष्ठापूर्वक श्रवण करने से भक्तों के पाप नष्ट होंगे। अतः यह मोक्ष प्राप्ति का भी सरल साधन है। सत्ययुग में शम तथा दम, त्रेता में त्याग, द्वापर में पूजन और कलियुग में भगवतकीर्तन ही मोक्ष का साधन है। यह अन्तिम साधन, चारों वर्णों के लोगों को साध्य भी है। अन्य साधन, योग, त्याग, ध्यान-धारणा आदि आचरण करने में कठिन हैं, परन्तु चरित्र तथा हरिकिर्तन का श्रवण तो अत्यंत ही सुलभ है। केवल उन पर ध्यान देने की ही आवश्यकता है। कथा श्रवण और कीर्तन से इन्द्रियों की स्वाभाविक विषयासक्ति नष्ट हो जाती है और भक्त वासना रहित होकर आत्मसाक्षात्कार की ओर अग्रेसर हो जाता है। इसी फल को प्रदान करने के हेतु उन्होंने सच्चरित्र की रचना करायी। भक्तगण अब सरलतापूर्वक चरित्र का अवलोकन करें और साथ ही उनके मनोहर स्वरूप का ध्यान कर, गुरु और भगवत्-भक्ति के अधिकारी बने तथा निष्काम होकर आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त हों। “साई सच्चरित्र” का सफलतापूर्वक सम्पूर्ण होना, यह साईमहिमा ही समझें, हमें तो केवल एक निमित्त मात्र ही बनाया गया है।
मातृप्रेम
गाय का अपने बछड़े पर प्रेम सर्वविदित ही है। उसके स्तवन सदैव दुग्ध से पूर्ण रहते हैं और जब भूखा बछड़ा स्तन की ओर दौड़कर आता है तो दुग्ध की धारा स्वतः प्रवाहित होने लगती है। उसी प्रकार माता भी अपने बच्चे की आवश्यकता का पहले से ही ध्यान रखती है और ठीक समय पर स्तनपान कराती है । वह बालक का श्रृंगार उत्तम ढंग से करती है, परन्तु बालक को इसका कोई भान ही नहीं होता। बालक के सुन्दर श्रृंगारादि को देखकर माता के हर्ष का पारावार नहीं रहता । माता का प्रेम विचित्र, असाधारण और निःस्वार्थ है, जिसकी कोई उपमा नहीं है । ठीक इसी प्रकार सद्गुरु का प्रेम अपने शिष्य पर होता है। ऐसा ही प्रेम बाबा का मुझ पर था, उदाहरणार्थ वह निम्न प्रकार था :-
सन १९१६ में मैंने नौकरी से अवकाश ग्रहण किया । जो पेन्शन मुझे मिलती थी, वह मेरे कुटुम्ब के निर्वाह के लिये अपर्याप्त थी । उसी वर्ष की गुरुपूर्णिमा के दिवस मैं अन्य भक्तों के साथ शिरडी गया। वहाँ अण्णा चिंचणीकर ने स्वतः ही मेरे लिये बाबा से इस प्रकार प्रार्थना की, “इन पर कृपा करो। जो पेन्शन इन्हें मिलती है, वह निर्वाह-योग्य नहीं है। कुटुम्ब में वृद्धि हो रही है। कृपया और कोई नौकरी दिला दीजिये, ताकि इनकी चिन्ता दूर हो और ये सुखपूर्वक रहें।” बाबा ने उत्तर दिया कि “इन्हें नौकरी मिल जाएगी, परन्तु अब इन्हें मेरी सेवा में ही आनन्द लेना चाहिए। इनकी इच्छाएँ सदैव पूर्ण होंगी, इन्हें अपना ध्यान मेरी ओर आकर्षित कर, अधार्मिक तथा दुष्टजनों की संगति से दूर रहना चाहिए। इन्हें सबसे दया और नम्रता का बर्ताव और अंतःकरण से मेरी उपासना करनी चाहिए। यदि ये इस प्रकार आचरण कर सकें तो नित्यानन्द के अधिकारी हो जाएँगे।”
रोहिला की कथा
यह कथा श्री साई बाबा के समस्त प्राणियों पर समान प्रेम की सूचक है। एक समय रोहिला जाति का एक मनुष्य शिरडी में आया। वह ऊँचा-पूरा, सुदृढ़ एवं सुगठित शरीर का था। बाबा के प्रेम से मुग्ध होकर वह शिरडी में ही रहने लगा। वह आठों प्रहर अपनी उच्च और कर्कश आवाज़ में कुरान शरीफ़ की क़लमे पढ़ता और “अल्लाहो अकबर” के नारे लगाता था। शिरडी के अधिकांश लोग खेतों में दिन भर काम करने के पश्चात् जब रात्रि में घर लौटते तो रोहिला की कर्कश पुकारें उनका स्वागत करती थीं। इस कारण उन्हें रात्रि में विश्राम न मिलता था, जिससे वे अधिक कष्ट और असुविधा का अनुभव करने लगे। कई दिनों तक तो वे मौन रहे, परन्तु जब कष्ट असहनीय हो गया, तब उन्होंने बाबा के समीप जाकर रोहिला को मना कर इस उत्पात को रोकने की प्रार्थना की। बाबा ने उन लोगों की इस प्रार्थना पर ध्यान न दिया। इसके विपरीत गाँव वालो को आड़े हाथ लेते हुये बोले कि वे अपने कार्य पर ही ध्यान दें और रोहिला की ओर ध्यान न दें। बाबा ने उनसे कहा कि रोहिला की पत्नी बुरे स्वभाव की है और वह रोहिला को तथा मुझे अधिक कष्ट पहुँचाती है, परन्तु वह उसके क़लमों के समक्ष उपस्थित होने का साहस करने में असमर्थ है, और इसी कारण वह शांति और सुख में है। यथार्थ में रोहिला की कोई पत्नी न थी। बाबा का संकेत केवल कुविचारों की ओर था। अन्य विषयों की अपेक्षा बाबा प्रार्थना और ईश आराधना को महत्त्व देते थे। अतः उन्होंने रोहिला के पक्ष का समर्थन कर, ग्रामवासियों को शांतिपूर्वक थोड़े समय तक उत्पात सहन करने का परामर्श दिया।
बाबा के मधुर अमृतोपदेश:
एक दिन दोपहर की आरती के पश्चात् भक्तगण अपने घरों को लौट रहे थे, तब बाबा ने निम्नलिखित अति सुन्दर उपदेश दिया:
“तुम चाहे कहाँ भी रहो, जो इच्छा हो, सो करो, परन्तु यह सदैव स्मरण रखो कि जो कुछ तुम करते हो, वह सब मुझे ज्ञात है। मैं ही समस्त प्राणियों का प्रभु और घट-घट में व्याप्त हूँ। मेरे ही उदर में समस्त जड़ व चेतन प्राणी समाये हुए है। मैं ही समस्त ब्रह्मांड का नियंत्रणकर्ता व संचालक हूँ। मैं ही उत्पत्ति, स्थिति व संहारकर्ता हूँ। मेरी भक्ति करने वालों को कोई हानि नहीं पहुँचा सकता। मेरे ध्यान की उपेक्षा करने वाला, माया के पाश में फँस जाता है। समस्त जन्तु, चींटियाँ तथा दृश्यमान, परिवर्तमान और स्थायी विश्व मेरे ही स्वरूप हैं।”
इस सुन्दर तथा अमूल्य उपदेश को श्रवण कर मैंने तुरन्त यह दृढ़ निश्चय कर लिया कि अब भविष्य में अपने गुरु के अतिरिक्त अन्य किसी मानव की सेवा न करूँगा। “तुझे नौकरी मिल जाएगी” — बाबा के इन वचनों का विचार मेरे मस्तिष्क में बारबार चक्कर काटने लगा। मुझे विचार आने लगा, क्या सचमुच ऐसा घटित होगा? भविष्य की घटनाओं से स्पष्ट है कि बाबा के वचन सत्य निकले और मुझे अल्पकाल के लिये नौकरी मिल गई। इसके पश्चात् मैं स्वतंत्र होकर एकचित्त से जीवनपर्यन्त बाबा की ही सेवा करता रहा।
इस अध्याय को समाप्त करने से पूर्व मेरी पाठकों से विनम्र प्रार्थना है कि वे समस्त बाधाएँ — जैसे आलस्य, निद्रा, मन की चंचलता व इन्द्रियआसक्ति दूर कर और एकचित्त हो अपना ध्यान बाबा की लीलाओं की ओर दें और स्वाभाविक प्रेम निर्माण कर भक्ति रहस्य को जानें तथा अन्य साधनाओं में व्यर्थ श्रमित न हों। उन्हें केवल एक सुगम उपाय का पालन करना चाहिए और वह है श्री साईलीलाओं का श्रवण। इससे उनका अज्ञान नष्ट होकर मोक्ष का द्वार खुल जाएगा। जिस प्रकार अनेक स्थानों में भ्रमण करते हुए भी लोभी पुरुष अपने गड़े हुये धन के लिये सतत् चिन्तित रहता है, उसी प्रकार श्री साई को अपने हृदय में धारण करो। अगले अध्याय में श्री साईबाबा के शिरडी आगमन का वर्णन होगा।