(१) मद्रासी भजनी मेला
लगभग सन् १९१६ में एक मद्रासी भजन मंडली पवित्र काशी की तीर्थयात्रा पर निकली। उस मंडली में एक पुरुष, उनकी स्त्री, पुत्री और साली थी। अभाग्यवश, उनके नाम यहाँ नहीं दिये जा रहे हैं। मार्ग में कहीं उनको सुनने में आया कि अहमदनगर के कोपरगाँव तालुका के शिरडी ग्राम में श्री साईबाबा नाम के एक महान् सन्त रहते हैं, जो बहुत दयालु और पहुँचे हुए हैं। वे उदार हृदय और अहेतुक कृपासिन्धु हैं। वे प्रतिदिन अपने भक्तों को रुपया बाँटा करते हैं । यदि कोई कलाकार वहाँ जाकर अपनी कला का प्रदर्शन करता है तो उसे भी पुरस्कार मिलता है । प्रतिदिन दक्षिणा में बाबा के पास बहुत रुपये इकट्ठे हो जाया करते थे। इन रुपयों में से वे नित्य एक रुपया भक्त कोण्डाजी की तीन वर्षीय कन्या अमनी को, किसी को दो रुपये से पाँच रुपये तक, छः रुपये अमनी की माँ जमली को और दस से बीस रुपये तक और कभी-कभी पचास रुपये भी अपनी इच्छानुसार अन्य भक्तों को दिया करते थे। यह सुनकर मंडली शिरडी आकर रुकी। मंडली बहुत सुन्दर भजन और गायन किया करती थी, परन्तु उनका भीतरी ध्येय तो द्रव्योपार्जन ही था मंडली में तीन व्यक्ति तो बड़े ही लालची थे। केवल प्रधान स्त्री का ही स्वभाव इन लोगों से सर्वथा भिन्न था। उसके हृदय में बाबा के प्रति श्रद्धा और विश्वास देखकर बाबा प्रसन्न हो गए। फिर क्या था? बाबा ने उसे उसके इष्ट के रूप में दर्शन दिये और केवल उसे ही बाबा सीतानाथ के रूप में दिखलाई दिये, जब कि अन्य उपस्थित लोगों को सामान्य ही। अपने प्रिय इष्ट का दर्शन पाकर वह द्रवित हो गई तथा उसका कंठ रुँध गया और आँखो से अश्रुधारा बहने लगी। तभी प्रेमोन्मत्त हो वह ताली बजाने लगी । उसको इस प्रकार आनन्दित देख लोगों को कौतुहल तो होने लगा, परन्तु कारण किसी को भी ज्ञात न हो रहा था। दोपहर के पश्चात् उसने वह भेद अपने पति से प्रगट किया। बाबा के श्रीरामस्वरूप में उसे कैसे दर्शन हुए इत्यादि उसने सब बताया। पति ने सोचा कि मेरी स्त्री बहुत भोली और भावुक है, अतः इसे राम का दर्शन होना एक मानसिक विकार के अतिरिक्त कुछ नहीं है। उसने ऐसा कहकर उसकी उपेक्षा कर दी कि कहीं यह भी संभव हो सकता है कि केवल तुम्हें ही बाबा के रूप में दिखें और अन्य लोगों को सदैव की भाँति ही। स्त्री ने कोई प्रतिवाद न किया, क्योकि उसे राम के दर्शन जिस प्रकार उस समय हुए थे, वैसे ही अब भी हो रहे थे। उसका मन शान्त, स्थिर और संतृप्त हो चुका था।
आश्चर्यजनक दर्शन
इसी प्रकार दिन बीत गए। एक दिन रात्रि में उसके पति को एक विचित्र स्वप्न आया। उसने देखा कि एक बड़े शहर में पुलिस ने गिरफ्तार कर रस्सी से बाँधकर उसे कारावास में डाल दिया है। तत्पश्चात् ही उसने देखा कि बाबा शान्त मुद्रा में सींकचों के बाहर उसके समीप खड़े है। उन्हें अपने समीप खड़े देखकर वह गिड़गिड़ा कर कहने लगा कि, “आपकी कीर्ति सुनकर ही मैं आपके श्रीचरणों में आया हूँ। फिर आपके इतने निकट होते हुए भी मेरे ऊपर यह विपदा क्यों आई ?”
तब वे बोले, “तुम्हें अपने बुरे कर्मों का फल अवश्य भुगतना चाहिए।” वह पुनः बोला कि, “इस जीवन में मुझे अपने ऐसे कर्म की स्मृति नहीं, जिसके कारण मुझे ये दुर्दिन देखने को मिला।” बाबा ने का कि, “यदि इस जन्म में नहीं तो गत जन्म में अवश्य कोई बुरा कर्म किया होगा।” तब वह कहने लगा कि, “मुझे अपने गत जन्म की कोई स्मृति नहीं, परन्तु यदि एक बार मान भी लूँ कि कोई बुरा कर्म हो भी गया होगा तो आपके यहाँ होते हुए तो उसे भस्म हो जाना चाहिए, जिस प्रकार सूखी घास अग्नि द्वारा शीघ्र भस्म हो जाती है।”
बाबा ने पूछा, “क्या तुम्हारा सचमुच ऐसा दृढ़ विश्वास है ?” उसने कहा, “हाँ।”
बाबा ने उससे अपनी आँखे बन्द करने को कहा और जब उसने आँखे बन्द कीं, उसे किसी भारी वस्तु के गिरने की आहट सुनाई दी। आँखे खोलने पर उसने अपने को कारावास से मुक्त पाया। पुलिसवाला नीचे गिरा पड़ा है तथा उसके शरीर से खून प्रवाहित हो रहा है, यह देखकर वह अत्यन्त भयभीत दृष्टि से बाबा की ओर देखने लगा। तब बाबा बोले कि, “अब तुम्हारी अच्छी तरह खबर ली जाएगी। पुलिस अधिकारी अभी आएँगे और तुम्हें गिरफ्तार कर लेंगे।” तब वह गिड़गिड़ा कर कहने लगा कि, “आपके अतिरिक्त मेरी रक्षा और कौन कर सकता है ? भगवान् मुझे किसी प्रकार बचा लीजिये।”
तब बाबा ने फिर उससे आँखे बन्द करने को कहा। आँखे खोलने पर उसने देखा कि वह पूर्णतः मुक्त होकर सींकचों के बाहर खड़ा है और बाबा भी उसके समीप ही खड़े हैं। तब वह बाबा के श्रीचरणों पर गिर पड़ा।
बाबा ने पूछा कि, “मुझे बताओ तो, तुम्हारे इस नमस्कार और पिछले नमस्कारों में किसी प्रकार भिन्नता है या नहीं ? इसका उत्तर अच्छी तरह सोच कर दो।”
वह बोला कि, “आकाश और पाताल में जो अंतर है, वही अंतर मेरे पहले और इस नमस्कार में है। मेरे पूर्व नमस्कार तो केवल धन-प्राप्ति की आशा से ही थे, परन्तु यह नमस्कार मैंने आपको ईश्वर जानकर ही किया है। पहले मेरी धारणा ऐसी थी कि यवन होने के नाते आप हिन्दुओं का धर्म भ्रष्ट कर रहे हैं।”
बाबा ने पूछा कि, “क्या तुम्हारा यवन पीरों में विश्वास नहीं ?” प्रत्युत्तर में उसने कहा “जी नहीं ।” तब वे फिर पूछने लगे कि, “क्या तुम्हारे घर में एक पंजा नहीं ? क्या तुम ताबूत की पूजा नहीं करते ? तुम्हारे घर में अभी भी एक काडबीबी नामक देवी हैं, जिसके सामने तुम विवाह तथा अन्य धार्मिक अवसरों पर कृपा की भीख माँगा करते हो।”
अन्त में जब उसने स्वीकार कर लिया तो वे बोले कि, “इससे अधिक अब तुम्हें क्या प्रमाण चाहिए ?” तब उनके मन में अपने गुरु श्रीरामदास के दर्शन की इच्छा हुई। बाबा ने ज्यों ही उससे पीछे घूमने को कहा तो उसने देखा कि श्रीरामदास स्वामी उसके सामने खड़े हैं।
तब वह बाबा से कहने लगा कि, “आप तो वृद्ध प्रतीत होते हैं। क्या आपको अपनी आयु विदित है ?”
बाबा ने पूछा कि, “तुम क्या कहते हो कि मैं बूढ़ा हूँ ? थोड़ी दूर मेरे साथ दौड़कर तो देखो।” ऐसा कहकर बाबा दौड़ने लगे और वह भी उनके पीछेपीछे दौड़ने लगा। दौड़ने से पैरों द्वारा जो धूल उडी, उसमे बाबा लुप्त हो गए और तभी उसकी नींद भी खुल गई। जागृत होते ही वह गम्भीरतापूर्वक इस स्वप्न पर विचार करने लगा। उसकी मानसिक प्रवृत्ति में पूर्ण परिवर्तन हो गया। अब उसे बाबा की महानता विदित हो चुकी थी। उसकी लोभी तथा आशंक वृत्ति लुप्त हो गयी और हृदय में बाबा के चरणों के प्रति सच्ची भक्ति उमड़ पड़ी। वह तो एक स्वप्न मात्र ही, परन्तु उसमें जो प्रश्नोत्तर थे, वे अधिक महत्वपूर्ण थे। दूसरे दिन जब सब लोग मस्जिद में आरती के निमित्त एकत्रित हुए, तब बाबा ने उसे प्रसाद में लगभग दो रुपये की मिठाई और दो रुपये नगद अपने पास से देकर आशीर्वाद दिया। उसे कुछ दिन और रोककर उन्होंने आशीष देते हुए कहा कि, “अल्ला तुम्हें बहुत देगा और अब सब अच्छा ही करेगा।” बाबा से उसे अधिक द्रव्य की प्राप्ति तो न हुई, परंतु उनकी कृपा उसे अवश्य प्राप्त हो गई, जिससे उसका बहुत ही कल्याण हुआ। मार्ग में उनको यथेष्ट द्रव्य प्राप्त हुआ और उनकी यात्रा बहुत ही सफल रही। उन्हें यात्रा में कोई कष्ट या असुविधा न हुई और वे अपने घर सकुशल पहुँच गए। उन्हें बाबा के श्री वचन तथा आशीर्वाद और उनकी कृपा से प्राप्त उस आनन्द की सदैव स्मृति बनी रही।
इस कथा से विदित होता है कि बाबा किस प्रकार अपने भक्तों के समीप आकर उन्हें श्रेयस्कर मार्ग पर ले जाते थे और आज भी ले जाते हैं।
तेंडुलकर कुटुम्ब
बम्बई के पास बान्द्रा में एक तेंडुलकर कुटुम्ब रहता था, जो बाबा का परम भक्त था। श्रीयुत् रघुनाथराव तेंडुलकर ने मराठी भाषा में “श्री साईनाथ भजनमाला” नामक एक पुस्तक लिखी है, जिसमें लगभग आठ सौ अभंग और पदों का समावेश तथा बाबा की लीलाओं का मधुर वर्णन है। यह बाबा के भक्तों के पढ़ने योग्य पुस्तक है। उनका ज्येष्ठ पुत्र बाबू डॉक्टरी परीक्षा में बैठने के लिये अनवरत अभ्यास कर रहा था। उसने कई ज्योतिषियों को अपनी जन्म-कुंडली दिखाई, परन्तु सभी ने बतलाया कि इस वर्ष उसके ग्रह उत्तम नहीं हैं किन्तु अगले वर्ष परीक्षा में बैठने से उसे अवश्य सफलता प्राप्त होगी। इससे उसे बड़ी निराशा हुई और वह अशान्त हो गया। थोड़े दिनों के साथ उसने अपने पुत्र की निराशा तथा अशान्ति की बात भी बाबा से कही। उनके पुत्र को कुछ दिनों के पश्चात् ही परीक्षा में बैठना था। बाबा कहने लगे कि, “अपने पुत्र से कहो कि मुझ पर विश्वास रखे। सब भविष्यकथन तथा ज्योतिषियों द्वारा बनाई कुंडलियों को एक कोने में फेंक दे और अपना अभ्यास-क्रम चालू रख शान्तचित्त से परीक्षा में बैठे। वह अवश्य ही इस वर्ष उत्तीर्ण हो जाएगा। उससे कहना कि निराश होने की कोई बात नहीं है।” माँ ने घर आकर बाबा का सन्देश पुत्र को सुना दिया। उसने घोर परिश्रम किया और परीक्षा में बैठ गया। सब परचों के जवाब बहुत अच्छे लिखे थे परन्तु फिर भी संशयग्रस्त होकर उसने सोचा कि सम्भव है कि उत्तीर्ण होने योग्य अंक मुझे प्राप्त न हो सकें। इसलिए उसने मौखिक परीक्षा में बैठने का विचार त्याग दिया। परिक्षक तो उसके पीछे ही लगा था। उसने एक विद्यार्थी द्वारा सूचना भेजी कि उसे लिखित परीक्षा में उत्तीर्ण होने लायक अंक प्राप्त हैं। अब उसे मौखिक परीक्षा में अवश्य ही बैठना चाहिए। इस प्रकार प्रोत्साहन पाकर वह उसमें भी बैठ गया तथा दोनों परीक्षाओं में उत्तीर्ण हो गया। उस वर्ष उसकी ग्रह-दशा विपरीत होते हुए भी बाबा की कृपा से उसने सफलता पायी। यहाँ केवल इतनी ही बात ध्यान देने योग्य है कि कष्ट और संशय की उत्पत्ति अन्त में दृढ़ विश्वास में परिणत हो जाती है। जैसी भी हो, परीक्षा तो होती ही है, परन्तु यदि हम बाबा पर दृढ़ विश्वास और श्रद्धा रखकर प्रयत्न करते रहें तो हमें सफलता अवश्य ही मिलेगी।
इसी बालक के पिता रघुनाथराव बम्बई की एक विदेशी व्यवसायी फर्म में नौकरी करते थे। वे बहुत वृद्ध हो चुके थे और अपना कार्य सुचारुरूप से नहीं कर सकते थे। इसलिये वे अब छुट्टी लेकर विश्राम करना चाहते थे। छुट्टी लेने पर भी उनके शारीरिक स्वास्थ्य में कोई विशेष परिवर्तन न हुआ। अब यह आवश्यक था के सेवानिवृत्ति की पूर्वकालिक छुट्टी ली जाए। एक वृद्ध और विश्वासपात्र नौकर होने के नाते प्रधान मैनेजर ने उन्हें पेन्शन देकर सेवानिवृत्त करने का निर्णय किया। पेन्शन कितनी दी जाए, यह प्रश्न विचाराधीन था। उन्हें १५० रुपये मासिक वेतन मिलता था। इस हिसाब से पेन्शन हुई ७५ रुपये, जो कि उनके कुटुम्ब के निर्वाह हेतु अपर्याप्त थी । इसलिये वे बड़े चिन्तित थे। निर्णय होने के पन्द्रह दिन पूर्व बाबा ने श्रीमती तेंडुलकर को स्वप्न में दर्शन देकर कहा कि, “मेरी इच्छा है कि पेन्शन १०० रुपये दी जाए। क्या तुम्हें सन्तोष होगा?”
श्रीमती तेंडुलकर ने कहा कि “बाबा मुझ दासी से आप क्या पूछते हैं? हमें तो आपके श्री चरणों में पूर्ण विश्वास है।”
यद्यपि बाबा ने १०० रुपये कहे थे, परन्तु उसे विशेष प्रकरण समझकर १० रुपये अधिक अर्थात् ११० रुपये पेन्शन निश्चित हुई। बाबा अपने भक्तों के लिये कितना अपरिमित स्नेह और कितनी चिन्ता रखते थे।
कैप्टन हाटे
बीकानेर के निवासी कैप्टन हाटे बाबा के परम भक्त थे। एक बार स्वप्न में बाबा ने उनसे पूछा कि, “क्या तुम्हें मेरी विस्मृति हो गई ?” श्री हाटे ने उनके श्री चरणों से लिपट कर कहा कि, “यदि बालक अपनी माँ को भूल जाए तो क्या वह जीवित रह सकता है?”
इतना कहकर श्री हाटे शीघ्र बगीचे में जाकर कुछ वलपपड़ी (सेम) तोड़ लाये और एक थाली में सीधा (सूखी भिक्षा) तथा दक्षिणा रखकर बाबा को भेंट करने आए। उसी समय उनकी आँखे खुल गईं और उन्हें ऐसा भान हुआ कि यह तो एक स्वप्न था। फिर वे सब वस्तुएँ, जो उन्होंने स्वप्न में देखी थीं, बाबा के पास शिरडी भेजने का निश्चय कर लिया। कुछ दिनों के पश्चात् वे ग्वालियर आए और वहाँ से अपने एक मित्र को बारह रूपयों का मनीऑर्डर भेजकर पत्र में लिख भेजा कि दो रुपयों में सीधा की सामग्री और वालपापड़ी (सेम) आदि मोल लेकर तथा दस रुपये दक्षिणास्वरूप रखकर मेरी ओर से बाबा को भेंट देना। उनके मित्र ने शिरडी आकर सब वस्तुएँ तो संग्रह कर लीं, परन्तु वालपापड़ी प्राप्त करने में उन्हें अत्यन्त कठिनाई हुई। थोड़ी देर के पश्चात् ही उन्होंने एक स्त्री को सिर पर टोकरी रखे सामने से आते देखा । उन्हें यह देखकर अत्यन्त आश्चर्य हुआ कि उस टोकरी मे वालपापड़ी के अतिरिक्त कुछ भी न था। तब उन्होंने वालपापड़ी खरीद कर सब एकत्रित वस्तुएँ लेकर मस्जिद में जाकर श्री हाटे की ओर से बाबा को भेंट कर दी। दूसरे दिन श्री निमोणकर ने उसका नैवेद्य (चावल और वालपापड़ी की सब्जी) तैयार कर बाबा को भोजन कराया। सब लोगों को बड़ा विस्मय हुआ कि बाबा ने भोजन मे केवल वालपापड़ी ही खाई और अन्य वस्तुओं को स्पर्श तक न किया। उनके मित्र द्वारा जब इस समाचार का पता कैप्टन हाटे को चला तो वे गद्गद् हो उठे और उनके हर्ष का परावार न रहा।
पवित्र रुपया
एक अन्य अवसर पर कैप्टन हाटे ने विचार किया कि बाबा के पवित्र करकमलों द्वारा स्पर्शित एक रुपया लाकर अपने घर में अवश्य ही रखना चाहिए। अचानक ही उनकी भेंट अपने एक मित्र से हो गई, जो शिरडी जा रहे थे। उनके हाथ ही श्री हाटे ने एक रुपया भेज दिया। शिरडी पहुँचने पर बाबा को यथायोग्य प्रणाम करने के पश्चात् उसने दक्षिणा भेंट की, जिसे उन्होंने तुरन्त ही अपने जेब में रख लिया। तत्पश्चात् उसने कैप्टन हाटे का रुपया भी अर्पण किया, जिसे वे हाथ में लेकर गौर से निहारने लगे। उन्होंने उसका अंकित चित्र ऊपर की ओर कर अँगूठे पर रख खनखनाया और अपने हाथ में लेकर देखने लगे। फिर वे उनके मित्र से कहने लगे की उदी सहित यह रुपया अपने मित्र को लौटा देना। मुझे उनसे कुछ नहीं चाहिए। उनसे कहना कि वे आनन्दपूर्वक रहें। मित्र ने ग्वालियर आकर वह रुपया हाटे को देकर वहाँ जो कुछ हुआ था, वह सब उन्हें सुनाया, जिसे सुनकर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने अनुभव किया कि बाबा सदैव उत्तम विचारों को प्रोत्साहित करते हैं। उनकी मनोकामना बाबा ने पूर्ण कर दी।