Sant Shri Sai Baba - 2 in Hindi Spiritual Stories by ՏᎪᎠᎻᎪᏙᏆ ՏOΝᎪᎡᏦᎪᎡ ⸙ books and stories PDF | संत श्री साईं बाबा - अध्याय 2

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संत श्री साईं बाबा - अध्याय 2

गत अध्याय में ग्रन्थकार ने अपने मौलिक ग्रन्थ श्री साई सच्चरित्र (मराठी भाषा) में उन कारणों पर प्रकाश डाला था, जिनके द्वारा उन्हें ग्रंथ रचना के कार्य को आरंभ करने की प्रेरणा मिली। अब वे ग्रन्थ पठन के योग्य अधिकारियों तथा अन्य विषयों का इस अध्याय में विवेचन करते है। ग्रंथ लेखन का हेतु किस प्रकार विषूचिका (हैजा) के रोग के प्रकोप को आटा पिसवाकर तथा उसको ग्राम के बाहर फेंकवा कर रोका तथा उसका उन्मूलन किया, बाबा की इस लिला का प्रथम अध्याय में वर्णन किया जा चुका है। मैंने और भी लीलाएँ सुनीं, जिसे मेरे हृदय को अति आनंद हुआ और यही आनंद का स्त्रोत काव्य रूप में प्रकट हुआ। मैंने यह भी सोचा कि इन महान् आश्चर्यजनक लीलाओं का वर्णन बाबा के भक्तों के लिये मनोरंजक एवं शिक्षाप्रद सिद्ध होगा तथा उनके पाप समूल नष्ट हो जाएँगे। इसलिये मैंने बाबा की पवित्र जीवन गाथा और उनके मधुर उपदेशों का लेखन प्रारम्भ कर दिया। श्री साई की जीवनी न तो उलझनपूर्ण है और न संकीर्ण ही, वरन् सत्य और आध्यात्मिक मार्ग का वास्तविक दिग्दर्शन कराती है।

कार्य आरम्भ करने में असमर्थता और साहस 
श्री हेमाडपन्त को यह विचार आया कि मैं इस कार्य के लिये उपयुक्त पात्र नहीं हूँ। मैं तो अपने परम मित्र की जीवनी से भी भलीभाँति परिचित नहीं हूँ और न ही अपनी प्रकृति से। तब फिर मुझ सरिखा मूढमति भला एक महान् संतपुरुष की जीवनी लिखने का दुस्साहस कैसे कर सकता है? अवतारों की प्रवृत्ति के वर्णन में वेद भी अपनी असमर्थता प्रगट करते है। किसी सन्त का चरित्र समझने के लिये स्वयं को पहले सन्त होना नितातं आवश्यक है। फिर मैं तो उनका गुणगान करने के सर्वथा अयोग्य ही हूँ। संत की जीवनी लिखने में एक महान् साहस की आवश्यकता है और कहीं ऐसा न हो कि चार लोगों के समक्ष हास्य का पात्र बनना पड़े, इसलिये श्रीसाई बाबा की कृपा प्राप्त करने के लिये मैं ईश्वर से प्रार्थना करने लगा।

महाराष्ट्र के संतश्रेष्ठ श्री ज्ञानेश्वर महाराज का कथन है कि संतचरित्र के रचयिता से परमात्मा अति प्रसन्न होता हैं। तुलसीदासजी ने भी कहा है कि
“साधुचरित शुभ से सरिस कपासू। 
निरस विषद गुणमय फल जासू।। 
जो सहि दुःख पर छिद्र दुरावा। 
वंदनीय जेहि जग जस पावा।।” 
भक्तों को भी संतों की सेवा करने की इच्छा बनी रहती है। संतों की कार्य पूर्ण करा लेने की प्रणाली भी विचित्र ही हैं। यथार्थ प्रेरणा तो संत ही किया करते हैं, भक्त तो निमित्त मात्र, या कहिये कि कार्यपूर्ति के लिये एक यंत्र मात्र है। उदाहरणार्थ शक सं. १७०० में कवि महीपति को संत-चरित्र लेखन की प्रेरणा हुई। ईश्वर ने सन्तों में अंतःप्रेरणा पैदा की और कार्य पूर्ण हो गया। इसी प्रकार शक सं.१८०० में श्री दासगणु की सेवा स्वीकार हुई। महीपति ने चार काव्य रचे–भक्तविजय, संतविजय, भक्तलीलामृत और संतलीलामृत, और दासगणु ने केवल दो – भक्तलीलामृत और संतकथामृत—जिसमें आधुनिक संतों के चरित्रों का वर्णन है। भक्तलीलमृत के अध्याय ३१, ३२ और ३३I तथा संत कथामृत के ५७ वें अध्याय में श्री साईबाबा की मधुर जीवनी तथा अमूल्य उपदेशों का वर्णन सुन्दर एवं रोचक ढंग से किया गया है। इनका उद्धरण श्री साईलीला पत्रिका के अंक ११, १२ और १७ में दिया गया है। पाठकों से इनके पठन का अनुरोध है। इसी प्रकार श्री साईबाबा की अद्भूत लीलाओं का वर्णन एक बहुत सुन्दर छोटी सी पुस्तिका–श्री साईनाथ भजनमाला में किया गया है। इसकी रचना बान्द्रा की श्रीमती सावित्रीबाई रघुनाथ तेंदुलकर ने की है। 

श्री दासगणु महाराज ने भी श्री साईबाबा पर कई मधुर कविताओं की रचना की है। एक और भक्त अमीदास मवानी मेहता ने भी बाबा की कुछ कथाओं को गुजराती में प्रकाशित किया है। 'साई प्रभा' नामक पत्रिका में भी कुछ लीलाएँ शिरडी के 'दक्षिणा मिक्षा संस्थान' द्वारा प्रकाशित की गई है। अब प्रश्न यह उठता है कि जब श्री साईनाथ महाराज के जीवन पर प्रकाश डालने वाला इतना साहित्य उपलब्ध है, फिर और एक ग्रन्थ 'साई सच्चरित्र' , और रचने की आवश्यकता ही कहाँ पैदा होती है ? इसका उत्तर केवल यही है कि श्री साईबाबा की जीवनी सागर के सदृश अगाध, विस्तृत और अथाह है। यदि उसमें गहरे गोते लगाये जाएं तो ज्ञान एवं भक्ति रूपी अमूल्य रत्नों की सहज ही प्राप्ति हो सकती है, जिसे मुमुक्षुओं का बहुत लाभ होगा। श्री साईबाबा की जीवनी, उनके दृष्टान्त एवं उपदेश महान् आश्चर्य से परिपूर्ण हैं। दुःख दुर्भाग्यग्रस्त मानवों को इनसे शान्ति और सुख प्राप्त होगा तथा लोक व परलोक में श्रेयस की प्राप्ति होगी। यदि श्री साई बाबा के उपदेशों का, जो कि वैदिक शिक्षा के समान ही मनोरंजक और शिक्षाप्रद हैं, ध्यानपूर्वक श्रवण एवं मनन किया जाए तो भक्तों को अपने मनोवांछित फल की प्राप्ति हो जाएगी, अर्थात् ब्रह्म से अभिन्नता, अष्टांग योग की सिद्धि और समाधि आनन्द आदि की प्राप्ति सरलता से हो जाएगी। यह सोचकर ही मैंने चरित्र की कथाओं को संकलित करना प्रारंभ कर दिया। साथ ही यह विचार भी आया कि मेरे लिये सबसे उत्तम साधना भी केवल यही है। जो भोले-भाले प्राणी श्री साईबाबा के दर्शनों से अपने नेत्र सफल करने के सौभाग्य से वंचित रहे हैं, उन्हें यह चरित्र अति आनन्ददायक प्रतीत होगा। अतः मैंने भी अपना अहंकार उनके श्रीचरणों पर न्योछावर कर दिया। मैंने सोचा कि अब मेरा पथ अति सुगम हो गया है और बाबा मुझे इहलोक और परलोक में सुखी बना देंगे। मैं स्वयं बाबा की आज्ञा प्राप्त करने का साहस नहीं कर सकता था। अतः मैंने श्री माधवराव उपनाम शामा से, जो कि बाबा के अंतरंग भक्तों में से थे, इस हेतु प्रार्थना की। उन्होंने इस कार्य के निमित्त श्री साईबाबा से विनम्र शब्दों में इस प्रकार प्रार्थना की, "ये अण्णासाहेब आपकी जीवनी लिखने के लिये अति उत्सुक हैं। परन्तु आप कृपया ऐसा न कहना कि मैं तो एक फकीर हूँ तथा मेरी जीवनी लिखने की आवश्यकता ही क्या हैं ? आपकी केवल कृपा और अनुमति से ही ये लिख सकेंगे, अथवा आपके श्री चरणों का पुण्यप्रताप ही इस कार्य को सफल बना देगा। आपकी अनुमति तथा आशीर्वाद के अभाव में कोई भी कार्य यशस्वी नहीं हो सकता।" यह प्रार्थना सुनकर बाबा को दया आ गई। उन्होंने आश्वासन और उदी देकर अपना वरद हस्त मेरे मस्तक पर रखा, और कहने लगे कि "इन्हें जीवनी और दृष्टान्तों को एकत्रित कर लिपिबद्ध करने दो, मैं इनकी सहायता करूँगा। मैं स्वयं ही अपनी जीवनी लिखकर भक्तों की इच्छा पूर्ण करूँगा। परन्तु इनको अपना अहं त्यागकर मेरी शरण में आना चाहिए। जो अपने जीवन में इस प्रकार आचरण करते है, उसकी मैं अत्यधिक सहायता करता हूँ। मेरी जीवन-कथाओं की बात तो सहज है, मैं तो इन्हें घर बैठे अनेक प्रकार से सहायता पहुँचाता हूँ। जब इनका अहं पूर्णतः नष्ट हो जाएगा और खोजने पर लेशमात्र भी न मिलेगा, तब मैं इनके अन्तःकरण में प्रगट होकर स्वयं ही अपनी जीवनी लिखूँगा। मेरे चरित्र और उपदेशों के श्रवण मात्र से ही भक्तों के हृदय में श्रद्धा जागृत होकर सरलतापूर्वक आत्मानुभूति एवं परमानंद की प्राप्ति हो जाएगी। ग्रन्थ में अपने मत का प्रतिपादन और दूसरों का खंडन तथा अन्य किसी विषय के पक्ष या विपक्ष में व्यर्थ के वादविवाद की कुचेष्टा नहीं होनी चाहिए।" 

अर्थपूर्ण उपाधि 'हेमाडपंत'
'वादविवाद' शब्द से हमको स्मरण हो आया कि मैंने पाठकों को वचन दिया हैं कि ‘हेमाडपंत' उपाधि किस प्रकार प्राप्त हुई, इसका वर्णन करूँगा। अब मैं उसका वर्णन करता हूँ।

श्री काकासाहेब दीक्षित व नानासाहेब चाँदोरकर मेरे अतिघनिष्ठ मित्रों में से थे। उन्होंने मुझसे शिरडी जाकर श्री साईबाबा के दर्शनों लाभ उठाने का अनुरोध किया। मैंने उन्हें वचन दिया, परन्तु कुछ बाधा आ जाने के कारण मेरी शिरडी-यात्रा स्थगित हो गई। मेरे एक घनिष्ठ मित्र का पुत्र लोनावला में रोगग्रस्त हो गया था। उन्होंने सभी सम्भव आधिभौतिक और आध्यात्मिक उपचार किये, परन्तु सभी प्रयत्न निष्फल हुए और ज्वर किसी प्रकार भी कम न हुआ। यह घटना देखकर मुझे विचार आया कि जब गुरु एक बालक के प्राणों की भी रक्षा करने में असमर्थ हैं, तब उनकी उपयोगिता ही क्या है? और जब उनमें कोई सामर्थ्य ही नहीं, तब फिर शिरडी जाने से क्या प्रयोजन? ऐसा सोचकर मैंने यात्रा स्थगित कर दी। परन्तु जो होना है, वह तो होकर ही रहेगा और वह इस प्रकार हुआ। प्रातांधिकारी नानासाहेब चाँदोरकर बसई के दौरे पर जा रहे थे। वे ठाणा से दादर पहुँचे तथा बसई जाने वाली गाड़ी की प्रतिक्षा कर रहे थे । उसी समय बांद्रा लोकल आ पहुँची, जिसमें बैठकर वे बांद्रा पहुँचे तथा शिरडीयात्रा स्थगित करने के लिये मुझे आड़े हाथ लिया। नानासाहेब का तर्क मुझे उचित तथा सुखदायी प्रतीत हुआ और इसके फलस्वरूप मैंने उसी रात्रि शिरडी जाने का निश्चय किया और सामान बाँधकर शिरडी को प्रस्थान कर दिया। मैने सीधे दादर जाकर वहाँ से मनमाड की गाड़ी पकड़ने का कार्यक्रम बनाया । इस निश्चय के अनुसार मैंने दादर जाने वाली गाड़ी के डिब्बे में प्रवेश किया। गाड़ी छूटने ही वाली थी कि इतने में एक यवन मेरे डिब्बे में आया और मेरा सामान देखकर मुझसे मेरा गन्तव्य स्थान पूछने लगा। मैंने अपना कार्यक्रम उसे बतला दिया। उसने मुझसे कहा कि मनमाड की गाड़ी दादर पर खड़ी नहीं होती, इसलिये सीधे बोरीबन्दर से होकर जाओ । यदि यह एक साधारण सी घटना घटित न हुई होती तो मैं अपने कार्यक्रम के असार दूसरे दिन शिरडी न पहुँच सकने के कारण अनेक प्रकार की शंका-कुशंकाओं से घिर जाता। परन्तु ऐसा घटना न था। भाग्य ने साथ दिया और दूसरे दिन ९-१० बजे के पूर्व ही मैं शिरडी पहुँच गया। यह सन् १९१० की बात है, जब प्रवासी भक्तों के ठहरने के लिये साठेवाड़ा ही एकमात्र स्थान था। ताँगे से उतरने पर मैं साईबाबा के दर्शन के लिये बड़ा लालायित था। उसी समय भक्त प्रवर श्री तात्यासाहेब नूलकर मस्जिद से लौटे ही थे। उन्होंने बतलाया कि इस समय श्री साईबाबा मस्जिद के मोड़ पर ही है। अभी केवल उनका प्रारम्भिक दर्शन ही कर लो और फिर स्नानादि से निवृत्त होने के पश्चात् सुविधा से भेंट करने जाना। यह सुनते ही मैं दौड़कर गया और बाबा की चरणवन्दना की । मेरी प्रसन्नता का परावार न रहा । मुझे क्या नहीं मिल गया था ? मेरा शरीर उल्लसित सा हो गया। क्षुधा और तृषा की सुधि जाती रही। जिस क्षण से उनके भवविनाशक चरणों का स्पर्श प्राप्त हुआ, मेरे जीवन में एक नूतन आनन्द-प्रवाह बहने लगा। मैं उनका स्मरण कर उन्हें मानसिक प्रणाम किया करता हूँ। जैसा कि मेरे अनुभव में आया कि साई के दर्शन में ही यह विशेषता है कि विचार परिवर्तन सांसारिक भोगों से वैराग्य बढ़ता जाता है। केवल गत जन्मों के अनेक शुभ संस्कार एकत्रित होने पर ही ऐसा दर्शन प्राप्त होना सुलभ हो सकता है। पाठकों, मैं आपसे शपथपूर्वक कहता हूँ कि यदि आप श्री साईबाबा को एक दृष्टि भरकर देख लेंगे तो आपको सम्पूर्ण विश्व ही साईमय दिखलाई पड़ेगा।

गरमागरम बहस
शिरडी पहुँचने के प्रथम दिन ही बालासाहेब तथा मेरे बीच गुरु की आवश्यकता पर वादविवाद छिड़ गया। मेरा मत था कि स्वतंत्रता त्यागकर पराधीन क्यों होना तथा जब कर्म करना पड़ता है, तब गुरु की आवश्यकता ही कहाँ रही? प्रत्येक को पूर्ण प्रयत्न कर स्वयं को आगे बढ़ाना चाहिए। गुरु शिष्य के लिये करता ही क्या है ? वह तो सुख से निद्रा का आनंद लेता है। इस प्रकार मैंने स्वतंत्रता का पक्ष लिया और बालासाहेब ने प्रारब्ध का। उन्होंने कहा कि जो विधि-लिखित है, वह घटित हो कर रहेगा, इसमें उच्च कोटि के महापुरुष भी असफल हो गए हैं। कहावत है - 'मेरे मन कछु और है, विधाता के कछु और ।' फिर परामर्शयुक्त शब्दों में बोले, 'भाई साहेब, यह निरी विद्वत्ता छोड़ दो। यह अहंकार तुम्हारी कुछ भी सहायता न कर सकेगा।' इस प्रकार दोनों पक्षों के खंडन-मंडन में लगभग एक घंटा व्यतीत हो गया और सदैव की भाँति कोई निष्कर्ष न निकल सका । इसलिये तंग और विवश होकर विवाद स्थगित करना पड़ा। इसका परिणाम यह हुआ कि मेरी मानसिक शांति भंग हो गई तथा मुझे अनुभव हुआ कि जब तक घोर दैहिक बुद्धि और अहंकार न हो, तब तक विवाद संभव नहीं। वस्तुतः यह अहंकार ही विवाद की जड़ है।

जब अन्य लोगों के साथ मैं मस्जिद गया, तब बाबा ने काकासाहेब को संबोधित कर प्रश्न किया कि साठेवाड़ा में क्या चल रहा था ? किस विषय में विवाद था ? फिर मेरी ओर दृष्टिपात कर बोले कि इन 'हेमाडपन्त' ने क्या कहा। ये शब्द सुनकर मुझे अधिक अचम्भा हुआ। साठेवाड़ा और मस्जिद में पर्याप्त अन्तर था। सर्वज्ञ या अन्तर्यामी हुए बिना बाबा को विवाद का ज्ञान कैसे हो सकता था? 

मै सोचने लगा कि बाबा 'हेमाडपंत' के नाम से मुझे क्यों सम्बोधित करते हैं ? यह शब्द तो 'हेमाद्रिपंत' का अपभ्रंश है। 'हेमाद्रिपंत' देवगिरी के यादव राजवंशी महाराजा महादेव और रामदेव के विख्शात मंत्री थे। वे उच्च कोटि के विद्वान्, उत्तम प्रकृति और 'चतुर्वर्ग चिंतामणि' (जिसमें आध्यात्मिक विषयों का विवेचन है) और 'राजप्रशस्ति' जैसे उत्तम काव्यों के रचयिता थे। उन्होंने ही हिसाब-किताब रखने की नवीन प्रणाली का आविष्कार किया था और बहीखाते की पद्धति को जन्म दिया था, और कहाँ मैं इसके विपरीत एक अज्ञानी, मूर्ख और मंदमति हूँ। अतः मेरी समझ में यह न आ सका कि मुझे इस विशेष उपाधि से विभूषित करने का क्या तात्पर्य है ? गहन विचार करने पर मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि कहीं मेरे अहंकार को चूर्ण करने के लिये ही तो बाबा ने इस अस्त्र का प्रयोग नहीं किया है, ताकि मैं भविष्य में सदैव के लिए निरभिमानी एवं विनम्र हो जाऊँ, अथवा कहीं यह मेरे वाक्चातुर्य के उपलक्ष में मेरी प्रशंसा तो नहीं है?

भविष्य पर दृष्टिपात करने से प्रतीत होता है कि बाबा के द्वारा ‘हेमाडपंत' की उपाधि से विभूषित करना कितना अर्थपूर्ण और भविष्यगोचर था। सर्वविदित है कि कालान्तर में दाभोलकर ने श्री साईबाबा संस्थान का प्रबन्ध कितने सुचारु एवं विद्वत्तापूर्ण ढंग से किया था। हिसाब-किताब आदि 

कितने उत्तम प्रकार से रखे तथा साथ ही साथ महाकाव्य 'साई सच्चरित्र' की रचना भी की। इस ग्रन्थ में महत्वपूर्ण और आध्यत्मिक विषयों जैसे ज्ञान, भक्ति, वैराग्य, शरणागति व आत्मनिवेदन आदि का समावेश है।

गुरु की आवश्यकता
इस विषय में बाबा ने क्या उद्गार प्रकट किये, इस पर हेमाडपंत द्वारा लिखित कोई लेख या स्मृतिपत्र प्राप्त नहीं है। परन्तु काकासाहेब दीक्षित ने इस विषय पर उनके लेख प्रकाशित किये हैं। बाबा से भेंट करने के दूसरे दिन 'हेमाडपंत' और काकासाहेब ने मस्जिद में जाकर घर लौटने की अनुमति माँगी। बाबा ने स्वीकृति दे दी।
किसी ने प्रश्न किया– 'बाबा कहाँ जाएँ।'
उत्तर मिला– 'उपर जाओ।'
प्रश्न– ‘मार्ग कैसा है?'
 बाबा– अनेक पंथ है। यहाँ से भी एक मार्ग है । परन्तु यह मार्ग दुर्गम है तथा सिंह और भेड़िये भी मिलते है।
काकासाहेब– यदि पथ प्रदर्शक भी साथ हो तो ?
बाबा– तब कोई कष्ट न होगा। पथ-प्रदर्शक तुम्हारी सिंह, भेड़िये और खन्दकों से रक्षा कर तुम्हें सीधे निर्दिष्ट स्थान पर पहुँचा देगा। परन्तु उसके अभाव में जंगल में मार्ग भूलने या गड्ढे में गिर जाने की संभावना है। दाभोलकर भी उपर्युक्त प्रसंग के अवसर पर वहाँ उपस्थित थे। उन्होंने सोचा कि जो कुछ बाबा कह रहे हैं, वह 'गुरु की आवश्यकता क्यों है ?' इस प्रश्न का उत्तर है (साईलीला भाग १, संख्या ५ व पृष्ठ ४७ के अनुसार)। उन्होंने सदा के लिये मन में यह गाँठ बाँध ली कि अब कभी इस विषय पर वादविवाद नही करेंगे कि स्वतंत्र या परतंत्र व्यक्ति आध्यात्मिक विषयों के लिये कैसा सिद्ध होगा? प्रत्युत्त् इसके विपरीत यथार्थ में परमार्थ-लाभ केवल गुरु के उपदेश-पालन में ही निहित है। इन उपदेशों का वर्णन मूल काव्य-ग्रंथ के इसी हुए भी आत्मानुभूति के लिये राम को अपने गुरु वसिष्ठ और कृष्ण को अपने गुरु संदीपनि की शरण में जाना पड़ा था। इस मार्ग में उन्नति प्राप्त करने के लिये केवल श्रद्धा और धैर्य — ये ही दो गुण सहायक हैं।