**अंधेरी राहें** – एक ग्रामीण जीवन की मार्मिक कथा
गांव के पश्चिमी छोर पर बसा **सुखीपुर** नाम का एक छोटा-सा गांव था। खेतों की हरियाली, आम के बाग, तालाब के किनारे खेलते बच्चे और शाम को चौपाल पर जमा होते किसान – यह सब मिलकर इसे एक आदर्श ग्राम बनाते थे। लेकिन हर गांव की तरह, सुखीपुर के भीतर भी कई ऐसी कहानियां दबी हुई थीं, जिन पर कोई खुलकर बात नहीं करता था। यह कहानी है एक ऐसे अंधेरे की, जिसे सबने अनदेखा किया, और एक ऐसे सत्य की, जिसे उजागर करने का साहस किसी में नहीं था।
सुखीपुर का समाज चार वर्गों में बंटा हुआ था – जमींदार, ब्राह्मण, पिछड़ी जातियां, और दलित। भले ही सभी एक ही गांव में रहते थे, लेकिन ऊंच-नीच की दीवारें अटूट थीं।
गांव का सबसे प्रभावशाली व्यक्ति था **ठाकुर भवानीसिंह**, जो इलाके के सबसे बड़े ज़मींदार थे। उनका घर किसी महल से कम नहीं था। उनके खेतों में सैकड़ों किसान काम करते, लेकिन मजाल थी कि कोई उनसे निगाह मिलाकर बात कर सके।
गांव में एक और व्यक्ति था, जिसे सब सम्मान से "मास्टरजी" कहते थे। **रामनिवास मास्टर** गांव के स्कूल में शिक्षक थे और शिक्षा के माध्यम से समाज में परिवर्तन लाना चाहते थे। वह हमेशा कहते –
**"अगर समाज में परिवर्तन लाना है, तो शिक्षा को घर-घर तक पहुंचाना होगा।"**
लेकिन शिक्षा से अधिक किसी और चीज़ का वर्चस्व था, तो वह था **भय**। ठाकुर भवानीसिंह का भय।
गांव के किनारे बसे दलितों के टोले में रहने वाला **मंगलू** मेहनती और ईमानदार व्यक्ति था। वह खेतों में मजदूरी करता, लेकिन उसे पूरा मेहनताना कभी नहीं मिलता।
एक दिन, मंगलू अपनी पत्नी **गोमती** और बेटे **शिवा** के साथ बैठा बात कर रहा था।
**गोमती (दुखी होकर):** "हमारे बेटे की उम्र पढ़ने की हो गई है। मैं चाहती हूं कि उसे मास्टरजी के स्कूल में भेजें।"
**मंगलू (संकोच में):** "जानती हो, ठाकुर साहब इस बात को पसंद नहीं करेंगे। हमारे टोले के किसी बच्चे ने स्कूल जाने की हिम्मत नहीं की है।"
लेकिन गोमती का दिल नहीं माना। अगले ही दिन, वह शिवा को स्कूल ले गई। मास्टरजी ने खुशी-खुशी शिवा को पढ़ाना शुरू कर दिया।
लेकिन यह बात ज्यादा दिनों तक छिपी न रह सकी।
एक दिन ठाकुर भवानीसिंह के दरबार में गांव के कुछ लोग पहुंचे।
**पंडित गिरीश (क्रोध में):** "मालिक, सुना है कि उस दलित मंगलू का बेटा स्कूल जा रहा है!"
ठाकुर भवानीसिंह की मूंछें ताव खा गईं।
**ठाकुर (गर्जना करते हुए):** "इस गांव में हर किसी की औकात तय है। अगर किसी ने अपनी हद पार की, तो उसे ऐसा सबक सिखाएंगे कि उसकी सात पुश्तें याद रखेंगी!"
ठाकुर ने तुरंत अपने आदमियों को बुलाया और आदेश दिया –
*"उस मंगलू को पकड़कर लाओ!"*
मंगलू को ठाकुर के दरबार में लाया गया।
**ठाकुर (गुस्से में):** "तूने इतनी हिम्मत कैसे की कि अपने बेटे को स्कूल भेजा?"
मंगलू कांपते हुए बोला – **"मालिक, मेरा लड़का पढ़-लिखकर कुछ बनना चाहता है। इसमें क्या बुरा है?"**
ठाकुर ने ज़ोर का तमाचा मारा और कहा –
*"तुम्हारी जाति के लोग केवल खेतों में काम करने के लिए बने हैं। शिक्षा तुम्हारे लिए नहीं है!"*
फिर, मंगलू को बेरहमी से पीटा गया। गोमती और शिवा चीखते रहे, लेकिन किसी ने मदद नहीं की।
इस घटना के बाद, पूरे गांव में भय फैल गया। मास्टरजी भी बहुत दुखी हुए, लेकिन वह जानते थे कि अकेले वह कुछ नहीं कर सकते।
पर अत्याचारों से क्रांति की चिंगारी जल उठी।
मंगलू की हालत खराब थी, लेकिन उसका आत्मविश्वास अडिग था। उसने ठान लिया कि वह शिक्षा के अधिकार के लिए लड़ेगा।
मास्टरजी ने भी इस अन्याय को सहन न करने की प्रतिज्ञा की। वह चुपचाप शहर गए और कुछ समाज सुधारकों से मिले। उन्होंने सरकार से मदद की गुहार लगाई।
कुछ ही दिनों में, शहर से एक बड़ा सरकारी अफसर **अशोक वर्मा** गांव पहुंचा। उन्होंने गांव वालों से बात की, रिपोर्ट बनाई और सरकार को भेजी।
धीरे-धीरे, सरकार ने इस मामले में हस्तक्षेप किया।
अचानक, एक दिन, गांव में सरकारी अफसरों और पुलिस का काफिला पहुंचा।
ठाकुर भवानीसिंह को गिरफ्तार कर लिया गया। उनका ज़मींदारी शासन समाप्त हो गया।
इसके बाद, सरकार ने गांव में एक नया स्कूल बनवाने की घोषणा की, जहां हर जाति और वर्ग के बच्चे पढ़ सकते थे।
मंगलू का बेटा शिवा अब बिना डर के स्कूल जाता था। वह आगे चलकर गांव का पहला दलित शिक्षक बना।
सालों बाद, जब मंगलू बूढ़ा हो गया, तो उसने देखा कि उसका बेटा गांव के बच्चों को शिक्षा दे रहा है।
उसकी आंखों में आंसू थे – **"आज मेरा सपना पूरा हो गया!"**
मास्टरजी ने मुस्कुराते हुए कहा – **"जब एक आदमी अन्याय के खिलाफ खड़ा होता है, तो बदलाव की शुरुआत होती है।"**
गांव अब पहले जैसा नहीं रहा। अंधेरा छंट चुका था, और नई रोशनी ने जन्म ले लिया था।
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### **समाप्त**