**साली** गांव के पश्चिमी छोर पर बसा चौधरी परिवार वहां का सबसे प्रतिष्ठित और समृद्ध परिवार था। चौधरी रामनाथ अपनी ईमानदारी, कर्तव्यपरायणता और दयालुता के लिए जाने जाते थे। उनकी प्रतिष्ठा गांव भर में थी, क्योंकि वे हर गरीब की मदद करते, किसानों के संकट में साथ खड़े होते और गांव के पंचायत में न्याय के लिए जाने जाते।
चौधरी के तीन संतानें थीं – बड़ा बेटा रघुवीर, जो पिता की तरह ही किसान था, दूसरा बेटा हरगोबिंद, जो शिक्षा में रुचि रखता था, और उनकी सबसे प्यारी बेटी सुधा, जो सुंदरता और गुणों की मिसाल थी।
सुधा का विवाह पास के गांव के एक सम्मानित शिक्षक शिवप्रसाद से हुआ था। शिवप्रसाद विद्वान व्यक्ति थे, जो गांव के बच्चों को पढ़ाकर उनके भविष्य को संवारने में लगे रहते। सुधा उनके साथ बहुत सुखी थी।
लेकिन इस कहानी की नायिका सुधा नहीं, बल्कि उसकी छोटी बहन समान साली – रुक्मिणी थी।
रुक्मिणी गांव में अपने चुलबुले स्वभाव और सेवा-भाव के लिए प्रसिद्ध थी। वह हर किसी के काम में हाथ बंटाने को तैयार रहती। उसकी आंखों में शरारत थी, हृदय में संवेदनशीलता, और स्वभाव में मृदुलता।
वह अक्सर अपनी बहन के घर जाती और वहां जीजाजी के साथ हंसी-मजाक किया करती। शिवप्रसाद भी उसे अपनी छोटी बहन की तरह मानते थे।
लेकिन रुक्मिणी के मन में एक कोमल भावना थी जिसे वह किसी से कह नहीं पाती थी – वह अपने जीजाजी के प्रति एक अनकही आत्मीयता अनुभव करती थी। यह प्रेम नहीं था, यह एक अबूझ आकर्षण था, जिसे वह समझने में असमर्थ थी।
समय बीता, सुधा ने दो सुंदर बेटियों को जन्म दिया – कमला और राधा। दोनों बेटियां अपने माता-पिता की आंखों का तारा थीं। लेकिन अचानक एक दिन, जब सब कुछ ठीक चल रहा था, सुधा गंभीर रूप से बीमार पड़ गई।
गांव के वैद्य ने कई औषधियां दीं, लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ। धीरे-धीरे सुधा की हालत बिगड़ती गई। घर में सबके चेहरे उतरे हुए थे। शिवप्रसाद दिन-रात उसकी सेवा में लगे रहते, लेकिन विधि को कुछ और ही स्वीकार्य था।
एक दिन सुधा चिरनिद्रा में सो गई।
शिवप्रसाद पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा। उनकी दोनों बेटियां रो-रोकर बेहाल थीं। घर में स्त्री-संघ का अभाव था।
इसी बीच, चौधरी रामनाथ ने प्रस्ताव रखा, **"रुक्मिणी, अब तेरा कर्तव्य है कि अपनी बहन की जगह इस घर को संभाले।"**
रुक्मिणी अवाक् रह गई।
गांव में चर्चा होने लगी –
*"अब क्या होगा?"*
*"क्या रुक्मिणी को ही इस घर की जिम्मेदारी संभालनी चाहिए?"*
*"जीजाजी से बहन की शादी कर देना उचित होगा, आखिर बच्चे छोटे हैं।"*
शिवप्रसाद इस विचार से अत्यंत व्यथित थे। उन्हें यह उचित नहीं लगता था। वह रुक्मिणी को एक छोटी बहन की तरह देखते थे। लेकिन समाज और परिवार के दबाव में उन्होंने मौन धारण कर लिया।
रुक्मिणी भी द्वंद्व में थी। वह जानती थी कि यह विवाह केवल समाज की सुविधा के लिए हो रहा था। उसमें प्रेम नहीं था, उसमें वह स्नेह नहीं था जो एक दांपत्य जीवन में होना चाहिए।
वह रात-रात भर जागकर सोचती – **"क्या यही मेरे जीवन का उद्देश्य है?"**
लेकिन जब वह छोटी कमला और राधा को देखती, तो उसका हृदय पिघल जाता।
एक रात, जब घर के सभी लोग सो रहे थे, रुक्मिणी आंगन में बैठी थी। अचानक, कमला और राधा उसके पास आकर लिपट गईं।
*"बुआ, तुम हमारे साथ रहोगी ना?"*
उनकी भोली आंखों में आशा थी। रुक्मिणी का हृदय कांप गया। उसने खुद को शांत किया और सोच लिया कि अब वह कोई अन्य विकल्प नहीं खोजेगी।
अगले दिन उसने निर्णय लिया। वह शिवप्रसाद से मिली –
**"जीजाजी, मैं इस घर को संभालूंगी, पर विवाह नहीं करूंगी।"**
शिवप्रसाद ने चकित होकर पूछा, **"पर रुक्मिणी, समाज इसे स्वीकारेगा नहीं।"**
रुक्मिणी मुस्कुराई, **"समाज की चिंता मैंने छोड़ दी है। मैं तुम्हारी धर्मपत्नी नहीं बन सकती, लेकिन तुम्हारे बच्चों की मां जरूर बन सकती हूं।"**
गांव में यह सुनकर हलचल मच गई। कई लोगों ने इसे अस्वीकार किया, लेकिन धीरे-धीरे सबने इसे स्वीकार कर लिया।
रुक्मिणी ने न केवल कमला और राधा की मां की भूमिका निभाई, बल्कि पूरे घर को संवार दिया। उसने अपने लिए कोई विशेषाधिकार नहीं मांगा, कोई मांग नहीं रखी। वह सच्चे अर्थों में एक निस्वार्थ महिला थी।
समय बीता, दोनों बेटियां बड़ी हुईं। जब उनकी शादी हुई, तब जाकर रुक्मिणी ने चैन की सांस ली।
एक दिन शिवप्रसाद ने पूछा, **"रुक्मिणी, क्या तुम कभी पछताती नहीं?"**
रुक्मिणी ने शांत स्वर में उत्तर दिया, **"नहीं जीजाजी, जीवन में कुछ निर्णय सुख के लिए नहीं, कर्तव्य के लिए लिए जाते हैं।"**
और वह मुस्कुरा दी।