Rishte Ka Bandh - Part -8 in Hindi Love Stories by sonal johari books and stories PDF | रिश्ते का बांध - भाग 8

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रिश्ते का बांध - भाग 8

"आहह" दर्द से कराहते माधव के मुंह से निकला। और अगले ही पल दरवाजा खुल गया। सामने सबसे आगे रमा ही खड़ी थी।
"क्या हुआ....ये ...ये चोट " हथेली से बहते खून को देखते हुए रमा घबराकर बोली
...हुम्म ये चोट क्या देख रही हो रमा..ये तो मामूली है..ठीक हो जाएगी...लेकिन जो चोट तुमने मेरे मन पर दी है..वो कभी ठीक नहीं होगी..कभी ठीक नहीं होगी..उसे गौर से देखते हुए माधव मन ही मन बोला
"माधव जी...जल्दी चलिए डॉक्टर को दिखा देता हूँ"
कहते हुए गौतम ने माधव के हाथ को पकड़ा ही था...कि माधव ने ये कहते हुए "जरूरत नहीं मामूली सी चोट है " गौतम का हाथ झटक दिया। और कमरे की तरफ चला गया। रमा माथे पर सिलवटे डाले हतप्रत सी उसे जाते हुए देखती रही...
वंशी भी जल्दी से एक एंटीसेप्टिक की शीशी उठाकर माधव के पीछे भागा।
"मार डालूँगा कमीने को...नहीं छोड़ूंगा...स्साला...हिम्मत कैसे हुई" गुस्से में तमतमाते हुआ माधव अपने बेड पर बैठकर बड़बड़ा रहा था वंशी और रमा को देखा तो चुप होकर हाँफने लगा।
"हाथ बढाईये.." रमा पास आकर बड़ी दृढ़ता से बोली.. ..उसकी आवाज सुनकर माधव उसकी ओर गुस्से से देखने लगा..".वंशी भईया" माधव की ऐसी नजरों से असहज रमा धीमे से बोली, तो वंशी ने आगे बढ़कर माधव का हाथ पकड़कर रमा के सामने कर दिया...और वो रुई से हाथ से बहता खून पोंछने लगी...
कसम से रमा..अगर मजबूर ना होता...तो गुस्सा तो इतना आ रहा है...कि दो तमाचे जड़ देता अभी...
"इश्श..क्या बहुत दर्द हो रहा है" रमा ऐसे बोली जैसे खुद को चोट लगी है
"बहुत...बहुत ही ज्यादा...तुम समझ भी नहीं पाओगी...इतना"
माधव वैसे ही उसे घूरते हुए गुस्से में बोला और अपना हाथ बापस खींच लिया
"लाइये ...मैं धीरे से दवा लगा देतीं हूँ..."
"नहीं लगवानी कोई दवा -वबा...अकेला छोड़ दो मुझे"
माधव मुंह फेर कर बोला...तो वंशी ने रमा को इशारे से जाने को बोल दिया...और खुद जबर्दस्ती हाथ पर दवा लगाने लगा।
हमेशा बोलने वाले वंशी को जब चुपचाप देखा तो माधव ने पूँछ लिया "क्या बात है.... तुम कुछ नहीं पूँछ रहे हो"
"पूँछने से तुम कौन सा बता दोगे...वैसे भी... इतना तो जानता हूँ कि चोट से नहीं तुम्हें किसी और बात से ज्यादा तकलीफ हो रही है " वंशी पट्टी बाँधता हुआ बोला
"कैसे? " माधब ने आश्चर्य से पूँछा
"जिसे इतनी चोट लगी हो वो वो या तो रोयेगा या दर्द से कराहेगा ..लेकिन तुम.. ..बस्स गुस्से में हांफ रहे हो.." वंशी ने जवाब दिया तो माधव उसे प्रभावित होकर देखता रहा...
"सच में वंशी ...तुमसे ज्यादा मुझे कोई नहीं समझ सकता है"
"ठीक है ..ठीक है...चाय बना कर दे जाता हूँ...फिर डॉ के पास चला जाऊँगा दवा लेता आऊँगा...तुम तो जाओगे नहीं " वंशी खीजता हुआ बोला और कमरे से निकल ही रहा था...कि रमा हाथ में चाय का कप लिए हाजिर हो गयी...माधव ने उसे देख कर मुँह फेर लिया
सकुचाई रमा ने कप सामने रखा और चली गयी
"वंशी ...ये चाय फेंक दो...और अपने हाथों की चाय बना कर लाओ" रमा के निकळते ही माधव गुस्से में बोला
"ऐं..?." वंशी ने चौंकते हुए प्रतिक्रिया दी
"सुना नहीं...? "
"अरे कहो ना ...क्यों नाराज हो इतने?" वंशी ने अधीर होकर पूँछा
...क्या सही होगा वंशी को बताना...काश तुम्हे बता पाता वंशी को.....जैसे मुझे गुस्सा आ रहा है इसे भी आएगा ..वंशी कितनी इज़्ज़त करता है रमा की...वो तो दरार से झाँक कर देख लिया...ना देखा होता तब? ...बहुत निजी बात है...नहीं ..नहीं..चाहें जो हो मैं रमा की बेइज़्ज़ती तो नहीं कर सकता।
"देखो ...बोलोगे ही नहीं..ना बोलो...मैं जाकर दवा ले आता हूँ...अच्छा पहले चाय दे जाता हूँ"
वंशी नीचे आकर चाय बनाने लगा...
"क्या हुआ चाय अच्छी नहीं बनी थी ..या पियी ही नहीं"
रमा ने बंशी को चाय बनाते देख पूँछा
"अरे नहीं बीबी जी..वो तो मेरा हाथ ही लग गया तो फैल गयी..सोचा खुद ही बना कर ले जाऊँ.." वंशी ने झूठ बोल दिया
"क्या हुआ है इन्हें" रमा ने वंशी से पूँछा
"देख तो रही हो बीबी जी..चोट लग गयी है"
"मैं चोट की बात नहीं कर रही ...कोई तो बात है...जो इतने नाराज रहते हैं...आपको ना पता हो ऐसा कैसे हो सकता है ?"
"बहुत बार पूँछ चुका हूँ बीबी जी...बताते ही नहीं...और खुद की जो मर्ज़ी हो सो करवा लेतें हैं...अभी जब पिछली साल बड़े मालिक जिंदा थे ...कितना मना किया मैंने, कि मन नहीं पढ़ने का तब मुझसे ऐसे ही नाराज रहते थे... थक-हार कर मैंने ही हांमी भरी...और मेरे सिर पड़कर इन्होंने मुझे हाईस्कूल करा ही दिया ...जैसे तैसे थर्ड डिवीजन बनी..फिर तो मैंने हाथ ही खड़े कर दिये...कि अगर पढ़वाया या पढ़ाने की जिद की तो मैं भाग जाऊंगा...तब जाकर माने...फिर जब बड़े मालिक के जाने के बाद इनकी तबियत बहुत खराब हुई तो मैंने मनौती मांगी थी..कि भईया के ठीक होते ही शिव जी की कांवड़ ले जाऊँगा....अब तक नहीं जा पाया...भईया मुझे शहर के बाहर कहीं जाने ही नहीं देते .. कहते हैं तुम चले गए वंशी तो कैसे रहूँगा.." वंशी हँस कर बोला तो रमा चिढ़ कर बोली
"हे भगवान ..कितनी सारी बातें बना दी...लेकिन जो पूछा उसका जवाब नहीं दिया" रमा अपने सिर पर ऐसे हाथ रखते हुए बोली जैसे वंशी की बात सुनते-सुनते थक गई हो।
"कौन सी बात ... बीबी जी"
"अरे रहने दो ...कोई बात नहीं करनी मुझे" पैर पटकती रमा रसोई से बाहर चली गयी।
"जो देखो ..मुझ पर ही चिल्लाता है...आज तो पूंछ कर ही रहूँगा" कप में चाय पलटकर वंशी माधव के सामने पहुँचा
"ये बताओ...मैं हूँ कौन..? मेरा इस दुनिया में आने का कोई महत्व नहीं क्या?" चाय का कप मेज पट पटकते हुए वंशी खीजते हुए बोला
"क्या हुआ?" माधव ने आश्चर्य से पूँछा
"पहले बताओ मैं इस दुनिया में हूँ ही क्यों?" कमर पर एक हाथ रखे वंशी घूरने लगा माधव को
"तुम्हारे अस्तित्व से ही तो मेरा अस्तित्व है वंशी....जब भगवान ने मुझसे मेरी माँ और पिता दोंनो को छीन लिया उसके उन्हें बाद मेरी हालत पर तरस आ गया। उन्होंने सोचा ये लड़का जियेगा कैसे? तब तुम्हारे रूप में मेरी माँ और पिता और सबसे बढ़कर एक प्यारे से दोस्त सबको भेज दिया..अब तुम्हीं मेरी माँ हो, पिता हो और दोस्त भी हो...समझें?" माधब ने जैसे ही अपनी बात खत्म की भावुक होकर वंशी जमीन पर बैठ गया।
"तब वो सारे दिन मुझ पर हुक्म कैसे चला सकती हैं..?"
"कौन चलाता है तुम पर हुकम..नाम बताओ"
"वो मुझे इस घर का नौकर समझतीं हैं...हर वक़्त चिल्लाती रहती हैं"
"क्याsss...इस घर में तो क्या..सारी दुनिया में इतना हक़ किसी को नहीं...जो वंशी से ऊँची आवाज में बात भी कर सके सिवाय माधव के...हुकुम चलाने का तो सवाल ही नहीं उठता...नाम नहीं बता रहे हो...(फिर धीरे से ) इसका मतलब ...रमा...उसकी इतनी मजाल जो तुमसे कुछ कहे...अभी देखता हूँ"....माधब गुस्से में हाथों की मुठ्ठियां कसे जैसे ही कमरे से निकला वंशी ने उसका हाथ पकड़ लिया
"क्या भईया । मेरी खातिर बीबी जी तक को को डाँटने चल दिए ...इसीलिए तो इतना मानता हूँ तुम्हें, इतना प्रेम और मान कहाँ मिलेगा मुझे ..वैसे बीबी जी ने कुछ नहीं कहा मुझसे."
"तो...? बुआ जी ने ...हें ..."माधव ने पूँछा लेकिन वंशी चुप रहा
"अरे बोलो ...कुछ पूंछ रहा हूँ..." माधव गुस्से में ही था लेकिन वंशी जवाब ना देकर मुस्कुराने लगा
"मेरे हाथों आज ही मरोगे क्या तुम?...कब से पूँछ रहा हूँ...लेकिन तुम हो कि इधर-उधर की बातें किये जा रहे हो जो पूँछा उसका जवाब नहीं दे रहे
"वाह। भईया... मन तो मन ...बातें भी एक जैसी ही करने लगे हो
"हें...?"
"हां पता है...तुम्हारे बदले व्यवहार के बारे में पूँछ रही थी बीबी जी...मैं जवाब नहीं दे पाया तो रूठ गयीं...बिल्कुल यही बात बोली थी उन्होंने भी ...उन्हें बहुत चिंता है तुम्हारी"
वंशी खुश होकर बोला..तो माधव 'धम्म' से कुर्सी पर बैठ गया और सिर पकड़कर बुदबुदाने लगा
'हुम्म...मेरी चिंता होती तो उस कमीने का फूल स्वीकार करती क्या? वो तो बल्कि खुश ही है...वंशी तुम बहुत भोले हो ....तुम्हारी बीबी जी को मेरी नहीं ...उस चश्मिश गौतम की चिंता होगी'
"अच्छा...दवा ले आता हूँ तुम्हारे लिए"
माधव को चुप देखकर वंशी बोला...जिस बात को बताने वो गुस्से में आया था माधव के प्रेम को देखकर भूल गया।
**
माधव अपनी लाइब्रेरी में बैठा चुपचाप शून्य में देख रहा था
कितना निश्छल प्रेम किया तुमसे मैने रमा...और तुम ....हुम्म तुम्हें पसंद आया तो वो गौतम....
तभी कुछ किताबें उसके सामने रखते हुए गौतम बैठ गया।
"यहाँ अकेले चुपचाप क्यों बैठे हो..."गौतम ने पूँछा
माधव का चेहरा उसे देखते ही तन गया.अगर रमा ने तेरा फूल स्वीकार ना किया होता तो तुझे बताता...जरूर बताता..वो बेचारी भोली भाली..और ये ....उफ्फ कुछ कह भी नही सकता..क्या मजबूरी है '
"रमा की पढ़ाई कैसी चल रही है?" माधव ने तीर सी चुभती नजर के साथ पूँछा
"अच्छी..वो बेहद होशियार हैं" गौतम शरमाता सा बोला
और उसे शरमाते देख माधव कुढ़ गया' अगर मजबूर ना होता तो मार डालता तुझे ..सोचते हुए माधव ने एक घूँसा मेज पर दे मारा
"क्या हुआ" गौतम ने चौंक कर पूँछा
"कुछ नहीं...गुस्सा आ रहा है किसी पर "
"किस पर"
"यूँ ही...खुद पर ही"
"खुद पर? " गौतम हँसा..और उसे हँसते देख माधव का खून और जल गया वो उठ कर वहाँ से चला गया।
***
कॉलेज से घर की ओर आते हुए माधव की नजर एक चश्मे की दुकान पर पड़ी तो कदम उसी ओर मुड़ गए
"कहिए जनाव कैसा चश्मा दिखाऊँ" दुकानदार ने जबर्दस्ती मुस्कुराते हुए पूँछा
"चश्मा..." कुछ भी ना समझ पाने की स्थिति में माधव बोला
"हाँ जनाब चश्मे की दुकान पर तो चश्मा ही मिलेगा ना" दुकानदार दोनो हाथ अपनी मेज़ पर टिकाते हुए बोला
माधव को गौतम का चश्मा याद हो आया।
"एक काले मोटे फ्रेम का चश्मा चाहिए"
"अच्छा...बस्स फ्रेम ही या... "
"बस्स सादा चश्मा ही चाहिए" माधव कहीं खोया सा बोला
",ये लीजिये...लगा कर देखिए तो" दुकानदार एक चश्मा माधव को पकड़ाते हुए बोला
"कैसा लग रहा है" माधव ने चश्मा लगाकर पूँछा
"भई बहुत बढ़िया..."
माधव ने उसे पैसे दिये और घर आ गया।
**
तुम्हारा दोष नहीं रमा...मैंने कभी जानने की कोशिश ही नहीं की ...कि तुम्हे क्या पसंद है ...ये वंशी भी ना बस्स मेरी पसंद ही बताता रहा तुम्हें....खैर उसका भी क्या दोष। जानना तो मुझे चाहिए था। सोचते सोचते माधव ने घर का दरवाजा खटखटा दिया। तुम्हें काले फ्रेम का चश्मा पसन्द है ना.......दरवाजे की दरार से झाँक कर देखा तो रमा ही किसी कपड़े से हाथ पोंछती हुई दरवाजे की ओर चलती आ रही थी...माधव के चेहरे पर उसे देखकर मुस्कान खिल गयी।
जैसे ही दरवाजा खुला ...वो बुदबुदाया 'नहीं माधव ये शायद सही नहीं' और विजली की फुर्ती से माधव ने चश्मा उतारा और अपनी पेंट की जेब में छिपा लिया
"आ गए..." रमा हल्की सी मुस्कान से बोली
"हम्म..." एक गहरी नजर से रमा को देखते हुए माधव सीढियां चढ़ने लगा ...मुश्किल से दस मिनट बीते होंगे और जैसे कि तय था रमा चाय के साथ हाज़िर हो गयी....
"आप जानते हैं ..आज मेरी पहली तनख्वाह मिली" वो झेंपती सी कप रखते हुए बोली
"क्या...मतलब सैलेरी?" माधव ने खुश होकर पूँछा
"जी..." और उसने बड़ी फुर्ती से आगे बढ़कर माधव के पैर छू लिए
"अररर...य ये क्या.. "
"क्यों ...क्या हुआ?"
"तुमने उस दिन स्कूल में भी मेरे पैर छुए थे ...और आज.फिर .क्यों पाप में डाल रही हो...मैं इस लायक नहीं हूँ"
"मेरे नजरिये से तो देखिए ..."
"क्या है तुम्हारा नजरिया..जरा मैं भी तो सुनूं.? माधव का गुस्सा कम हो गया था।
"ये लीजिये ..." कहते हुए रमा ने एक पैकेट पकड़ा दिया
"ये क्या...
"देखिए तो..."
"शर्ट..?"
"पसन्द आयी?"
"तुम लायी हो...मेरे लिए..."माधव खुश होकर बोला
"आज ही गयी थी बंशी भईया के साथ..उनके लिए कुर्ता पायजामा लायी हूँ ..बुआ के लिए साड़ी और ये ...आपके लिए"
"बहुत सुंदर है ये रमा...और अपने लिए कुछ नहीं लायीं?"
"ये देखिए...सेंडिल लायीं हूँ अपने लिए...बताइये कैसे हैं ?" सेंडिल दिखाने के लिए उसने अपनी साड़ी टखने तक उचकायी...और माधव की नजर जैसे ही उसके पैरों पर पड़ी
मुस्कुराते हुए उसने मन में कहा कितने कोमल पैर हैं तुम्हारे रमा...कितने सुंदर हैं
"बताइये तो कैसे है मेरे सैंडिल?"
"बहुत सुंदर हैं..बेहद सुंदर." वो रमा के पैरों को देखता हुआ बोला
"अरे शर्ट तो पहन कर देखिए..."रमा ने कहा तो माधव ने अपने कुर्ते के ऊपर से ही शर्ट पहन ली...और जैसे ही पहनी
शर्ट की जेब से कुछ रुपये नीचे गिर गए।
"अरे ये क्या...इसमें रुपये रखे थे..." माधव ने रुपये उठाये और रमा को पकड़ा दिए
"ये आपके लिए ही हैं"
"मतलब ?" माधव ने चौंकते हुए पूँछा
"मतलब मैं समझाती हूँ.."सुशीला आ गईं थी वो आगे बोलीं
"रमा को लगता है..हम दो प्राणियों के आने से इस घर का खर्चा बढ़ गया है..इसीलिए तुम्हें ट्यूशन करनी पड़ी..ये सहयोग करना चाहती है तुम्हारा"
"रमा...किसने कहा तुमसे ये सब" माधव ने रमा से पूँछा
"इसमें कहने की क्या जरूरत है...जब लोग ज्यादा होंगें तो बोझ तो ज्यादा ही होगा ना...आप को ट्यूशन करनी पड़ी...ये तो आपका बड़प्पन है कि.."
"बस्स करो क्या कहे जा रही हो...तुम और बोझ? (फिर नजर सुशीला पर पड़ते ही) बुआ जी और तुम जब से इस घर मे आये हो ये घर ....अब घर लगता है..अपने कभी भी बोझ नहीं होते समझीं...और खबरदार जो ऐसा कभी कुछ सोचा तो
(पैसे पकड़ाते हुए) ये लो ...पकड़ों अपने पैसे..खुद पर खर्च करो...बुआ जी पर खर्च करो ...बस्स" माधव जब कहकर मुस्कुराया तो रमा भी मुस्कुरा दी।
"मैं ना कहती थी..वो नहीं लेगा पैसे ..पर नहीं..स्यानी बनेगी ..चल आजा नीचे"
सिर को पल्लू से ढ़कते हुए सुशीला नीचे चली आयीं।
"आपकी चाय ठंडी हो रही है..."रमा कमरे से निकलते हुए बोली...माधव ने देखा फूलों वाला एक नया सफेद कप रखा था जिस पर एक सुंदर सी नई प्लेट ढंकी थी
"ये तो नए लग रहे हैं" वो खुश होकर बोला
"नए ही हैं ..आप को चाय पीना बहुत पसंद है..इसलिए लायी" रमा ने जाते-जाते जवाब दिया।
माधव ने मुस्कुराते हुए चाय का घूँट भर लिया।
**
'मैं प्रेम करता हूँ तुमसे ..
'कान्हा सा निश्छल प्रेम...
.....खुद की लिखी हुई लाइने पढ़कर उसने आँखे बंद की
कि तभी..एक हल्की सी खटक हुई और उसने आँखे खोल दी
"कुछ पता चला " वंशी ने चाय का कप मेज पर रखते कहा कहा
"क्या..?."
"अरे नुमाइश लगी है...मैं क्या कहता हूँ...बहुत दिनों बाद थोड़े सामान्य लग रहे हो...चलो ना सब घूमने चलते हैं...बीबी जी भी जबसे आयीं हैं...कहीं गयीं ही नहीं"
" रमा को पसंद है क्या नुमाइश देखना?"
"अरे किसे पसंद नहीं होता...जरूर पसंद होगा"
"तुम भी निरे बुद्धू ही हो वंशी "माधव बनावटी ग़ुस्से में बोला
"क्यों भईया..."
"क्यों क्या...रमा को सब बता दिया कि मुझे क्या पसन्द है...लेकिन उसे क्या पसन्द है ...ये भी पता है तुम्हें ?"
वंशी ये सुनकर चुप हो गया
"अब ये डिब्बे जैसा मुंह क्या बनाये हो...जाओ पूँछ लो बुआ जी से... उनकी रजामंदी हो तो चलते हैं"
***
बुआ ने रजामंदी भी दे दी थी और साथ ही आयीं थी..एक खाली मैदान में नुमाइश लगी थी...एक ओर बड़ा झूला..छोटा झूला...बच्चों के खिलौने ...कप प्लेटो की दुकानें...कपड़ों की दुकानें...बर्तनों और चूडियों की लंबी कतारें ...तेज़ बजते हुए लाउडस्पीकरों का शोर और सर्कस..सुशीला एक दुकान पर रुककर शॉल देखने लगी।
"वंशी...पता करो ना तुम्हारी बीबी जी को क्या पसंद है"
माधव ने वंशी के कान में कहा और रमा को देख कर बुदबुदाया ' रमा, मेरे दिल पर एकमात्र राज चलता है तुम्हारा...खुद से दूर नहीं जाने दूँगा मैं तुम्हें...कतई नहीं"
"भईया ...उन्हें ...वो ऊँचा वाला झूला झूलना पसन्द है"
वंशी विजयी मुस्कान के साथ बोला
"अच्छा...." उसने डरते हुए झूले की ओर देखा
"वंशी...जा जरा रमा के साथ झूला झूल ले" सुशीला बोलीं
"नहीं..बुआ ..मैं किसी कीमत पर ये झूला नहीं झूल सकता..मुझे तो देखकर ही डर लगता है ...और भईया की तो हालत ही ...ऊँम.. ऊँम..बात पूरी करता इससे पहले ही माधव ने उसके मुंह पर कस कर हाथ रख दिया और बोला
"क्या कर रहे हो वंशी..क्यों डरा रहे हो बुआ और रमा को..."
"अच्छा...सुन रमा ...किसी के भी साथ बैठ जा ..झूले पर ही तो बैठना है जो बैठेगा सामने बैठेगा..." सुशीला, रमा से बोलीं
"अरे जा ना..." सुशीला उसे धक्का सा मारते हुए बोलीं
"पिछली बार ऐसे ही एक लड़की बैठ गयी थी...किसी अजनबी के साथ...उस अजनबी ने क्या किया ..लड़की के साथ झेड़कानी कर दी" रमा को अकेला जाते देख वंशी जल्दी से बोला तो बुआ ने अपना हाथ मुंह पर "हे राम" कहते हुए रख लिया। और रमा भी
"मैं नहीं जाऊँगी...कहते हुए बापस आ गयी।
"रहने दे फिर ...चल कुछ देख लेते हैं..नहीं तो घर चलो सब" सुशीला बोलीं। माधव ने घबराकर वंशी की ओर देखा
"अब की गई नुमाइश अगले साल ही आएगी...हमारे गांव में लोग कहते हैं लडकियों की छोटी- मोटी इच्छा पूरी कर देनी चाहिए।" वंशी फिर बोला । तो बुआ ठिठक कर रुक गयीं..." "एक काम करो माधव...तुम जाओ रमा के साथ झूला झूलने" और ये सुनकर माधव ने शाबाशी का हल्का सा धौल वंशी की पीठ पर जमा दिया।
"म मैं ...मैं कैसे जा सकता हूँ बुआ जी" माधव, सुशीला की ओर देखकर बोला
"अरे मैं ही कह रही हूँ ना...जाओ " मन ही मन हवाओं में उछलता माधव ऊपर से बेहद सहज बना झूले की ओर बढ़ गया।
**
उसी का लाया हुआ गुलाबी सूट पहने रमा..ठीक उसके सामने झूले पर बैठी थी।
सोचता हूँ उस कमीने गौतम का भी क्या दोष...तुम हो ही इतनी अच्छी ...और भोली भी तो कितनी हो..कि कोई भी तुम्हे अपनी बातों में उलझा ले...मैं बेकार ही तुमसे नाराज हुआ...
"बहुत दिनों बाद आपको मुस्कुराते हुए देखा...गुस्सा आप पर जरा भी अच्छा नहीं लगता" रमा मुस्कुराते हुए बोली

कितनी सुंदर लगती हो मुस्कुराती हुई तुम रमा...अगर बुआ के रिश्ते का ये बाँध हमारे बीच ना होता ...तो इसी वक्त तुमसे अपने प्रेम का इज़हार करता...इसी झूले पर..जमीन और आसमान के इन दो महातत्वो के बीचोंबीच...
"तुम्हें बेबजह कई बार डाँट दिया मैंने...माफी के लायक तो नहीं मेरी गलती...फिर भी हो सके तो माफ कर देना" माधव ने कहा तो रमा मुस्कुराते हुए बोली
"जाइये माफ किया " और खिलखिला कर हँस दी
उसे हँसते देख माधव मन ही मन बोला
गौतम तो क्या ...किसी को भी तुम्हें.नहीं ले जाने दूँगा रमा....किसी को भी नहीं...
**
"वाह भईया...जिंदगी देखते हो गयी मेरी...झूला झूलना तो दूर की बात है ...देख भी लो तो सिर घूमता है तुम्हारा...और आज जाकर सीधे बैठ ही गए" वंशी, माधव से धीरे से बोला

"और तुम्हें जरा भी अक्ल नहीं..बुआ के सामने ही कहने वाले थे...वो तो एन मौके पर मुँह बन्द किया मैंने तुम्हारा" माधव झूठी गुस्सा दिखता बोला

"आपको झूले पर बैठाकर गलती सुधार भी तो दी भईया..."
"हम्म..सो तो है...इनाम के हकदार हो तुम...ये लो पचास रुपये...कल पिक्चर देख आना" पीठ थपथपाते हुए माधव ने पचास का एक नोट वंशी को पकड़ा दिया।

***
कागज में लिपटी चूड़ियों के टुकड़े उसने चांदी के चूड़ीकेस में रखे और बड़े प्यार से उन्हें देखने लगा कि तभी
"माधव..." सुशीला जी आवाज आई...और माधव ने हड़बड़ा कर चूड़ीकेस अपने बेड के नीचे खिसका दिया।
"माधव एक जरुरी फ़र्ज़ निभाना है तुम्हें" वो बेड पर बैठते हुये बोलीं
"कहि...ए " माधव डरते हुए बोला
"तुम्हें रमा की शादी करनी पड़ेगी " सुशीला के ये कहते ही ...माधव भौचक सा अपना मुँह खोले उनकी ओर देखने लगा।......................क्रमशः.............