RISHTE KA BANDH in Hindi Love Stories by sonal johari books and stories PDF | रिश्ते का बांध - भाग 3

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रिश्ते का बांध - भाग 3

"बेटा, बस्स कहीं ठहराने के इंतजाम कर दो बड़ा एहसान होगा" सुशीला ये बोलते हुए दीवार की तरह रमा के आगे जाकर खड़ी हो गयी
"हाँ क्यों नहीं...लेकिन कहीं और क्यों? आप लोग इसी घर में रह जाइये" माधव मुस्कुराते हुए बोला
"यहाँ .? अगर भाई साहब होते तो और बात थी...लेकिन"
"जी, मेरे पिताजी ने ही कहा था कि वो आपकी मदद करेंगे, और हर बेटे का कर्तव्य है कि वो अपने पिता के बचे हुए कार्य पूरे करे..किसी तरह की चिंता मत कीजिये ..यहाँ आप लोगों को कोई दिक्कत नहीं होगी" माधव अपने हाथ घर की ओर फैलाते हुए बोला
"उन्होंने मुझे अपनी बहन माना था, इस नाते तो मैं तुम्हारी बुआ हुई" सुशीला मुस्कुराते हुए बोलीं
"जी जैसा आप कहें..आज से मैं और वंशी आप को बुआ ही कहेंगे"
"ठीक है...अब तुम इतना ही कहते हो तो रमा की नौकरी लग जाने तक हम यहीं रुक जाते हैं..वैसे भी हम किसी और को जानते भी नहीं"
"जी बहुत अच्छे, ...मैं अपना सामान ऊपर वाले कमरे में रख लेता हूँ...ताकि आप लोग इस कमरे में आराम से रह सकें...और हॉं वंशी.. जल्दी से खाने का प्रबंध करो" माधव ने वंशी को खाना तैयार करने को कहा और अपने कपड़े उठा कर ऊपर बने कमरे में ले जाने लगा।
"वंशी क्यों? रमा बना लेगी..." सुशीला भी खुश होकर बोलीं
"अररर आप लोग थक गए होंगे ना..वंशी बना लेगा खाना" माधव ने एक नजर रमा पर डालते हुए कहा
"उहम्म...काहे की थकान...ऐसी उम्र में भी कहीं थकान होती है...मेरी रमा के हाथ का खाना खाओगे तो उंगलियां भी खा जाओगे..समझे" कहकर सुशीला हाथ मुँह धोने लगीं, और जाहिर है ये सुनकर माधव की नजर रमा पर चली गयी जो माधव को ही देख रही थी, माधव के देखते ही रमा ने नजरें झुका लीं और माधव छत पर जाने वाली सीढ़िया चढ़ गया। और इन दोनों का यूँ एकदूसरे को देखना... सुशीला की अनुभवी आँखो ने एक बार फिर देख लिया।

***
"पिताजी, वो बुढ़िया रमा को ले भागी" दांत पीसते हुए भूरे ने जब ये खबर सुनाई..तो मातादीन ने हुक्का परे सरका दिया और तनावमुक्त चेहरे से भूरे को घूरते हुए चिल्लाए "क्या बकता है.."
"सच कहता हूँ पिताजी...पूरे गाँव का कोना कोना देख मारा...लेकिन उन दोनों का कुछ पता नहीं" निढ़ाल सा भूरे जमीन पर बैठ गया।
"क्यों हलकान हो रहा है..यहीं कहीं ले गयी होगी बुढ़िया रमा को मंदिर वन्दिर पूजा पाठ कराने... इतने बड़े घर मे व्याह जो तय हुआ है...कोई रिश्तेदार तो है नहीं भिखमंगों का...कहाँ जाएंगे भला " मातादीन ने फिर हुक़्क़ा गुड़गुड़ाया
" रिश्तेदार तो है उनका...नहीं तो काकी मुझसे खाली चिट्ठी मांगकर क्यों ले जाती?" कांता ( मातादीन की पत्नी) खाने की थाली मातादीन के आगे रखते हुए बोली
"क्या...खाली चिठ्ठी ...कब ?" मातादीन गुस्से में चीखे, भूरे भी ये सुनकर गुस्से से भर गया
"री बोलती क्यों नहीं... कब?..."मातादीन अपनी पत्नी पर फिर चीखे
"व ..वो जिस दिन काकी आटा लेने आई थी उसी दिन" कांता डरते हुए बोली
"ये बात तूने उस दिन ही क्यों नहीं बतायी..." मातादीन ने चीखने के साथ ही इस बार खाने की थाली उठाकर फेंक दी
और पास जाकर गुस्से में कांता के गाल पर एक चाँटा जड़ दिया
"आटा देने की बात बता दी, चिठ्ठी देने की बात क्यों नहीं बताई....(फिर रुककर) इन भूखे नंगो का रिश्तेदार कहाँ से पैदा हो गया..?"
"हुज़ूर ...कस्बे से बाहर ...बस स्टैंड के पास ये साइकिल मिली है...." मातादीन के एक आदमी ने रमा की साइकिल भूरे के सामने पटकते हुए कहा, जिसे भूरे ने देख कर फौरन शिनाख़्त कर दी "हाँ ये साइकिल रमा की ही है..इसका मतलब वो कम्बख्त बुढ़िया उसे सच में कस्बे से बाहर ले गयी है" भूरे दाँत पीसते हुए बोला
" भूरे.... जानता है तू...पूरे कस्बे के लोग तुझे कमअक्ल समझते हैं...जा.. जाकर पता लगा उन दोनों का ..मत भूल कि रमा होने वाली बीबी है तेरी...खबर लेकर ही लौटना ...नहीं तो मैं भी तुझे कमअक्ल ही मानूँगा ..." मातादीन की बात सुनते ही भूरे जोश से भर गया और उस खबरी आदमी के साथ दौड़ गया।
"मेरी बिल्लियां ...मुझसे ही म्याऊँ...इतनी हिम्मत हुम्म" भूरे के जाते ही मातादीन ने गुस्से में भुनभुनाते हुए...हुक्का उठाकर फेंक दिया।
***
"वाह। बहुत समय बाद मुझे बना हुआ खाने को मिल रहा है सो भी इतना स्वादिष्ट" वंशी ने अपनी उंगलियाँ चाटते हुए कहा
"सच है, तुम्हें तो हमेशा खुद ही बनाना पड़ता है...वैसे खाना सच में बहुत स्वादिष्ट बना है.. रमा" माधव ने रमा की ओर देखते हुए कहा, तो रमा ने मुस्कुरा कर नजर नीची कर ली
"देखा..मैं ना कहती थी...मेरी रमा बनाती ही इतना स्वादिष्ट है"
पानी का गिलास मुँह से लगाती सुशीला बोलीं
**
हल्की धूप की आभा जब चेहरे पर पड़ी तब नींद खुली माधव की...उसने खिड़की पर लगा पर्दा खिसकाया...रोज का सबसे पहला काम यही था माधव का... नींद खुलते ही वो खिड़की पर लगा पर्दा खिसकाता ....लेकिन आज का नजारा सबसे खास था। रमा उगते सूर्य को जल चढ़ा रही थी...बालों को तौलिया में लपेटे रमा छत पर बनी एक सीमेंट की मुंडेर पर खड़ी थी और अपने हाथों को इतना ऊंचा उठाये थी जैसे सूर्य के सबसे नजदीक पहुंच कर जल चढ़ाना चाहती हो ..ऊँची जल की धार में से सूर्य की रोशनी जैसे छन-छन कर बाहर आ रही हो..रमा आँखे बंद किये कुछ बुदबुदा रही थी...माधव अपलक उसे निहारता रहा।
"भईया चाय"...वंशी ने मेज़ पर चाय रखते हुए कहा, तो एक झटके से माधव ने पर्दे को बापस खींच दिया।
"क्या हुआ?" वंशी ने माधव को चौंकते देख पूँछा
"नहीं ...कुछ नहीं...आज बहुत देर तक सोता रहा...कॉलेज जाने में देरी हो गयी है...चाय नहीं पिऊँगा...वंशी जल्दी से कुछ खाने के लिए बना दो" कहते हुए माधव कपड़े उठाकर कमरे से भागा। घर से निकलने ही वाला था कि सुशीला उसके पास आकर बोलीं
"माधव बेटा...हम डर की वजह से खाली हाथ आ गए ..क्या 4 साड़ियाँ ले आओगे हमारे लिए..सस्ती सी ही चाहिए..."और कुछ पैसे माधव को पकड़ाने लगीं
"आते समय याद से ले आऊँगा...आपको पैसे देने की जरूरत नहीं" माधव ने कहा
"लेकिन.."
"बुआ जी, अगर पिताजी होते तब भी क्या आप उन्हें पैसे देतीं, और वो लेते क्या ?" माधव ने जब ये कहा तो सुशीला चुप हो गयी । और बोलीं "जीते रहो"...
शाम को आते वक्त माधव छः साड़ियां ले आया...और सुशीला को पकड़ाते हुए बोला "लीजिये ..ये छः साड़ियां हैं"
"मैंने तो चार ही मंगायी थी" सुशीला ने पूँछा तब तक रमा भी आकर खड़ी हो गयी। उसे देखकर माधव जानबूझकर बोला
"ये लाल और नीली दो साड़ियां इसलिए ज्यादा ले आया, कि रमा को कहीं नौकरी के लिए साक्षात्कार देने जाना पड़े तो चाहिए होगी ना"
**
"कोई दबे पाँव मेरे जीवन में रंग भरे जाता है" माधव आखें बन्द किये बोला
"कैसे रोकूँ खुद को, वो तो मन मे उतरता जाता है" जब ये लाइन सुनी माधव ने अपनी आंखें खोल दी...सामने रमा खड़ी थी.."अरे रमा...तुम...तुम कब आयीं" माधव अपनी कुर्सी से उठ कर खड़ा हो गया
"मैं तो चाय लेकर आई थी आपके लिए....माफ कीजिये बीच में बोल पड़ी" रमा चाय का कप रखते हुए बोली...माधव की नजर रमा की उन दो हरी चूड़ियों पर पड़ी "आह। कितनी सुंदर लगतीं हैं" वो बुदबुदाया
"क्या?"रमा ने अचकचा कर पूँछा
"मैं उन पंक्तियों की बात कर रहा था, जो तुमने बोलीं"
"वो तो बस्स ऐसे ही.."
"सच में अच्छी हैं ..अब तो इस पंक्ति को ही जोडूंगा..."
माधव के ये कहते ही रमा मुस्काई और जाने को मुड़ गयी
माधव ने उसे जाते देखा तो अचानक पूंछ बैठा
"तुम क्या थोड़ा बहुत भी पढ़ पायी हो रमा?"
"हां ...बस्स बारहवीं तक...आगे भी पढ़ना चाहती थी...लेकिन...
"क्या...क्या कहा तुमने...तुम बारहवीं तक पढ़ी हो?" माधव ने उसे बीच में ही टोक दिया और खुश होकर पूँछा
"जी...मैं आगे भी..." रमा ने फिर कहने की कोशिश की
"तुम्हें आगे की पढ़ाई पूरी करनी चाहिए..स्नातक करोगी?...मैं कल फॉर्म लेता आऊँगा तुम्हारे लिए" माधव खुश होकर बोला
"सच?" रमा खुश होकर बोली
"हां बिल्कुल सच...कल ले आऊंगा फॉर्म"
"लेकिन...
"लेकिन क्या"
"अब इतना वक़्त नहीं..आप तो बस मुझे कहीं कोई छोटी-मोटी नौकरी दिला दीजिये...बड़ा उपकार होगा आपका" रमा थोड़ा निराश होकर बोली
"क्यों? वक़्त क्यों नहीं...स्नातक के बाद अच्छी नौकरी मिलेगी..शायद मेरे कॉलेज में ही लग जाये"
"और 3 वर्ष, सिर्फ पढ़ाई कैसे कर सकती हूँ...नहीं कर सकती..."
"क्यों? क्या दिक्कत है..मैं करवाऊंगा ना"
"आप पहले ही हमें इस घर में रख रहे हैं...यही बहुत है...
"अरे तो इसमें क्या हुआ" माधव रमा की बात काटते हुए बोला
"ये आपका बड़प्पन है लेकिन...हमारे नजरिये से भी तो सोचिए..." रमा के इतने कहते ही माधव चुप हो गया। रमा भी चुप खड़ी रही फिर बोझिलता महसूस होने लगी तो बोली
"जरा पीकर बताइए चाय कैसी बनी है...और ये कचौरी भी"
"बेशक अच्छे ही बनें होंगे...तुमने जो बनाये हैं...वैसे! तुमने तो मुश्किल कर दी रमा" कहते हुए माधव ने चाय का कप अपने होंटो से लगाया
"मैंने...कैसे भला?"
"ऐसे ...कि अब पता लगा अच्छी चाय कैसी होती है...वरना वंशी जो बनाता था वही श्रेष्ठ था...ना मिली कभी तुम्हारे हाथों की चाय तो मुश्किल ही होगी ना। वाह । इसे कहते हैं चाय" माधव आँखे बंद करके बोला तो रमा खुश होकर कमरे से दौड़ती हुई निकली और सीढियों से ऊपर आ रही सुशीला से टकरा गई
"अरे । ध्यान कहाँ है तेरा..." सुशीला चिढ़ कर बोलीं
"वो वो बुआ" एकदम सहज हो गयी रमा
"जा अच्छा नीचे जा...वंशी बुला रहा है तुझे ...पागल कहीं की" सुशीला भी अपनी आवाज नर्म करती हुई बोलीं...
***
"रमा कहाँ है.." माधव ने घर में कदम रखते ही पूँछा
सुशीला और रमा एकसाथ उसके सामने आकर खड़े हो गए
"ये लो...बी.ए. का प्राइवेट फॉर्म भर दो...उसमें कॉलेज जाने की आवश्यकता नहीं...और फॉर्म भरने में जो समंझ ना आये मुझसे पूंछ लेना..."
"लेकिन..."
"हॉं तुम्हारी और बुआ जी की उलझन का जवाब भी है मेरे पास ..."माधव हँसते हुए बोला..तो सुशीला और रमा दोंनो चौकन्नी हो गयी
"मैंने पता लगा लिया है...पास के ही एक स्कूल में प्राइमरी अध्यापिका की जगह खाली है..ये रहा फॉर्म ..इसे भी भर दो...नौकरी तो पक्की समझो तुम्हारी..अब ये है कि मेहनत बहुत करनी होगी तुम्हें...स्नातक की पढ़ाई प्राइवेट और नौकरी दोनों एक साथ...अब तो ठीक है ना " दोंनो फॉर्म रमा को पकड़ाते हुए माधव ने पूँछा, रमा हांमी में सिर हिलाती हुई बोली "सच?...मेहनत तो मैं कर लूंगी ?" और सुशीला के गले लग गयी..उसे खुश देख सुशीला बोलीं "क्या लग जायेगी नौकरी...माधव?"
"हाँ बुआ जी....तो अब इनाम में क्या मिलेगा मुझे..."माधव ने हँसते हुए पूँछा
"क्या चाहिए ...बताइए" रमा ने जवाब दिया
"फिलहाल तो तुम्हारे हाथ की चाय और पकौड़ी मिल जाये ..तो जन्नत मिले " माधव ने कहा तो रमा हँसती हुई रसोईघर में चली गई और माधव पहली मंजिल पर बने अपने कमरे के लिए सीढ़िया चढ़ गया।
***
'हे गिरधर.....हेsss गिरधर..... हेsss' रमा के भजन की आवाज से माधव की नींद खुली...
"रमा पूजा कर रही है....अहा कितना सुंदर गाती है" माधव ने कहा और नजर अपने कमरे में रखी बांसुरी पर चली गयी "क्यों ना ताल मिलाया जाय' सोचते हुए उसने बाँसुरी उठा कर बजाना शुरू कर दी
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रमा बाँसुरी की आवाज से थोड़ी चौंकी और फिर और तन्मयता से गाने लगी
'सुन लो बिनती ...कृष्ण मुरारी ...हे गिरधर.....हेsss गिरधर..... "
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माधव बाँसुरी बजाने में जो मगन हुआ तो उसे पता ही ना लगा
कि कब रमा ने भजन गाना बन्द कर दिया और कब वो उसके कमरे के बाहर खड़ी उसे निहार रही है....थोड़ी देर बाद ही सही लेकिन जब खुद के चेहरे पर किसी की नजर का एहसास हुआ तो माधव ने आँखे खोल दीं तो नजर सीधी रमा पर पड़ी
"अरे। रमा ..."
"बहुत अच्छी बाँसुरी बजाते हैं आप" रमा प्रभावित दिख रही थी
"बस्स शौक है बजाने का ..कभी कभी बजाता हूँ..आज जब तुम्हें भजन गाते सुना तो खुद व खुद बजाने लगा...बहुत अच्छा गाती हो तुम" माधव ने कहा तो रमा ने शरमाते हुए उसे चाय का कप बढ़ा दिया..और पहली बार रमा की वही हरी चूड़ियां माधव के हथेली को छू गयीं
"हो गयी पूजा?" माधव ने कप पकड़ते हुए पूँछा
"हम्म.. बस जल चढ़ाना रह गया है"
"तो चाय लाने की क्या जल्दी थी, पूजा कर लेतीं पहले...कहीं तुम्हारे गिरधर मुझसे नाराज ना हो जाएं " माधव ने हँसते हुए कहा, उसे रमा का यूँ चाय लाना और खुद से उसकी चूड़ी छू जाना अंदर तक खुश कर गया था
"मुझे पता है आप इसी वक्त उठते हैं ..और यकीं है मुझे, मेरे गिरधर को भी कोई परेशानी नहीं होगी इससे" रमा ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया। और जाकर जल चढ़ाने लगी, माधव कुर्सी पर बैठा उसे खिड़की से देखने लगा ..जल की धारा में से छोटी छोटी पानी की बूंदे ऐसी दिख रहे थीं जैसे पारदर्शी मोती सुनहरी आग से भरे इधर-उधर छत पर बिखर रहे हों।
जैसे ही जल चढ़ाकर रमा जाने लगी माधव ने पूँछा
"रमा क्या वो अध्यापिका वाला फॉर्म भर दिया तुमनें?"
"हां भर दिया...सरल था...इसलिए आपसे पूछने की जरूरत नहीं पड़ी"
"ये तो बहुत अच्छी बात है...जाते वक्त याद से मुझे दे देना"
माधव ने प्रभावित होकर कहा, और रमा सिर हिलाती सीढ़ियां उतर गयी
**
"पिताजी, बस का ड्राइवर से पता लग गया है...कि वो दोनों कहाँ गयीं है..."भूरे ने गर्व से फूलते हुए कहा
"हम्म...कहाँ है सामने ला उन्हें" मातादीन गुस्से में बोले
"बस्स ठिकाना पता नहीं लग पाया है ...थोड़ी सी..."
और बात कर पाता इससे पहले ही मातादीन भड़क गए
"कमअक्ल..तो क्या ये सूरत दिखाने आया है मुझे...किसी काम का नहीं कोई ...मुझे ही जाना पड़ेगा" मातादीन गुस्से में दहाड़ते दो कदम बढ़े ही होंगे कि उसके पैर भूरे ने पकड़ लिए और बोला
"बस्स पिताजी, एक-दो दिन की मोहलत और दे दो...मैं ढूंढ निकालूंगा उन्हें"
"जानता है व्याह की तारीख कब की है...?"
मातादीन ने गुस्से में पूँछा तो भूरे ने हामीं में सिर हिला दिया
"अगर नियत तारीख पर तेरा व्याह ना हुआ तो इस कस्वे के लोग तो छोड़ बाहर गाँव भी ये अनपढ़ और दो दो पैसे के लोग हँसेंगे हम पर...प्रधान माततादीन पर " मातादीन अपने सीने पर जोर से हाथ मारकर बोला
"चांहे जो हो जाये पिताजी, व्याह से पहले उस रमा को बालों से पकड़कर लाऊँगा"
"सुन भूरे! ना पता लगा सके तो ये सूरत मत दिखाना मुझे"
गुस्से से भरे मातादीन दहाड़े तो ...भूरे गुस्से में पैर पटकता उनके पास से दौड़ गया
***
रमा लाल साड़ी में बिल्कुल परी जैसी सुंदर लग रही थी, वंशी ने दही में चीनी मिलाकर सुशीला को पकड़ा दी
"पढ़ी लिखी तो हूँ नहीं जो कुछ जानूँ...बस्स भगवान तुझे सफल करें" सुशीला रमा को दही खिलाती हुई बोलीं, माधव मुस्कुराते हुए और सबसे नजरें बचाये बार -बार रमा को ही देख रहा था.....
थोड़ी देर बाद ही दोनों महावीर प्राथमिक विद्यालय के सामने खड़े थे, "देखो रमा, घबराना मत, जो मैडम जी पूँछे सहज होकर बता देना..और कुछ ऐसा पूँछे जो तुम्हें ना पता हो...तो मना कर देना। लेकिन तनाव ना लेना...यहाँ ना लगी नौकरी तो कहीं और लग जायेगी ...ठीक है"
हांमी में सिर हिलाती रमा कुछ कदम आगे बढ़ी फिर रुक गयी और बापस माधव के सामने खड़े होकर उसे कुछ देर अपलक देखती रही...और माधव कुछ बोल पाता इससे पहले ही वो उसके पैरों को छूने झुक गयी
"अररर...ये क्या कर रही हो" माधव ने पीछे हटते हुए अचकचा कर पूँछा
लेकिन रमा बिना कुछ बोले अपने साक्षात्कार कक्ष की ओर दौड़ गयी। और माधव मानों जड़ बना उसे अपलक देखता रहा
...
मुश्किल से 15 मिनट बीते होंगे ...कि रमा ख़ुशी से चहकती साक्षात्कार कक्ष से बाहर निकल आयी
"क्या हुआ...कैसा रहा सब " माधव ने अधीर होकर पूँछा
"मेरी पढ़ाई लिखाई के बारे में पूछा, और एक किताब से कुछ पढ़वाकर देखा बस्स..कहा है कल से आ जाओ" रमा लगभग उछलते हुए बोली
"ये तो बहुत खुशी की बात है...लगता है गिरधर खुश हैं तुमसे" माधव खुश होकर बोला
"लगता तो यही है...अब तो वो मुझसे हमेशा खुश रहें बस्स" रमा ने जवाब दिया
"चलो मिठाई ले लेते हैं" कहकर माधव और रमा एक मिठाई की दुकान की ओर बढ़ गए।
***
माधव ने उठकर खिड़की से परदा खींचा लेकिन रमा नहीं दिखी..."रमा जल चढ़ाने नहीं आयी अभी तक?" कहकर माधव छत पर आ गया..देखा तो छत का वही भाग गीला था.जहाँ रमा जल चढ़ाती है."आहह तो रमा जल चढ़ा गयी...मैं देर से उठा हूँ" अपने कमरे में आया तो देखा चाय का कप प्लेट से ढँका हुआ रखा है, उसके चेहरे पर मुस्कुराहट आ गयी। अभी चाय का कप उठाया ही था कि आवाज कानों में पड़ी "वंशी भईया जल्दी कीजिये" रमा की आवाज से चौंका माधव, एक ही साँस में सीढ़ियां उतर गया सामने रमा नीली साड़ी में बेहद सौम्य और मोती जैसी पवित्र लग रही थी।
"कभी सोचता हूँ तुम्हे मेरी ही नजर ना लग जाये तुम्हें रमा" माधव मन ही मन बोला
"अरे बीबी जी क्यों घबरातीं हैं, अभी बहुत समय है" वंशी रसोई से निकलते हुए बोला
"जाग गए आप, आज पहला दिन है मेरा...आशीर्वाद दीजिये"
रमा माधव के सामने आकर हाथ जोड़ती हुई बोली, तो जवाब में माधव बस्स मुस्कुरा दिया।
"वंशी रिक्शे से जाना" माधव ने वंशी से कहा तो रमा उत्साहित होकर बोली
"रिक्शे की क्या जरूरत कितना तो पास है..मुझे तो रास्ता मुँहजुबानी याद हो गया है"
"रुक तो प्रसाद खाकर जा " सुशीला ने रमा को प्रसाद देते हुए कहा, फिर माधव से "माधव तुम भी प्रसाद लो...बेटा ...समंझ नहीं आता इस जन्म में तो उद्धार मिल भी पायेगा या नहीं..कितना कुछ कर रहे हो हमारे लिए"
"कुछ भी नहीं किया ऐसा मैंने बुआ जी..अच्छा मैं भी तैयार होकर निकलता हूँ"
**
माधव तो 1 बजे जब घर आया तो उसे रमा नहीं दिखी मन ही मन झुंझलाया, कपड़े बदले किताब खोल कर बैठ गया...लेकिन मन नहीं लगा आँखो के सामने रमा का ही चेहरा आ जाता
"माधव भईया, ये लो खाना खा लो" वंशी ने खाने की प्लेट माधव के सामने रखते हुए कहा
"मैंने कहा क्या तुमसे, कि भूख लगी है?" माधव ने चिढ़ते हुए पूँछा
"आप तो रोज ही खाना खाते हैं कॉलेज से आकर"
"आज मन नहीं ले जाओ...बाद में खाऊँगा " माधव ने मुँह फेरते हुए कहा
"तबियत तो ठीक है ना?" वंशी ने आश्चर्य से पूँछा तो माधव ने हांमी में सिर हिला दिया
"तब क्या करुं चाय ले आऊँ?" वंशी ने थाली उठाते हुए पूँछा
"तुम रहने दो...रमा आएगी तो उसी से बनाने को बोलूँगा"
"हाँ अब मेरे हाथ की चाय क्यों पसंद आएगी भला" वंशी जाते-जाते बुदबुदाया, जिसे माधव ने सुन लिया
"क्या कहा वंशी..?"
"कुछ नहीं" वंशी भागते हुए बोला
**
अगले दिन, माधव कॉलेज से बापस आकर रमा को घर में ना पाकर बेचैनी महसूस कर रहा था...इसलिए छत से गली की ओर कई बार झाँक-झाँक कर देख चुका था
"क्या जरूरत थी नौकरी की...ये बुआ जी भी ना... इन्होंने ही रमा को नौकरी के लिए मजबूर किया है...कितनी देर कर दी...ना जाने कहाँ रह गयीं रमा आज ..ओह्ह...कब ...और कितनी देर...तभी
"ये सब चल क्या रहा है" माधव के कानों में ये आवाज पड़ी तो वो चौंक गया.........क्रमशः.......
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अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दें, कृपया फॉलो करें..सधन्यवाद:सोनल जौहरी.