Bite n Raina - 4 in Hindi Thriller by Neeraj Sharma books and stories PDF | बीते न रैना भाग - 4

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बीते न रैना भाग - 4

                    (   बीते न रैना )

                 कर्नल की कार फिरोज को स्टेशन पे छोड़ गयी थी। और गले से मिला था... फिरोज दोनों को.. होश कम था दोनों को... फिरोज को ठंड कम इसलिए कम लग रही थी, कि उसे विस्की का असर और मुँह मे इलायची थी छोटी हरी... जिससे सास गर्म लावा जैसे और बदबू कम थी। दिल्ली की टिकट लीं, टिकट काउटर से, एक लड़की घुटनो तक लम्मा कोट डाला हुआ बहस रही थी उच्ची से, बात को समझा... फिरोज ने। दो नोट सौ सौ के काउटर की तरफ बढ़ाते कहा.. " कोई बात नहीं, इसे रख लीजिये, टिकट इन्हे जो है, दे दीजिये। " ये विस्की का ही कसूर था। इतना दिल नहीं था ज़नाब का... वो लड़की ने कहा, " सुनिए, आप किदर से कूद पड़े बीच मे, " फिरोज बोला, " कुदा नहीं आया हू, शिमले से। " ----" आप जैसी हसीन झगड़ती अच्छी नहीं लगती.. " ये उसने उसके कान मे धीरे से कहा। " लगता है इस देवी पे दिल आ गया, ज़नाब का। " उसकी सहेली ने उच्ची आखें दिखाते कहा। " छोड़ो, दीवारों के भी कान होते है, मुँह पहली वार देख रहा हू... " फिरोज ने चोलमोल करके आ रही गाड़ी की और रिवानगी की।

                           मुस्करा कर उसने पता नहीं कयो उसे स्वीकार कर लिया, पता नहीं... सहेली भी हैरान थी। गाड़ी रुकते रुकते आधा स्टेशन लाघ गयी थी। " महाशे, कहा जाना है, पकड़ाई ए ये टेची ज़नाब। " वो साथ होते कंधे से जुड़ गया।

                            " जानी तुम लये बगैर जान नहीं छोड़ो गे... ये लो अटेची केस.. और ये लो एक सौ रुपए , दो कर देना...." फिरोज ने मस्करी की। "---हाहाहा  -- हसते हुए फिरोज को उसने कहा, जादूगर हू ज़नाब.. जीवन मेरा नाम सारी ज़िन्दगी कला ही की है।" उसने डिब्बे मे अंदर जाते कहा... बैठिये.. यही। ..".मैं बस अभी आया.." कह कर जल्दी से उतर गया। डिब्बे मे देखा.. कुछ लोग बर्थ पे सोये हुए थे, और कुछ लडके थे ताश खेल रहे थे, एक बजुर्ग खासी कर सौ जाता था। देख कर फिरोज थोड़ा खुश हुआ... कब वो मेरी ऊपर बर्थ पे एक लेट गयी, एक ऊपर ही बैठ गयी... शायद उसके हाथ मे नावल था.. जो पढ़ती ज़ा रही थी।

तभी वही कुली जीवन एक बैग और अख़बार ले के आ गया था। " ये लीजिये ज़नाब... ढूढ़ते रहे जायेगे.. अखबार पढ़े। " उसने एक शिकायत की जीवन को, गुलाब इस मौसम मे खिलते है... इतना उच्ची बोला, कि ये स्वर उसके कान मे पढ़ गया। उसने नीचे देखा... नावल उसने अर्ध खुला आपनी छाती पे रख लिया था... लम्मा कोट उतार कर सहेली को दिया था... वो शर्ट और जीन मे थी... नाजुक बदन की हसीना... " ज़नाब नहीं... " जीवन को सुनाते हुए उच्ची बोला... " खिलते है, बहुत सुंदर गुल... जो भीनी भीनी महक छोड़ते है ... कितना सुहाना मौसम। भीनी भीनी महक।

"अच्छा साहब " गाड़ी धीरे धीरे चलने लगी... हाथ हिला दिया फिरोज ने जीवन को। जीवन वही स्टेशन पे उतर गया। धीरे धीरे चित्र बाहर के आते और फिर एक दम चले जाते... गाड़ी रफ्तार पकड़ गयी थी... टक.. टक.. टक... थक....  थक ...।

(चलदा )                        ---- नीरज शर्मा -----