--------------------- बीते न रैना ---------------- भूमिका
कुछ हटकर जो हो रहा साहब, हम उसके बारे कहने का दूसहास किया है, इस के लिए कुछ भी घटिकत हो जाए। होने दो। भूमिका सोचते हो पता चल गयी हरगिज नहीं।
कहने का तातपर्य कुछ ये है। बम्बे जाना ही होगा। " मेहरा साहब वही रहते है " उनका मित्र फिरोज बोला था। सोच रहा था फुरसत के वो दिन, जो शिमले मे उनके साथ गुजारें थे उनके रेहन बसेरे मे, वो शांत माहौल, पहाड़ी वादियों मे गिरते झरने का पानी, कन.. छन.. करता गिरता कितना मन को शांति देता था। उसके सँग बिताये पल आज भी नहीं भुला था। कितना कुछ था। सेबो के बाग थे, गोल्ड़न सेब...."" वाओ.."
खट मीठे खाने मे स्वादिष्ट, एक से जेयादा मैंने कभी नहीं खाये थे। बहुत ही नेहायत मीठे ना खटे....मन को लुभाने वाले सेब...
पुरखो की हवेली... नाम था रहन बसेरा... कितना दिल चाहता था, वही टिक जाना, हमेशा के लिए।फिरोज रहन बसेरे मे काफ़ी समय ऊपर नीचे घूमता रहा था... एक बड़ा सा दलान था... कितना ही सुन्दर गोल गोल मीनाकारी किये हुए। यहाँ उनके बजुर्ग एक बड़ी सी कुर्सी पे बैठ कर गांव का फैसला करते होंगे। मेहरा साहब मेरे अजीज दोस्त ने कहा था।
वो बहुत ही खर्चीला इंसान था। अच्छी दारु का शौकीन... खान पीन को ही जिंदगी के खास आयमों को गिना करता था। बताना लाजमी है, शिमला उसका हिल स्टेशन था। वो और भी शौकीन था... दारु के बाद, कपकपाते सासो की गरमाहट का.... ठंडी हवाहे और आहे कितनी होंगी उस वक़्त की तेजी मे छुपी हुई।
फिरोज उसके साथ एक साल से कम ही रहा था, उसने एक अनाथ बच्ची का जिक्र किया था। जो वो इतना बता सका था, कि मैं उसे कुछ दे पाया हू... तो सिर्फ एक बाप का प्यार नहीं, बाकी सब कुछ दे दिया, अब तो वो मुझे अंकल कहती है, और माली काका को बाबू जी कहती है.... कैसे सहन करता हुगा मै ये दर्द वक़्त का सितम... आग जो जला देती है, फिरोज....पाप की आग.... मै उसे किसी तरा से भी रखना चाहता था, मारना नहीं... " फिर वो चुप कर गया। फिरोज बोला, " तुम्हारा कहने का मतलब तूने एक कुवारी को माँ बना कर, उसे भी और उसके बच्चे को भी अपना लिया... " नहीं... वो बच्चा पैदा करके ही दम तोड़ गयी... और बच्चा उसकी अमानत समझ के आज माली काका के पास है, वो लड़की है.... कोई नहीं जानता तुम्हारे सिवा... खुद माली भी नहीं.... फिरोज एक ऐसा विश्वास पात्र ढूढ लिया था, जिसके पास ढेरों बाते कर सकता था। "ये पाप चढ़ती जवानी का आहिस्ता से जिंदगी मे मेरे फिरोज नासूर तो नहीं बन जायेगा।" फिरोज ने पलट कर जवाब दिया....तुम यारों के यार हो, मर जाऊगा.. मगर तेरा विश्वाश नहीं तोड़ूगा। " पर पता नहीं कयो एक चीस मेरे दिमाग को खोखला कर रही है। " फिरोज ने कहा, " छोड़ो सब, जो भी हो रहा है, वो बासुरी वाला ही कर रहा है। " फिरोज भी चुप था, और मेहरा साहब भी... दोनों मित्र... मेहरा का पूरा नाम मदन मेहरा था।
स्वाभिक कभी कुछ नहीं होता, वक़्त ने इतिहास रचना होता है। इस लिए सोचो मत।
( चलदा ) ------------------- नीरज शर्मा
---------- शाहकोट, जलाधर।