RISHTE KA BANDH in Hindi Love Stories by sonal johari books and stories PDF | रिश्ते का बांध - भाग 2

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रिश्ते का बांध - भाग 2

"तू रुक, मैं देखती हूँ" बुआ ने हाथ के इशारे से रमा को रोक दिया और खुद दरवाजे की ओर लपकीं, रमा ने अपने कान और पूरा ध्यान दरवाजे की ओर लगा दिया।


"भूरे..."सुशीला के मुँह से अचरज से निकला..


भूरे मातादीन का आवारा और अनपढ़ लड़का है जो खुद को कस्बे के सूबेदार समझता है और मातादीन के लिए काम कर रहे मजदूरों पर हुकूमत करता है...यूं तो इकहरे बदन का है..लेकिन सफेद दागों की समस्या के चलते शरीर अस्सी प्रतिशत तक सफेद हो गया है ...इसलिए लोग उसे भूरे कहने लगे हैं..उसके  मुंह में हमेशा पान मसाला रहता है और वो ज्यादातर रमा के घर के आस-पास मंडराता रहता है और मौका मिलते ही रमा को गंदी निगाहों से घूरता है। जब रमा ने भूरे का नाम सुना तो वो डर गई, इतने में ही सुशीला बोलीं


"प्रधान जी...आप ? कहला दिया होता मैं खुद आ जाती आप ने क्यों परेशानी उठायी"


"परेशानी तो तुम्हारी खत्म करने आया हूँ, सुशीला..." मुस्कुराते हुए प्रधान ने सुशीला से कहा और भूरे को इशारा किया, भूरे ने साथ मे लायी हुई फोल्डिंग की कुर्सी खोल दी और मातादीन उस पर बैठ गया


"हमाई परेशानी" सुशीला ने हैरत से पूँछा तो मातादीन ने मुस्कुरा कर भूरे की ओर देखा...भूरे ने अपने गले में पड़े गमछे को दोनो हाथों से बड़े गर्व से आगे की ओर खींचते हुए अपनी नजरें छोटे से घर में रमा की खोज में दौड़ा दीं ...सुशीला की नजर उसी पर थी ..वो गुस्से में कसमसाते हुए रह गईं, इतने में मातादीन बोले


"देखो,  सुशीला..प्रधान होने का मतलब होता है पूरे गाँव या कस्बे को अपना परिवार समझना...तुम्हारा भाई चल बसा, अब ना तो कोई तुम्हारा आगे है ना पीछे..कुछ .सोचा है रमा का क्या करोगी? भई हमें यही चिंता खाये जा रही है...."   


ये सुनकर सुशीला चौंक गयीं, उधर रमा के दिल ने भी मानो धड़कना छोड़ दिया। इतने में उसने भूरे को फिर इशारा किया और भूरे ने एक सिगरेट जला कर मातादीन को पकड़ा दी


"भूरे के लिए आस पड़ोस से ना जाने कितने रिश्ते आते हैं  ..भूरे को तो कोई भी अपना दामाद बना लेगा...लेकिन रमा..उसे कौन ब्याहेगा ? 


इतना बोल कर मातादीन ने सिगरेट का एक कश पूरी गहराई से भरा,  सुशीला अपनी जगह खड़ी हो गयी...रसोई में बैठी रमा का दिल अब धौकनी सा चलने लगा, बड़ी मूंछों को ताव देकर मातादीन आगे बोले


" लोग हमें उलाहने देंगे...कि इतनी गरीब लड़की से क्यों व्याह कर रहे हो हुज़ूर ...जब एक से एक लड़कियों के रिश्ते मौजूद हैं...लेकिन हमारा मन ठहरा परोपकारी... इसलिए  सब लोक लाज किनारे रख कर सोचा है कि भूरे का व्याह रमा से हो जाये..." मातादीन खुद की तारीफ करते हुए सुशीला को समझाने के अंदाज़ में बोले


"क क्या....? "सुशीला की जुबान मानों तालू से चिपक गयी वो आगे कुछ ना बोल पाई...उधर ये सुन कर रसोई में रमा अपनी जगह खड़ी हो गयी..और अब तक हाथ में पकड़े बैंगन के टुकड़े जो उसने छौंके नहीं थे, हाथ काँपने से खुद कढ़ाही में 'छन्नननन ' की आवाज करते जा गिरे । इस 'छन्नननन ' आवाज से सबकी गर्दन एक साथ रसोई की ओर घूम गयी, तभी भूरे के चेहरे पर ये सोचकर कि रमा भीतर है और सब सुन रही है,  एक लालची मुस्कान आ गई।


" जानता हूँ...क्या सोच रही हो सुशीला..यही ना कि कहाँ तुम लोग और कहाँ हम...(हँसते हुए)...भई शायद इसे ही भाग्य कहते हैं...और सुनो पंडित ने आठ दिन बाद की तारीख निकाली है...भई हमने तो पक्की कर दी तारीख..भूरे संग रमा का व्याह....दीपावली से पहले ही घर की लक्ष्मी घर आ जाये... भला इससे अच्छा और क्या हो सकता है....क्यों ठीक कहा ना?" मातादीन ने हँसते हुए पूछा और जवाब का इंतज़ार किये बिना आगे बोले


"तुम्हे लग रहा होगा कि जहाँ दो बखत की रोटी नहीं ...वहाँ व्याह का इंतज़ाम कैसे होगा.....रुको .."

 मातादीन ने भूरे को इशारा किया और भूरे ने नोटों का एक छोटा सा बंडल मातादीन की ओर बढ़ा दिया।


"ये लो..पकड़ो (पैसे सुशीला की ओर बढाते हुए) दिल छोटा करने की जरूरत नहीं है..ये तीस हज़ार हैं...जो भी रस्मों-रिवाज़ करने हों, कर लो ...शादी का बंदोवस्त तो हम करेंगे ही...कल दो लड़कों को भी भेज दूँगा जो इस घर को थोड़ा ठीक कर देंगे...शादी के काम में तुम्हारी मदद को भी किसी को भेज दूँगा "


सुशीला ने पैसे अब तक पकड़े ना थे तो मातादीन ने जबर्दस्ती पैसे उनके हाथों में पकड़ाते हुए कहा " चिंता मत करो, जब ये खरच कर लो, तो बता देना और भिजवा दूँगा...और हॉं ..अपनी चिंता भी मत करना शादी होते ही तुम्हें तीर्थ यात्रा पर भिजवाने का इन्तजाम करा दूँगा...वो कहते हैं ना कि लड़की की विदाई के बाद गंगा नहाना चाहिए......चल भूरे"  

हँसते हुए मातादीन घर से बाहर निकल गए सुशीला ने पैसे पकड़ लिए थे। 


और जब रसोईघर की बनी सेंध में से रमा ने ये देखा तो क्रोध और विवशता में उसके आँसू बह निकले...मातादीन के बाहर निकलते ही भूरे रसोईघर की ओर लपका…

लेकिन सुशीला फुर्ती दिखाते हुए दोंनो हाथ ताने भूरे को रोककर उसके आगे आ खड़ी हुई

"बुआ...मिलने दो ना रमा से" भूरे अपनी उंगलियां दाढ़ी पर रगड़ता हुआ बेशर्मी से बोला


" ...हमाये यहाँ आठ दिन पहले लड़का -लड़की नयी मिल सकत..." सुशीला बोलीं तो रमा गुस्से से तिलमिला गयी

"अरे! तो देख तो सकत हैं ना?" भूरे फिर बोला

"अच्छा.....हल्दी की रश्म पे मिल लियो...आज का दिन वैसे भी शुभ नयी" सुशीला ने कहा तो भूरे उत्साहित सा घर से निकल गया।और बुआ ने जल्दी से दरबाजे की कुंडी लगा दी। राहत की साँस लेकर भीतर की ओर पलटी ही थी कि पल भर के लिए तो रमा का रूप देख डर ही गयीं।


रमा का पूरा चेहरा आसुंओं से भीगा हुआ था..और आँखो में गुस्सा भरा था वो सुशीला को आक्रोश से घूर रही थी

"अह...सुन र...मा" सुशीला ने बोलना चांहा, तो रमा चीख पड़ी


"कुछ मत बोलो ...बाप सारी जमीन और ये घर बेच गया...और तुम...तुमने मुझे बेच दिया ...तुम भी अपने भाई जैसी निकली..." रमा गुस्से में फुँफकारती बोली

"सुन रमा..." सुशीला ने बोलना चाहां

"सारे दिन पूजा करने का ढोंग करती रहती हो...और तीस हजार में ईमान डिग गया..मैं ये मंसूबे पूरे नहीं होने दूँगी तुम्हारे....मार डालूँगी खुद को ...फिर चाहें मेरी लाश से कर  देना उसकी शादी" गुस्से से तमतमाती रमा ने भागकर कुंडी खोली ही थी कि सुशीला ने उसे पीछे की ओर धकेल दिया


"जाने दो मुझे...उस जानवर से व्याह करने से अच्छा मैं किसी तालाब या पोखर में कूद जाऊँ"

सुशीला को कुछ ना सूझा तो रमा के गाल पर एक चाँटा रशीद करते हुए चीखी 

"खबरदार जो मरने की बात की तूने.."

"भूरे जंगली जानवर है बुआ...रोज रोज मरने से अच्छा मुझे एक बार मर जाने दो..मर जाने दो" रमा बिलखकर बोली

सुशीला उसे अंदर कमरे में खींच कर ले गयी और बोली


"तुझे क्या लगता है...मैं अपने जीते जी तेरी शादी उससे होने दूँगी...इतना ही जान पाई अपनी बुआ को?"

सुशीला की बात सुन रमा थोड़ी सहज हुई, सुशीला ने आगे कहा


"अगर मैं अभी मना करती ...तो वो मेरा गला दबोच कर मार देता मुझे...और उठा कर ले जाता तुझे...फिर?...बोल क्या करती?...जैसे ही उसने पैसे निकालकर मेरे हाथ पर रखे...मेरे  इस दमाग में आया कि क्यों ना मरने से पहले हाथ पैर मार लिए जायें"

"कैसे.." रमा आंसू पोंछते हुए पूँछा

"जहाँ चिट्ठी भेजी है हमने...उस ठौर ठिकाने के अलावा कोई जगह नहीं हमारे लिए...

"वहाँ तो चिट्ठी पहुँची भी नहीं होगी अभी बुआ...शायद दो दिन  बाद पहुंचे फिर वो जवाब लिखेंगे तो हम तक उनकी चिट्ठी आते- आते आठ से दस दिन बीत जाएँगे...और व्याह ठीक आठवें दिन है" रमा डूबे स्वर में बोली

"तभी तो पैसे ले लिए..."

"मतलब?"

"मतलब ये रमा...हम आज ही इस घर से इस कस्बे से निकल जाएंगे"

"लेकिन जाएंगे कहाँ?"

"उसी पते पर...जहाँ चिट्ठी भेजी है"

"और उन्होंने मदद ना दी तो...और वहाँ तो...

"चुप रह...और सुन " सुशीला ने रमा को बीच में ही टोक दिया और बोलीं

"हम उसी पते पर जाएंगे....मेरा दिल कहता है वो मदद कर देंगे...और अगर उन्होनें मदद ना भी की तो कम से कम कहीं ठहराने के इंतजाम तो कर ही देंगे...तब कोई काम धंधा ढूंढ़ लेंगे ...तू तो पढ़ी-लिखी है...सुना है शहर में काम मिल जाता है..."

"बुआ (रमा भावुक होकर बोली ...फिर एकाएक उदास हो गयी) ...लेकिन..."

"लेकिन क्या ...?"

"कोई बहाना बनाकर ये पैसे ना लेती तो ज्यादा अच्छा  होता...कम से कम हमारी पीठ पीछे ये लोग ये तो नहीं कहते कि बात पक्की करके पैसे हड़प लिए और वादाखिलाफी कर दी"

"पढ़ी लिखी तो हो बिटिया रानी ...लेकिन दुनियादारी नहीं जानती..हम्म..चोर के घर से की गई चोरी...चोरी नहीं कहलाती रमा...अपने रुपयों में से लिए गए ये थोड़े से रुपये हमारे ही हैं..."

"हमारे ?" आश्चर्य से रमा ने दोहराया

"हाँ ..मेरे भाई के। तेरे पिता के...जो इन लोगों ने चालाकी से लूट लिए...और जब तक हमें शहर में कोई काम धंधा नहीं मिलेगा यही पैसे हमारे बहुत काम आएंगे ..." बुआ अपनी बात खत्म कर जब गर्व से फूली तो प्रभावित होकर रमा उनके गले से लिपट गयी

"मुझे माफ़ कर दो बुआ, तुम मुसीबत से निकलने की इतनी जुगत लगा रही थी...और मैंने जाने क्या-क्या सोच लिया और इतना उल्टा सीधा बोल दिया" रमा भावुक होकर बोली


"कोई बात नहीं .. मैं तुझसे कतई नाराज नहीं हूँ...परिवार है तो तू, सहारा है तो तू, और कौन है तेरे सिवाय मेरा?..और फिर जब मुसीबत सिर पर आती है ...तो जुगत लगानी ही पड़ती है...अच्छा सुन! चार ..पांच रोटियाँ ज्यादा बना ले रास्ते के काम आएगी " सुशीला उसे दुलारते हुए बोलीं..


और रमा जल्दी से काम में लग गयी।


"ठीक है बुआ .लेकिन .निकलेंगे कैसे?" जले हुए बैंगन कढ़ाही से निकालते हुए रमा ने पूँछा


"तेरी इसी साइकिल से कस्बे से बाहर निकल चलेंगे..फिर साइकिल वहीं छोड़कर शहर जाने वाली बस पर बैठकर  शहर चले जायेंगे..." सुशीला सारा दिमाग लगाते हुए बोलीं


"साइकिल छोड़ देंगे?' रमा ने चिंतित होकर दोहराया ..पूरे घर मे यही  साइकिल सबसे बड़ी सम्पत्ति थी..इसलिए साइकिल छोड़ने की बात से उसका चिंतित होना लाज़िमी था


"देख रमा, साइकिल का मोह ..रोड़ा बन सकता है हमारा...अभी तो सबसे जरूरी हमारा बचना है और सुन कोई सामान लेकर नहीं जायेंगे ...किसी ने देख लिया तो मुसीबत हो जाएगी...  " सुशीला उसे समझाते हुए बोलीं

"हम्म...सामान है भी क्या बुआ"...

"कपड़ा-लत्ता तो हैं ना.." सुशीला ने अपने हाथ पोंछ्ते हुआ कहा,


भला अब इन फटे चीथड़े को कपड़े कौन कहेगा? बुआ भी ...रमा खिसियाती सी मुस्कराई

सुशीला उन्हीं जले बैंगन की सब्जी से रोटी खाने लगीं


फिर रमा ने भी खाना शुरू किया....बाद में एक कपड़े में कुछ रोटियां लपेटी...और दोंनो साइकिल से कस्बे से बाहर निकल गयीं

***

" कोई दवे पाँव मेरे जीवन में रंग भरे जाता है.. मुझे देख देख मुस्काता है,लेकिन...लेकिन...लेकिन...उहम्म...तुकबंदी नहीं बन रही " खिड़की के पास बैठे माधव ने बुदबुदाते हुए पेज फाड़ा और कमरे की खिड़की के बाहर फेंक दिया।…

फिर उगते सूरज को देखते हुए मुस्कुराया और कुछ कागज़ पर लिख दिया।


"माधव भईया...." सीढियों से ही वंशी ने तेज़ आवाज लगा दी...तो माधव के चेहरे पर मुस्कान और फैल गयी

"सही समय पर आए तुम वंशी...एक बढ़िया सी चाय तो पिलाओ " जैसे ही कमरे के दरवाजे पर वंशी पहुँचा, माधव ने चाय की फरमाइश कर दी

"अरे भईया..चाय बाद में...पहले नीचे चल कर देखो कोई दो लोग मालिक  को पूछते हुए आये हैं"

"कौन लोग?"

"पता नहीं ...कभी देखा नहीं पहले...एक महिला है और साथ में कोई लड़की भी है "

"अच्छा...चलो देखते हैं" कहते हुए माधव कुर्सी से उठा और नीचे जाने वाली सीढ़ियों से उतरते हुए दरवाजे तक आ गया..वंशी उसके पीछे हो लिया, हाथ में एक छोटी सी पोटली पकड़े जब सुशीला ने माधव को देखा तो नमस्ते की मुद्रा में हाथ जोड़ दिए। बदले में माधव ने भी हाथ जोड़कर अभिवादन किया।


"कहिए...किससे मिलना है आपको..." माधव ने पूँछा

"धीरेन्द्र भाईसाब से...." सुशीला ने याचना भरे स्वर में कहा...माधव कुछ देर चुप रहा फिर बोला

"मैं उनका बेटा हूँ...मुझसे कहिए "

"मुझे उन्हीं से बात करनी है...भाईसाब जानते हैं मुझे"

"मुझे ये कहते हुए अफसोस हो रहा है ..उनका स्वर्गवास हो गया है"

"हें...कब?" सुशीला ने आश्चर्य से मुँह पर हाथ रख लिया

"एक साल हो चुकी है...वैसे आप कैसे जानती हैं उन्हें"

"महर्षि अनाथालय में वो अक्सर दान करने जाते थे..."

"हाँ ..हॉं ...."

"मैं उसी आश्रम में रहती थी ...वहीं एक दिन भाईसाब कोई हिसाब किताब लिख रहे थे..तभी एक सांप ने उन्हें काट लिया  मुझे साँप का जहर उतारना आता है...मैंने उस सांप के जहर को उतारा था..."

"ओह्ह...तो वो आप थीं...हाँ पिताजी ने मुझे बताया था इस बारे में" माधव खुश होकर बोला

"हाँ...तभी उन्होंने कहा था कि जब भी मुझे कोई जरूरत होगी  वो एक भाई की तरह मेरी मदद करेंगे... मैंने कल ही एक चिट्ठी भेजी थी यहाँ के लिए...लेकिन हालात कुछ ऐसे बने कि आज ही आना पड़ गया..." बोलते हुए उदास हो गईं सुशीला

"कहिए क्या समस्या है आपकी...?"

"वहाँ जो प्रधान है.... मातादीन,  उसने चालाकी से मेरे स्वर्गवासी भाई से जमीन और घर अपने नाम करा लिया है...और अब वो जबर्दस्ती अपने आवारा और निकम्मे बेटे से मेरी रमा की शादी करवा रहा है.." 


इतना बोल वो अपने पीछे छिपी रमा से बोलीं " रमा नमस्ते तो कर"


 इतना सुन रमा सुशीला की ओट से बाहर निकली और नमस्ते की मुद्रा में उसने माधव के सामने हाथ जोड़ दिए

"इसीलिए हमें वहाँ से भाग कर आना पड़ा" सुशीला पोटली संभालती हुई बोलीं, माधव की नजर रमा पर पड़ी...पैरों में हवाई चप्पल और चप्पलों तक सरक आया लाल दुपट्टा...लाल दुपट्टे को देख कर माधव को खुद का सपना याद हो आया…


रमा की कमर तक गुथी हुई चोटी आगे की ओर लटकती हुई झूल रही थी और उसी चोटी पर रमा का बांया हाथ जिसमें दो हरे कांच की चूड़ियाँ थी.... माधव की नजर अब रमा के नमस्ते बोलते हुए  होंठ...फिर सुतवां  नाक और फिर आँखो पर रुक गयी...जो झुकीं हुईं थीं


"काश ये पलकें उठे...उठ जाएं .." ना जाने क्यो माधव ने मन ही मन कहा और अगले ही पल उसकी ये इच्छा पूरी हो गयी...रमा ने अपनी पलके उठा दीं...और माधव ने उसकी चमकदार काली आँखो देखी....और रमा ने साँवले रंग के औसत नैन नक्श, इकहरे बदन वाले बेहद सौम्य और शांत माधव को....फिर जल्दी से उसने नजरें झुका लीं......


लेकिन माधव अब भी उसकी ही ओर देख रहा था...  रमा की नजर बापस  माधव की ओर उठी और जब उसने माधव को खुद की ओर ही देखते हुए पाया...तो वो शरमा गयी.....

और रमा को शरमाते देख माधव भी मुस्कुरा दिया…

और दोनों इस बात से अन्जान कि सुशीला की नजर उन दोनों पर ही थी

..................क्रमशः...............