इतिहास के पन्नों से 16
भाग -16 क्या हिमालय में मौजूद परमाणु जासूसी उपकरणों ने भारत में आई बाढ़ को उकसाया?
नोट - ‘ वैसे तो इतिहास अनंत है ‘ लेख में इतिहास की कुछ घटनाओं के बारे में पहले प्रकाशित भागों में उल्लेख है, अब आगे पढ़ें …
हालांकि इस बात को इतिहास का हिस्सा नहीं कहा जा सकता है क्योंकि यह सात दशक से भी कम समय की बात है . इस पर अनेकों बार भिन्न समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में चर्चा हो चुकी है . इस आलेख का आधार मुख्यतः BBC का फरवरी 2021 का लेख है . इसके अतिरिक्त अन्य पत्रिकाओं / समाचार पत्रों में भी इस विषय पर चर्चा हुई है - मेटा फ़िल्टर -13 . 12 . 2025 और , La voice di New York - 13 . 12 . 2025 . , इंडिया टुडे आदि . वैसे समय समय पर इस विषय पर अन्य समाचार पत्रों / पत्रिकाओं में चर्चा होती रही है . न्यू यॉर्क टाइम्स ने भी अपने 13 दिसंबर 2025 में “ How did the C.I.A. lose a nuclear device in the Himalayas? ( CIA ने परमाणु उपकरण कैसे खो दिया ? )“ पर लिखा है .
शीत काल के दौरान चीन द्वारा अक्टूबर 1964 में प्रथम परमाणु परीक्षण ही इस अभियान का कारण था -
BBC के अनुसार कहानी इस प्रकार है - ( यथासंभव अनुवाद )
क्या हिमालय में मौजूद परमाणु जासूसी उपकरणों ने भारत में आई बाढ़ को उकसाया?
नंदा देवी प्लूटोनियम मिशन यह संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा चलाया गया एक संयुक्त अभियान था -अमेरिकी केंद्रीय खुफिया एजेंसी (CIA ) और भारतीय आसूचना ब्यूरो(IB ) द्वारा परमाणु विकास पर जासूसी करना . इन एजेंसियों ने अक्टूबर 1965 में एक न्यूक्लियर संयंत्र स्थापना के लिए सहयोग किया . परमाणु संचालित रिमोट उपकरण को उत्तराखंड में गढ़वाल हिमालय नंदा देवी के शिखर पर लगाना था हालांकि यह विफल हो गया . प्लूटोनियम संचालित रेडियो आइसोटोप थर्मोइलेक्ट्रिक जनरेटरभयंकर हिमपात के कारण पहाड़ों में खो गया था जो आज तक नहीं मिल सका है .
भारतीय हिमालय के एक गांव रैनी में पीढ़ियों से निवासी यह मानते आए हैं कि परमाणु उपकरण ऊपर स्थित विशाल पहाड़ों में बर्फ और चट्टानों के नीचे दबे हुए हैं . इसलिए जब फरवरी की शुरुआत में रैनी में भीषण बाढ़ आई, तो ग्रामीणों में दहशत फैल गई और अफवाह फ़ैल गयी कि उपकरण "विस्फोट" हो गया था और इसने प्रलय को जन्म दिया . वास्तव में, वैज्ञानिकों का मानना है कि एक टूटे हुए हिमनद का टुकड़ा उत्तराखंड राज्य में आई बाढ़ के लिए जिम्मेदार था, जिसमें 50 से अधिक लोगों की मौत हो गई थी और अनेक लापता थे . हालांकि वैज्ञानिकों के अनुसार ग्लेशियर का टूटना था पर इस बात पर इस गाँव वालों को यकीन नहीं था . रैनी के मुखिया के अनुसार इन उपकरणों की इसमें भूमिका हो सकती है क्योंकि सर्दियों में ग्लेशियर यूं ही कैसे टूट सकता है और सरकार को इसकी जांच करनी चाहिए .
यह कहानी इस बारे में है कि कैसे अमेरिका ने 1960 के दशक में भारत के साथ मिलकर परमाणु ऊर्जा से चलने वाले निगरानी उपकरण स्थापित किए ताकि हिमालय के पार चीन के परमाणु परीक्षणों और मिसाइल प्रक्षेपणों पर जासूसी की जा सके .
"शीत युद्ध का डर अपने चरम पर था . कोई भी योजना बहुत अजीब नहीं थी, कोई भी निवेश बहुत बड़ा नहीं था और कोई भी साधन अनुचित नहीं था," अमेरिका की रॉक एंड आइस पत्रिका के एक सहयोगी संपादक पीट ताकेडा ने टिप्पणी की, उन्होंने इस विषय पर व्यापक रूप से लिखा है .
अक्टूबर 1965 में, भारतीय और अमेरिकी पर्वतारोहियों के एक समूह को निगरानी उपकरणों के साथ सात प्लूटोनियम कैप्सूल - जिसका वजन लगभग 57 किलोग्राम (125 पाउंड) था - को ऊपर ले जाकर स्थापित करना था . इस डिवाइस को भारत की दूसरी सबसे ऊंची चोटी, 7,816 मीटर (25,643 फीट) ऊंची नंदा देवी के शिखर पर रखा जाना था, जो भारत की चीन के साथ उत्तर-पूर्वी सीमा के निकट स्थित है .
बर्फीले तूफान के कारण पर्वतारोहियों को शिखर से पहले ही चढ़ाई छोड़नी पड़ी . नीचे उतरते समय वे अपने उपकरण - छह फुट लंबा एंटीना, दो रेडियो संचार सेट, एक पावर पैक और प्लूटोनियम कैप्सूल - एक "प्लेटफॉर्म" पर ही छोड़ गए .
एक पत्रिका ने बताया कि उन्हें पहाड़ की ढलान पर एक सुरक्षित जगह पर छोड़ दिया गया था, जो हवा से सुरक्षित था . प्रमुख सीमा गश्ती संगठन में कार्यरत और इस अभियान में भारतीय दल का नेतृत्व करने वाले प्रसिद्ध पर्वतारोही मनमोहन सिंह कोहली ने कहा, "हमें नीचे आना पड़ा , अन्यथा कई पर्वतारोही मारे जाते . "
जब पर्वतारोही अगली वसंत ऋतु में उस उपकरण को खोजने और उसे वापस शिखर पर ले जाने के लिए पहाड़ पर लौटे, तो वह गायब हो चुका था . आधी सदी से भी अधिक समय बीत जाने और नंदा देवी में कई बार खोजबीन करने के बाद भी, किसी को नहीं पता कि उन कैप्सूलों का क्या हुआ .
"आज तक,खोया हुआ प्लूटोनियम संभवतः एक ग्लेशियर में मौजूद है , श्री ताकेडा ने लिखा, "शायद धूल में मिल जाने के कारण, यह गंगा के उद्गम स्थल की ओर रेंग रहा है . "
वैज्ञानिकों का कहना है कि यह अतिशयोक्ति हो सकती है , प्लूटोनियम परमाणु बम का मुख्य घटक है . लेकिन प्लूटोनियम बैटरियों में प्लूटोनियम-238 नामक एक भिन्न समस्थानिक (रासायनिक तत्व का एक प्रकार) का उपयोग किया जाता है, जिसकी अर्धायु (किसी रेडियोधर्मी समस्थानिक के आधे भाग के क्षय होने में लगने वाला समय जिसे half life कहते हैं ) 88 वर्ष है . जो बचा है, वह एक रोमांचक अभियान की कहानियां हैं .
ब्रिटिश यात्रा लेखक ह्यू थॉम्पसन ने अपनी किताब 'नंदा देवी: ए जर्नी टू द लास्ट सैंक्चुअरी' में बताया है कि कैसे अमेरिकी पर्वतारोहियों को अपनी त्वचा को काला करने के लिए भारतीय सनटैन लोशन का इस्तेमाल करने को कहा गया ताकि स्थानीय लोगों को उन पर शक न हो और कैसे पर्वतारोहियों को यह दिखावा करने को कहा गया कि वे अपने शरीर पर कम ऑक्सीजन के प्रभावों का अध्ययन करने के लिए "ऊंचाई वाले कार्यक्रम" पर हैं . परमाणु सामान ले जाने वाले कुलियों को बताया गया कि यह "किसी प्रकार का खजाना है, शायद सोना" .
इससे पहले, अमेरिकी पत्रिका 'आउटसाइड' की रिपोर्ट के अनुसार, पर्वतारोहियों को उत्तरी कैरोलिना में स्थित सीआईए के अड्डे हार्वे पॉइंट ले जाया गया था जहाँ परमाणु जासूसी का क्रैश कोर्स होता था , एक पर्वतारोही ने पत्रिका को बताया कि "कुछ समय बाद, हमने अपना अधिकांश समय वॉलीबॉल खेलने और जमकर शराब पीने में बिताया।"
अंततः नंदा देवी के बदले एक कुछ नीचे की छोटी नंदा कोट पर उपकरणों का एक समूह स्थापित किया गया .
भारत में इस असफल अभियान को 1978 तक गुप्त रखा गया था . जब तक कि...वाशिंगटन पोस्ट आउटसाइड द्वारा रिपोर्ट की गई कहानी को आगे बढ़ाते हुए, उन्होंने लिखा कि सीआईए ने अमेरिकी पर्वतारोहियों को काम पर रखा था, जिनमें माउंट एवरेस्ट पर हाल ही में सफलतापूर्वक चढ़ाई करने वाले पर्वतारोहियों के सदस्य भी शामिल थे, ताकि चीन पर जासूसी करने के लिए हिमालय की दो चोटियों पर परमाणु ऊर्जा से चलने वाले उपकरण लगाए जा सकें .
अखबार ने पुष्टि की है कि पहला अभियान 1965 में उपकरण के खो जाने के साथ समाप्त हुआ, और "दूसरा प्रयास दो साल बाद हुआ और एक पूर्व सीआईए अधिकारी के अनुसार यह "आंशिक सफलता" के साथ समाप्त हुआ . "
1967 में, नंदा कोट ( नंदा देवी से नीचे का शिखर ) नामक एक निकटवर्ती और आसान 6,861 मीटर (22,510 फीट) ऊंचे पर्वत पर नए उपकरण लगाने का तीसरा प्रयास सफल रहा . कुल 14 अमेरिकी पर्वतारोहियों को तीन वर्षों में हिमालय में जासूसी उपकरण लगाने के लिए प्रति माह 1,000 डॉलर का भुगतान किया गया था .
अप्रैल 1978 में, भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई के काल में संसद में एक बड़ा खुलासा हुआ जब उन्होंने बताया कि भारत और अमेरिका ने नंदा देवी पर इन परमाणु-संचालित उपकरणों को स्थापित करने के लिए "उच्च स्तर" पर सहयोग किया था . लेकिन देसाई ने यह नहीं बताया कि मिशन कितना सफल रहा .
अमेरिकी विदेश विभाग द्वारा जारी गोपनीय जानकारी केवल उसी महीने की खबरों में दिल्ली में दूतावास के बाहर लगभग 60 लोगों द्वारा "भारत में कथित सीआईए गतिविधियों" के विरोध में प्रदर्शन करने की बात कही गई है . प्रदर्शनकारियों ने "सीआईए भारत छोड़ो" और "सीआईए हमारे पानी को दूषित कर रही है" जैसे नारे लिखे हुए बैनर पकड़े हुए थे .
हिमालय में लापता परमाणु उपकरणों के बारे में किसी को ठीक से पता नहीं है कि उनका क्या हुआ . अमेरिकी पर्वतारोहियों में से एक जिम मैकार्थी ने श्री ताकेदा को बताया, "हां, उपकरण हिमस्खलन में फंस गया और ग्लेशियर में अटक गया, और भगवान ही जाने इसके क्या परिणाम होंगे ."
पर्वतारोहियों का कहना है कि रैनी में एक छोटा सा केंद्र नियमित रूप से नदी के पानी और रेत की रेडियोधर्मिता की जांच करता था, लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि उन्हें संदूषण का कोई सबूत मिला या नहीं .
"जब तक प्लूटोनियम [पावर पैक में रेडियोधर्मिता का स्रोत] नष्ट नहीं हो जाता, जिसमें सदियाँ लग सकती हैं, तब तक यह उपकरण एक रेडियोधर्मी खतरा बना रहेगा जो हिमालय की बर्फ में रिस सकता है और गंगा के उद्गम स्थल के माध्यम से भारतीय नदी प्रणाली में प्रवेश कर सकता है," आउटसाइड ने रिपोर्ट किया था।
मैंने 89 वर्षीय कप्तान कोहली से पूछा कि क्या उन्हें उस अभियान का हिस्सा होने का पछतावा है, जिसके परिणामस्वरूप हिमालय में परमाणु उपकरण छोड़े गए थे। , उन्होंने कहा, "मुझे कोई पछतावा या खुशी नहीं है। मैं तो बस आदेशों का पालन कर रहा था।"
18.4.20 15 के लेख में मिंट ने लिखा ( यथासंभव अनुवादित एक अंश )
“ जब वे मई 1966 में लौटे, तो सारा उपकरण - जिसमें प्लूटोनियम का घातक भंडार भी शामिल था, जो कोहली के अनुसार "हिरोशिमा पर गिराए गए परमाणु बम के आकार का लगभग आधा" था - गायब था। यह कभी नहीं मिला . कई तरह के सिद्धांत और आशंकाएं प्रचलित हैं, लेकिन किसी को भी ठीक से पता नहीं है कि आखिर हुआ क्या था .
कप्तान कोहली और अन्य अनुमानों के अनुसार, प्लूटोनियम कैप्सूल सौ साल से अधिक समय तक टिक सकते हैं, और ये अभी भी कहीं बर्फ में दबे हो सकते हैं . एक संभावना यह भी है कि वे हिमस्खलन में खो गए , यह क्षेत्र दशकों से लगभग बंद है . सेना या आईएमएफ द्वारा प्रायोजित अभियानों जैसे कुछ अपवादों को छोड़कर, पर्यावरण कारणों से किसी को भी नंदा देवी पर्वत पर चढ़ने या उसका अन्वेषण करने की अनुमति नहीं है . “
अन्य समाचार के अनुसार
“ छह दशक बाद 92 वर्ष की आयु में श्री मैकार्थी अपनी आवाज में उमड़ रही भावनाओं को मुश्किल से ही नियंत्रित कर पा रहे थे जब उन्होंने उस घटना का वर्णन किया . “ गंगा में गिरने वाले ग्लेशियर के पास प्लूटोनियम नहीं छोड़ा जा सकता “ उन्होंने कोलराडो के रिजवे स्थित अपने लिविंग रूम से चिल्लाते हुए कहा “ क्या आपको पता है कि कितने लोग गंगा पर निर्भर हैं . “ ऐसा कदाचित टीम के अमेरिकी सदस्य जिम मैकार्थी ने कप्तान कोहली से कहा था . “
11 जून 2025 को मैकार्थी का निधन हो गया .
वैसे देखा जाय तो 1962 में चीन से युद्ध के बाद चीन की सामरिक गतिविधियों पर नजर रखने के लिए यह अभियान भारत के हित में था .
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