कबीर उठा और बाहर गया।
बरामदे में खून की एक बूंद टपकी हुई थी…
और वहाँ पड़ा था — वही लिफ़ाफ़ा।
उसने उठाया —
अंदर लिखा था,
“अब सिर्फ़ नैना नहीं… तुम भी मेरे खेल का हिस्सा हो।”
कबीर ने मुट्ठी भींची।
“आर्यन… अब खेल खत्म होगा।”
---
रात में, नैना कबीर के पास आई।
“मैंने आज सपना देखा… आर्यन मुझे बुला रहा था।”
कबीर ने उसे कसकर थाम लिया,
“अब कोई तुम्हें छू नहीं पाएगा।”
पर बाहर, हवा में जैसे कोई ठंडी हँसी गूँज उठी।
पर्दे हिलने लगे, और मोमबत्ती बुझ गई।
नैना ने कबीर को कसकर पकड़ लिया।
“कबीर… क्या वो सच में यहाँ है?”
कबीर ने बस एक बात कही —
“अगर वो जिंदा है… तो अब उसकी ज़िंदगी मैं खुद खत्म करूँगा।”
---
लेकिन उसे नहीं पता था —
सच उससे कहीं गहरा है।
क्योंकि उसी वक्त, कमरे की खिड़की पर एक परछाई थी —
जिसका चेहरा कबीर जैसा ही था।
और वो मुस्करा रहा था।
(मोहब्बत कभी आसान नहीं होती — ख़ासकर जब दिल को इजाज़त माँ से लेनी पड़े)
---
सुबह की धूप पर्दों से छनकर कमरे में उतर रही थी।
कॉफी की खुशबू हवा में फैली थी और नैना बालकनी में बैठी थी —
हाथ में किताब, लेकिन नज़रें कहीं दूर थीं।
कबीर चुपचाप उसके पास आया।
उसने धीरे से उसके कंधे पर हाथ रखा,
“पढ़ रही हो या सोच रही हो?”
नैना मुस्कराई,
“जब इंसान मोहब्बत में होता है, तो किताबें भी सोच बन जाती हैं।”
कबीर हँस पड़ा —
“तो क्या तुम सोच रही हो या मोहब्बत में हो?”
नैना ने उसकी ओर देखा —
“शायद दोनों… पर अभी बस इकरार बाकी है।”
कबीर ने उसकी आँखों में झाँका।
वो पल दोनों के बीच ठहर गया —
जैसे वक्त भी झुककर उस एहसास को सलाम कर रहा हो।
---
दोनों चुपचाप बैठे रहे,
बाहर बारिश की हल्की बूँदें गिर रही थीं,
और भीतर किसी अनकहे इकरार की आवाज़ गूँज रही थी।
कबीर ने धीरे से कहा,
“नैना, कभी-कभी लगता है तुम मेरी ज़िंदगी की वो कहानी हो… जो अधूरी लिखी रह जाती तो शायद मैं भी अधूरा रह जाता।”
नैना ने बस मुस्कुराकर कहा,
“और कभी-कभी लगता है, तुम वो इंसान हो जो अधूरी कहानी को ख़ूबसूरत अंजाम देना जानते हो।”
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शाम को दोनों समुद्र किनारे टहल रहे थे।
लहरें पैरों से टकरा रही थीं, आसमान गुलाबी था।
नैना बालों को पीछे करती हुई बोली,
“कबीर, कभी डर नहीं लगता? कि कहीं ये सब बस एक सपना न हो?”
कबीर ने उसका हाथ थाम लिया,
“अगर सपना है, तो मैं चाहता हूँ ये कभी टूटे नहीं।”
नैना चुप रही, फिर बोली,
“मैंने बहुत कुछ खोया है कबीर… अब डर लगता है किसी को पाने से।”
कबीर ने उसकी आँखों में झाँकते हुए कहा,
“इस बार कोई तुम्हें खोने नहीं देगा।”
उसने नैना का चेहरा अपनी हथेलियों में लिया,
“मुझे तुमसे शादी करनी है।”
नैना की साँस थम गई —
वो चाहती थी ये लफ़्ज़ सुने, पर इतना सीधे नहीं।
“कबीर… तुम पागल हो क्या?”
वो मुस्कराई, लेकिन उसकी आँखें भर आईं।
कबीर ने कहा,
“हाँ, मोहब्बत में थोड़ा-बहुत पागलपन ज़रूरी होता है।”
---
अगली सुबह कबीर ने फ़ैसला कर लिया था —
वो माँ से बात करेगा।
कबीर की माँ, शालिनी मल्होत्रा,
एक सशक्त, सुसंस्कृत और आत्मविश्वासी औरत थीं।
वो समाज की नज़र से सोचती थीं,
नाम, रुतबा और खानदान — ये तीन चीज़ें उनके लिए सबसे अहम थीं।
कबीर घर पहुँचा, माँ पूजा की थाली सजा रही थीं।
वो उनके पास गया और बोला,
“माँ, मुझे आपसे एक बात करनी है।”
शालिनी मुस्कराई,
“इतनी गंभीर आवाज़ क्यों है बेटा? क्या कोई प्रपोज़ल मिला है?”
कबीर ने हल्की मुस्कान के साथ कहा,
“माँ, मैं किसी से शादी करना चाहता हूँ।”
शालिनी की आँखें चमक उठीं,
“सच? कौन है वो लड़की? मैं जानती हूँ क्या उसे?”
कबीर ने धीरे से कहा,
“शायद नहीं… उसका नाम नैना शाह है।”
कुछ सेकंड का सन्नाटा छा गया।
शालिनी का चेहरा बदल गया।
थाली में दीया काँप गया।
“नैना… शाह?” उन्होंने दोहराया।
कबीर बोला,
“हाँ माँ, वही… एक बहुत सच्ची, मेहनती और संवेदनशील लड़की है। मैं उससे—”
“बस!”
शालिनी ने तीखी आवाज़ में कहा।
“एक मुसलमान लड़की से शादी? क्या तुम्हें अंदाज़ा है तुम क्या कह रहे हो?”
कबीर ने शांत स्वर में कहा,
“माँ, प्यार धर्म नहीं देखता।”
शालिनी ने कटाक्ष से कहा,
“धर्म नहीं देखता, लेकिन समाज देखता है कबीर! और मैं भी इस समाज का हिस्सा हूँ।”
कबीर ने धीरे से कहा,
“मैं समाज के लिए नहीं जीता माँ, मैं उस इंसान के लिए जीना चाहता हूँ जिसने मुझे सिखाया कि मोहब्बत कैसे की जाती है।”
शालिनी ने दीवार की तरफ़ देखा,
“तुम्हारे पिता ने भी एक बार अपनी मर्ज़ी से फैसला लिया था… और मैं अब तक उसकी सज़ा भुगत रही हूँ।”
कबीर ने धीरे से माँ का हाथ थामा,
“माँ, ये सज़ा नहीं होगी, ये एक नई शुरुआत होगी।”
शालिनी ने हाथ झटक दिया,
“कबीर, तुम्हें अंदाज़ा है, मेरे दोस्त राजीव मेहता अपनी बेटी कृतिका का रिश्ता लेकर आने वाले हैं? वो लड़की जो बचपन से तुम्हें पसंद करती है।”
कबीर ने ठंडी साँस ली,
“वो मुझे पसंद करती है, पर मैं उसे नहीं। और ये ज़िंदगी मेरी है माँ, आपकी नहीं।”
शालिनी का चेहरा सख्त हो गया,
“जब बेटे अपने बड़ों की इज़्ज़त भूल जाते हैं, तो ज़िंदगी उन्हें बहुत महँगा सबक सिखाती है।”
कबीर ने कहा,
“अगर इज़्ज़त का मतलब किसी की ख़ुशी कुर्बान करना है, तो मैं वो सबक सीखने के लिए तैयार हूँ।”
वो पल भारी था —
माँ की आँखों में आँसू थे, बेटे के चेहरे पर दृढ़ता।
शालिनी बोलीं,
“ठीक है… करो शादी। लेकिन उस दिन से मेरा और तुम्हारा रिश्ता खत्म।”
कबीर चुपचाप वहाँ से चला गया।
---
रात को कबीर नैना के घर पहुँचा।
वो दरवाज़ा खोलते ही समझ गई —
उसकी आँखों में तूफ़ान है।
“क्या हुआ?” उसने पूछा।
कबीर ने बस कहा,
“माँ ने इंकार कर दिया…”
नैना ने उसका हाथ पकड़ा,
“मुझे पहले ही अंदाज़ा था। समाज की सोच इतनी आसानी से नहीं बदलती कबीर।”
कबीर ने उसकी आँखों में देखा,
“लेकिन मैं बदल जाऊँगा, अगर इसका मतलब तुम्हें खो देना है।”
नैना की आँखों में आँसू थे।
“नहीं कबीर, मैं नहीं चाहती तुम्हारे और तुम्हारी माँ के बीच दूरी आए। मैं वो वजह नहीं बनना चाहती।”
कबीर ने कहा,
“तुम वजह नहीं, मेरी मंज़िल हो।”
उसने नैना को गले से लगा लिया —
वो आलिंगन सिर्फ़ मोहब्बत नहीं, एक जंग की घोषणा थी।
---
अगले दिन,
शालिनी मल्होत्रा अपने पुराने दोस्त राजीव मेहता से मिलीं।
राजीव ने कहा,
“कबीर तो बहुत होनहार है। कृतिका उससे शादी को लेकर बहुत उत्साहित है।”
शालिनी ने बस हल्की मुस्कान दी,
लेकिन भीतर कुछ खलबली थी।
कबीर की बात उसके दिल में गूंज रही थी —
“मैं समाज के लिए नहीं जीता माँ…”
उस रात,
शालिनी अकेली अपने कमरे में बैठी थीं।
दीवार पर कबीर की बचपन की तस्वीर टंगी थी —
छोटा-सा, मासूम, उसके हाथ में टूटी पतंग, आँखों में चमक।
उनके गालों पर एक आँसू बह निकला।
“मैंने हमेशा तुम्हारे लिए सबसे अच्छा सोचा बेटा…”
---
उधर, कबीर और नैना एक मंदिर के पास मिले।
कबीर बोला,
“अगर माँ नहीं मानी, तो भी मैं तुम्हें नहीं छोड़ूँगा।”
नैना बोली,
“कबीर, मोहब्बत में ज़िद नहीं, समझदारी होनी चाहिए। अगर मैं सच में तुम्हें चाहती हूँ, तो मुझे तुम्हारी माँ का दिल जीतना होगा… ना कि तुम्हें उनसे छीनना।”
कबीर उसकी ओर देखता रह गया।
“तुम हमेशा सही कहती हो।”
नैना ने मुस्कुराकर कहा,
“मोहब्बत सिर्फ़ साथ रहने का नाम नहीं कबीर… ये इंतज़ार और भरोसे का नाम भी है।”
---
तीन दिन बीते।
शालिनी ने अचानक घर के दरवाज़े पर किसी को देखा —
वो नैना थी, हाथ में फूल लिए खड़ी।
“नमस्ते आंटी…” उसने धीमे स्वर में कहा।
शालिनी ने ठंडी निगाहों से देखा,
“तुम क्यों आई हो यहाँ?”
नैना ने विनम्रता से कहा,
“आपसे एक बार मिलना चाहती थी। आपके बेटे के लिए नहीं… आपके दिल के लिए।”
शालिनी चौंकी,
“क्या मतलब?”
नैना बोली,
“मैं जानती हूँ, आप अपने बेटे से बहुत प्यार करती हैं। और शायद उसी प्यार के डर से आप मुझे स्वीकार नहीं कर पा रहीं। लेकिन मैं आपको वादा देती हूँ… मैं कभी आपके बेटे को आपसे दूर नहीं करूँगी।”
शालिनी के चेहरे पर हल्की हैरानी थी।
नैना ने आगे कहा,
“मैं आपके संस्कारों की दुश्मन नहीं हूँ, आंटी… मैं बस उस इंसान से प्यार करती हूँ, जो आपके ही संस्कारों से इतना सच्चा बना है।”
कुछ पल की चुप्पी के बाद,
शालिनी ने सिर्फ़ इतना कहा,
“तुम जा सकती हो…”
नैना मुस्कुराई,
“धन्यवाद आंटी, शायद अगली बार मिलने पर मैं आपकी ‘बहू’ नहीं, बस एक बेटी की तरह आऊँ।”
वो चली गई।
शालिनी वहीं खड़ी रहीं…
उनके होंठों पर अनकही मुस्कान थी, आँखों में नमी।
---
रात को कबीर घर लौटा तो माँ दरवाज़े पर खड़ी थीं।
उन्होंने धीमे स्वर में कहा,
“वो लड़की आई थी आज।”
कबीर चौंका,
“नैना?”
शालिनी ने सिर हिलाया।
“वो बहुत अलग है… बाकी लड़कियों जैसी नहीं।”
कबीर बोला,
“माँ, मैं जानता हूँ। इसलिए तो वो मेरी ज़िंदगी है।”
शालिनी ने गहरी साँस ली और कहा,
“कबीर… अगर तुम्हें लगता है वो तुम्हें खुश रख सकती है, तो मैं तुम्हें रोकूँगी नहीं।”
कबीर के चेहरे पर खुशी की लहर दौड़ गई।
उसने माँ के कदम छुए —
“थैंक यू माँ!”
शालिनी ने उसके सिर पर हाथ रखा,
“बस याद रखना, मोहब्बत में इज़्ज़त हमेशा सबसे ऊपर होती है।”
---
उस रात कबीर ने नैना को फोन किया —
“नैना… माँ मान गईं।”
नैना की आँखों से आँसू बह निकले,
“सच?”
कबीर बोला,
“हाँ, अब हमारी कहानी को कोई नहीं रोक सकता।”
नैना ने कहा,
“अब मुझे कोई डर नहीं।”
कबीर मुस्कराया,
“क्योंकि अब हमारी मोहब्बत को माँ की दुआ मिल गई है।”
---
समुद्र किनारे, हवा में झूलते चाँद के नीचे
दोनों हाथों में हाथ डाले बैठे थे —
लहरें पैरों से टकरा रही थीं,
और वक्त ने शायद वहीं लिखा —
“अब इत्तेफ़ाक़ नहीं, मुकम्मल मोहब्बत।”
---
सुबह की धूप धीरे-धीरे नैना के कमरे में घुस रही थी।
नैना खिड़की पर खड़ी, अपने हाथ में चाय का कप लिए, सोच रही थी —
“कबीर की माँ को मैंने मनाया… लेकिन अब मेरी माँ का क्या होगा?”
नैना की माँ, शबनम शाह, एक सशक्त और थोड़ी कठोर महिला थीं।
उनके लिए परिवार और सामाजिक प्रतिष्ठा सबसे अहम थी।
नैना का कबीर से प्यार जानकर वे खुश भी थीं, लेकिन डर भी था कि कहीं बेटा उनकी बेटी को दुख न पहुँचाए।
शबनम ने धीरे-धीरे नैना को बुलाया —
“बेटी, आज शाम को तुम्हारे पिता से बात कर लें। मुझे लगता है अब वक्त आ गया है कि वे भी कबीर से मिलें।”
नैना ने सिर हिलाया।
“माँ, आप मुझे समझती हैं… मैं बस चाहता हूँ कि सब कुछ सही रहे।”
शबनम मुस्कुराईं,
“बेटी, सही और गलत तो कभी-कभी मोहब्बत तय करती है।”
---
शाम का समय आया।
कबीर और नैना हाथ में हाथ डाले शबनम के साथ नैना के घर पहुँचे।
दरवाज़ा खोलते ही नैना के पिता, सलीम शाह, मुस्कुराते हुए खड़े थे।
“कबीर बेटा, स्वागत है। बैठो, चाय बनती है।”
कबीर ने सिर झुकाकर कहा,
“धन्यवाद अंकल। मैं बस यही चाहता हूँ कि मैं नैना के परिवार का विश्वास जीत सकूँ।”
सलीम शाह ने हल्के मुस्कान के साथ कहा,
“बेटा, विश्वास धीरे-धीरे बनता है… और मैं देखना चाहता हूँ कि तुम्हारी मोहब्बत कितनी सच्ची है।”
नैना की आँखों में चमक थी,
कबीर ने उसकी हथेली अपने हाथ में लिया और कहा,
“मैं कभी नैना को अकेला नहीं छोड़ूँगा।”
शबनम ने भी मुस्कुराते हुए कहा,
“तो फिर, आज रात हम बस एक पारिवारिक मुलाकात करेंगे। प्यार तो बाद में अपने आप दिख जाएगा।”
---
मुलाकात शुरू हुई।
कबीर ने बड़े आदर से नैना के पिता से हाथ मिलाया।
सलीम शाह ने उसे देखकर कहा,
“कबीर बेटा, तुम्हारी आँखों में ईमानदारी है… लेकिन बेटा, प्यार में कभी-कभी झगड़े भी आते हैं।”
कबीर ने गंभीर स्वर में कहा,
“अंकल, मैं नैना की खुशी के लिए हर मुश्किल सह सकता हूँ। मेरे लिए उसका भरोसा सबसे बड़ी चीज़ है।”
नैना की माँ शबनम ने पूछा,
“लेकिन कबीर, क्या आप हमारे रीति-रिवाज समझेंगे? हमारी परंपराओं का आदर करेंगे?”
कबीर मुस्कुराया,
“माँ जी, मैं केवल उसे खुश रखना चाहता हूँ। और उसकी खुशी आपकी परंपराओं में भी है।”
नैना ने उसके कान में धीरे से कहा,
“देखा, मैं कहती थी न, मेरी मंज़िल सही हाथ में है।”
कबीर ने मुस्कुराकर उसका हाथ कसकर पकड़ लिया।
---
लेकिन खुशियों में हमेशा थोड़ी खट्टी-मीठी दिक्कतें आती हैं।
नैना के छोटे भाई, आरहान, को कबीर पसंद नहीं आया।
आरहान ने चौंकते हुए कहा,
“तुम दोनों बहुत अच्छे लगते हो… लेकिन क्या तुम मेरे परिवार के साथ ठीक रहोगे? क्या नैना की सुरक्षा और खुशी का ध्यान रखोगे?”
कबीर ने हँसते हुए कहा,
“आरहान, मैं तुम्हारे विश्वास के काबिल बनने के लिए हर दिन कोशिश करूँगा। बस मुझे एक मौका दें।”
आरहान ने अभी तक संतोष नहीं जताया।
“ठीक है… लेकिन मैं हमेशा देखता रहूँगा।”
---
अगले हफ़्ते, कबीर और नैना ने घर में छोटे-छोटे रोमांटिक पल बिताए।
सुबह की कॉफी साथ पीना
किताबों की बातें करना
रात में छत पर चाँद के नीचे खामोशी से बातें करना
लेकिन हर पल में थोड़ी सी झिझक और तनाव भी था।
क्योंकि उनके बीच अब माँ और पिता की मंज़ूरी भी थी।
नैना के पिता और भाई की निगाहें हर पल उन्हें महसूस कर रही थीं।
कबीर ने एक दिन नैना से कहा,
“नैना, कभी लगता है कि हम बस अपने प्यार की कहानी में खो जाएँ, दुनिया की बातों को भूल जाएँ?”
नैना ने उसकी आँखों में देखा,
“कबीर, मैं चाहती हूँ कि हम सबको साथ लेकर चलें… प्यार में भी सम्मान हो और समझदारी भी।”
कबीर ने सिर हिलाया,
“ठीक है, नैना। तुम्हारे साथ हर कदम सोच-समझ कर उठाऊँगा। लेकिन मेरा प्यार हमेशा सच्चा रहेगा।”
---
समय बीतता गया।
कबीर और नैना के बीच छोटे-छोटे झगड़े भी हुए,
कबीर का थोड़ा ज़िद्दी होना
नैना का परिवार के नियमों में उलझ जाना
कभी-कभी गलतफ़हमियाँ
लेकिन हर झगड़ा उनके प्यार को और मजबूत बना देता।
क्योंकि उन्होंने समझा कि प्यार सिर्फ़ इश्क़ नहीं, धैर्य, समझदारी और भरोसे का नाम भी है।
एक दिन, नैना की माँ ने कबीर से कहा,
“बेटा, मैं देख रही हूँ तुम्हारी सच्ची मोहब्बत। लेकिन याद रखना, प्यार में कभी-कभी दिल टूटता है… और उसे जोड़ना हमारी जिम्मेदारी है।”
कबीर ने हाथ जोड़कर कहा,
“माँ, मैं नैना का दिल कभी नहीं टूटने दूँगा। और आप इसकी गारंटी हैं।”
शबनम ने मुस्कुराकर सिर हिलाया,
“तो फिर, ये लड़के-लड़की अपने प्यार की दुनिया में आगे बढ़ें।”
---
रात को, कबीर और नैना अपने कमरे में बैठे थे।
कबीर ने धीरे से कहा,
“नैना, हमें अब सबके सामने अपनी मोहब्बत दिखानी पड़ेगी… बिना डर के।”
नैना ने उसके कंधे पर सिर रखा,
“कबीर, मैं तैयार हूँ। हम साथ हैं, और यही काफी है।”
कबीर ने मुस्कराया,
“हमारी कहानी अब सिर्फ़ हमारे लिए नहीं… अब ये दो परिवारों की कहानी भी है।”
और चाँद की रोशनी में,
उनकी मुस्कानें, उनके खामोश लफ्ज़, और हाथों की गर्माहट ने
सिर्फ़ प्यार ही नहीं, विश्वास और परिवार की समझदारी भी दिखा दी।
---
सुबह की हल्की धूप नैना के कमरे में धीरे-धीरे घुस रही थी।
लेकिन उस धूप के बीच भी उसके चेहरे पर चिंता की लकीरें साफ़ दिखाई दे रही थीं।
नैना की माँ, शबनम शाह, थोड़ी चिंतित और उदास स्वर में आईं।
“बेटी, तुम्हारे पिता आज कुछ ज़्यादा ही परेशान हैं। लगता है समाज की बातें उन्हें घेर रही हैं।”
नैना ने सिर झुकाया,
“माँ, मुझे डर नहीं लगता। कबीर के साथ मैं हर मुश्किल झेल सकती हूँ। पर पापा…”
शबनम ने धीरे से कहा,
“हाँ बेटा, वही… वे चाहते थे कि तुम खुश रहो, लेकिन अब समाज और अपने सम्मान का डर उन्हें परेशान कर रहा है।”
नैना ने बाहर देखा —
कबीर के चेहरे की मुस्कान अभी भी उसकी आँखों के सामने थी।
उसकी धड़कन तेज़ हो गई।
---
शाम को, नैना के पिता सलीम शाह ने अचानक पूरे परिवार को इकट्ठा किया।
नैना को हल्का डर सा लगा।
कबीर भी घर में था — लेकिन उसकी आँखों में कुछ अनकहा तड़प रहा था।
सलीम शाह ने गंभीर स्वर में कहा,
“नैना… कबीर… पहले मैं खुश था कि तुम दोनों का प्यार सच्चा है। लेकिन अब…”
वह ठहरे और सांस ली।
“…समाज और घर की प्रतिष्ठा को देखते हुए, मैं इस रिश्ते को मंज़ूरी नहीं दे सकता।”
कबीर की आँखों में अचानक आग सी भर गई।
“क्या?” उसने जोर से कहा,
“आप इसे रोक रहे हैं? क्यों? क्या नैना का प्यार और मेरा इकरार इतना कमज़ोर है कि समाज की एक झूठी परवाह से खत्म हो जाए?”
सलीम शाह ने धीरे से कहा,
“कबीर, ये बात केवल तुम्हारे प्यार की नहीं है। समाज का डर, रिश्तेदारों की बातें… सब मिलकर मेरे दिल को डरा रहे हैं। मैं इसे रोकने के लिए मजबूर हूँ।”
नैना की आँखों से आँसू छलक आए।
“पापा… पर आपने पहले माना था… आपने पहले…”
“हां, बेटी… मैंने माना था। लेकिन अब, घर और समाज का डर मुझे ये कदम उठाने पर मजबूर कर रहा है। तुम्हें घर से बाहर नहीं जाने दूँगा, और यह रिश्ता अब संभव नहीं।”
नैना का चेहरा अचानक बदल गया —
उसकी आँखें भरी हुई थीं, और हाथ कांप रहे थे।
“आप ऐसा नहीं कर सकते… आप मेरी ज़िंदगी, मेरी खुशियाँ, मेरे प्यार को क्यों छीन रहे हैं?”
कबीर उठ खड़ा हुआ।
उसकी आवाज़ में हौसले और गुस्से का संगम था।
“मैंने कभी नहीं सोचा था कि प्यार और इज्ज़त में इतनी दीवारें होंगी। नैना, तुम्हारे बिना मैं जिंदा नहीं रह सकता।”
सलीम शाह ने डाँटते हुए कहा,
“कबीर! शांत हो जाओ! ये तुम्हारा घर नहीं, मेरी बेटी का घर है। यहाँ नियम मेरे होंगे!”
कबीर के हाथ काँप रहे थे,
लेकिन उसकी आँखों में सिर्फ़ इकरार और पागलपन झलक रहा था।
वो बाहर निकलकर जैसे हवा में चिल्लाने लगा —
“मैं तुम्हें नैना से दूर नहीं होने दूँगा! मैं इस प्यार को कोई भी ताक़त खत्म नहीं कर सकती!”
---
रात को नैना अपने कमरे में बंद थी।
वो खिड़की से बाहर देख रही थी —
“कबीर… अब क्या होगा?”
कबीर घर के बाहर खड़ा था,
हवा उसकी शर्ट हिला रही थी।
वो चिल्लाया,
“नैना! सुनो… मैं तुम्हारे लिए सब सह जाऊँगा, चाहे दुनिया ही क्यों न मेरे खिलाफ़ हो!”
नैना ने आँखें बंद कीं।
“कबीर… अब बस भगवान ही हमारी मदद कर सकता है।”
---
अगले दिन, नैना के घर में और तनाव बढ़ गया।
सलीम शाह ने घर के सभी लोगों से कहा,
“इस लड़की को बाहर रखा जाएगा, और अब कोई भी इसे रोक नहीं सकता।”
नैना के छोटे भाई और कुछ रिश्तेदार डर और चिंता में थे।
लेकिन नैना ने अपने दिल की आवाज़ सुनी —
“मैं अपनी मोहब्बत के लिए खड़ी रहूँगी।”
कबीर ने सुनते ही घर में दाखिल हो गया।
उसकी आँखों में आग और प्यार की चमक थी।
“मैं उसे छुड़ा लूँगा। किसी की रोकथाम नहीं चलेगी!”
लेकिन नैना ने उसे रोका।
“कबीर… अब समझदारी का समय है। अगर हम गुस्से में कुछ करेंगे, तो सब खत्म हो जाएगा।”
कबीर ने सिर हिलाया,
“ठीक है, नैना… पर मैं अपने प्यार के लिए कोई भी रास्ता खोजूँगा। और तुम… तुम कभी अकेली नहीं रहोगी।”
---
इस दिन से, नैना को घर के भीतर कुछ पाबंदियाँ लगाई गईं —
वो घर की बालकनी में अकेली नहीं जा सकती थी।
उसका मोबाइल सीमित कर दिया गया।
कबीर से मिलने की छुप-छुप कर व्यवस्था करनी पड़ रही थी।
लेकिन हर पाबंदी, हर नियम, उसके प्यार को और मजबूत कर रहे थे।
कबीर ने तय किया कि वह नैना के लिए हर मुश्किल झेलेगा,
चाहे समाज, परिवार या दुनिया की कोई भी ताक़त उसके सामने आए।
और इसी बीच, दोनों के बीच हर मुलाक़ात में अब छोटे-छोटे रोमांटिक पल और खामोश मोहब्बत के एहसास भी उभरने लगे।
---
नैना के कमरे में, खिड़की के पास, कबीर धीरे-धीरे उसके पास आया।
“मैं जानता हूँ… सब मुश्किल है। लेकिन मैं तुम्हारे बिना जी नहीं सकता।”
नैना ने धीरे से उसका हाथ थामा।
“मैं भी नहीं, कबीर… मैं भी नहीं।”
और चाँद की रोशनी में,
दोनों की आँखों में आँसू और प्यार के संगम ने
समझा दिया कि सच्चा प्यार किसी भी पाबंदी या डर से हारता नहीं।
---
नैना के कमरे में रात का सन्नाटा था।
खिड़की से बाहर हवा हल्की चल रही थी और चाँद की रौशनी कमरे में फैल रही थी।
नैना अपनी बालकनी में बैठी थी, हाथ में किताब लिए, लेकिन उसकी आँखें कहीं दूर किसी ख्वाब में खोई हुई थीं।
तभी उसकी नजर खिड़की के बाहर एक हल्की परछाई पर पड़ी।
वो मुस्कराते हुए खड़ी थी।
“कबीर?” नैना ने धीरे से पूछा।
कबीर ने हँसते हुए कहा,
“हाँ, मैं ही हूँ… और तुमसे मिलना मेरा रोज़ का हक है।”
नैना ने सिर हिलाया।
“लेकिन अगर किसी को पता चल गया, तो…”
कबीर ने उसके हाथ को कसकर थामा।
“तो? मैं डरता नहीं नैना… और तुम्हें भी डरने नहीं दूँगा। हम बस अपने प्यार में सच्चाई और धैर्य रखेंगे।”
---
अगले हफ़्ते, कबीर और नैना ने गुप्त मुलाकातें शुरू कीं।
कबीर नैना के घर के पिछवाड़े के गार्डन में आता।
दोनों साथ बैठकर चाय पीते, बातें करते, और अपने सपनों की दुनिया बनाते।
कभी-कभी रात को छत पर चाँदनी में मिलते, जहाँ सिर्फ़ लहरों की आवाज़ उनके बीच गूँजती।
एक शाम, कबीर ने अपनी बाँहें नैना के चारों ओर रखीं।
“नैना… कभी सोचती हो, हमारी मोहब्बत इन सब पाबंदियों और डर के बावजूद इतनी मजबूत क्यों है?”
नैना मुस्कराई,
“शायद इसलिए कि प्यार सिर्फ़ मिलने का नाम नहीं, इंतज़ार और भरोसे का नाम भी है।”
कबीर ने उसकी आँखों में झाँकते हुए कहा,
“और मैं हर पल तुम्हारे भरोसे पर जीता हूँ।”
---
लेकिन घर के भीतर तनाव भी कम नहीं था।
नैना के पिता और भाई लगातार सोच रहे थे कि कबीर और नैना का प्यार कैसे रोका जाए।
फिर भी, नैना की माँ शबनम धीरे-धीरे महसूस कर रही थीं कि बेटी का प्यार सच्चा और मजबूत है।
वो अपने पति को समझाने लगीं —
“सलीम, हमें समझना होगा कि नैना की खुशी सिर्फ़ किसी नियम या डर से तय नहीं होती। प्यार उसकी ज़िंदगी का हिस्सा है।”
सलीम ने थोड़ी देर सोचा, फिर बोले,
“शायद… लेकिन कबीर का परिवार हमारी परंपराओं का सम्मान करेगा, ये मैं देखना चाहता हूँ।”
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कबीर ने अपने घर पर भी तैयारियाँ शुरू कर दीं।
वो अपनी माँ शालिनी के पास गया और कहा,
“माँ, मुझे अब सिर्फ़ नैना चाहिए। मैं हर मुश्किल झेलूँगा, पर उससे दूर नहीं जाऊँगा।”
शालिनी ने सिर हिलाया,
“बेटा, समझदारी से काम लो। परिवार और समाज का दबाव हमेशा रहेगा। पर अगर तुम्हारा प्यार सच्चा है, तो मैं भी उसकी कद्र करूँगी।”
कबीर ने आँखों में चमक लिए कहा,
“माँ, मैं केवल उसका दिल जीतना नहीं चाहता… मैं उसका भरोसा भी जीतना चाहता हूँ। यही मेरी जिम्मेदारी है।”
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एक दिन, नैना के पिता ने कबीर को बुलाया।
“बेटा, मैं देख रहा हूँ कि तुम सच्चे हो। लेकिन हमें अब धीरे-धीरे सबको विश्वास दिलाना होगा कि यह रिश्ता सही है।”
कबीर ने सिर झुकाया,
“अंकल, मैं सबको अपने प्यार की सच्चाई दिखाऊँगा। और नैना को कभी अकेला नहीं छोड़ूँगा।”
सलीम शाह ने मुस्कुराते हुए कहा,
“ठीक है, अगले महीने हम दोनों परिवार की मुलाकात करेंगे… और अगर सब ठीक रहा, तो हम सगाई की तैयारी शुरू करेंगे।”
नैना ने अपने कमरे में यह खबर पाते ही खुशी से चिल्लाई।
“कबीर… देखो! अब हमारी कहानी का नया अध्याय शुरू होने वाला है।”
कबीर ने उसे गले लगा लिया,
“हाँ नैना… अब सिर्फ़ प्यार, भरोसा और थोड़ी सी जंग बाकी है।”
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छोटे-छोटे इत्तेफ़ाक़ और रोज़मर्रा की परेशानियों के बीच,
कबीर और नैना ने हर दिन अपने प्यार को और मजबूत बनाया।
सुबह की चाय और किताबें
स्कूल और कॉलेज की यादें
घर की छोटी-छोटी नोक-झोंक
हर पल उनके बीच एक नज़दीकी की नई कहानी लिख रहा था।
नैना की आँखों में अब विश्वास था,
और कबीर की मुस्कान में उम्मीद।
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कबीर के कमरे की दीवार पर उसकी बचपन की तस्वीरें टंगी थीं।
लेकिन आज, तस्वीरों के पीछे उसका दिल धड़क रहा था — हलचल और गुस्से की।
उसने अपने आप से कहा,
“अब और नहीं… न जाने कितनी मुश्किलें झेल ली, लेकिन नैना अब भी मेरे बिना परेशान है। मैं माँ और पापा से ज़िद करूँगा। बस एक बार नैना के घर चलकर उसके पिता को मनाऊँगा।”
कबीर के कदम तेज़ थे।
वो अपने पिता, अरविंद मल्होत्रा, और माँ, शालिनी मल्होत्रा, के कमरे में गया।
“माँ, पापा… मुझे अब और इंतजार नहीं कर सकते। मैं नैना के घर जाऊँगा और उसके पिता को मनाऊँगा। बस मुझे एक मौका दें।”
शालिनी ने ठंडी नजरों से देखा।
“कबीर, तुम्हें लगता है हम इतने बड़े लोग होकर किसी और के घर रिश्ता लेकर जाएंगे? यह हमारी परंपरा और शान के खिलाफ़ है।”
कबीर की आँखों में आग झलकने लगी।
“माँ, शान और परंपरा तब मायने नहीं रखती जब प्यार सच्चा हो! क्या आप मेरी ज़िंदगी और नैना की खुशी से बड़ा कुछ समझती हैं?”
अरविंद मल्होत्रा ने धीरे से कहा,
“कबीर, हम तुम्हारे प्यार को समझते हैं… लेकिन ये समाज की दृष्टि और परिवार की प्रतिष्ठा भी तो मायने रखती है। हम इसे नजरअंदाज नहीं कर सकते।”
कबीर का चेहरा लाल हो गया।
“तो क्या आप मेरी खुशी को कुर्बान करना चाहते हैं? क्या नैना की खुशी आपके लिए कोई अहमियत नहीं रखती?”
शालिनी ने कटाक्ष भरी आवाज़ में कहा,
“हमारी उम्र और अनुभव यही कहते हैं कि हम इस कदम को कभी स्वीकार नहीं करेंगे। तुम समझदारी से सोचो।”
कबीर ने धीरे से कहा,
“समझदारी? समझदारी तब है जब इंसान अपने प्यार के लिए खड़ा हो। अगर आप नहीं मानेंगे, तो मैं इसे अकेले निभाऊँगा। लेकिन मेरी जिंदगी अधूरी रहेगी!”
मौन छा गया।
शालिनी की आँखों में झिझक थी, लेकिन मुंह से कुछ नहीं निकला।
अरविंद ने सिर हिलाया,
“ठीक है बेटा, अगर तुम इतने दृढ़ हो, तो एक बात याद रखना — परिवार और समाज की नज़रों में हमारी छवि भी मायने रखती है।”
कबीर ने गहरी साँस ली,
“मैं जानता हूँ, पापा… लेकिन नैना की मुस्कान से बढ़कर कुछ भी मायने नहीं रखता।”
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अगले दिन, कबीर घर छोड़कर नैना के घर जाने की तैयारी करने लगा।
नैना को जब खबर लगी तो उसके चेहरे पर चिंता और आशा दोनों झलक रही थी।
“कबीर… लेकिन अगर कुछ गलत हुआ तो?” उसने पूछा।
कबीर ने हाथ पकड़ा,
“नैना, अब डरने का समय नहीं है। मैं तुम्हारे लिए सब कुछ कर सकता हूँ। चाहे कोई भी रोकने की कोशिश करे, मैं पीछे नहीं हटूँगा।”
नैना ने सिर हिलाया,
“ठीक है… बस संभल कर जाना। मैं तुम्हारा इंतजार करूँगी।”
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लेकिन जैसे ही कबीर घर से बाहर निकला,
शालिनी ने तेज़ आवाज़ में कहा,
“कबीर! रुक जाओ! तुम कहीं नहीं जा रहे। हमारे परिवार की प्रतिष्ठा और हमारी शान की खातिर तुम ये कदम नहीं उठा सकते।”
कबीर ने मुट्ठी भींची,
“माँ, मैं आपकी बात समझता हूँ। लेकिन अब मेरी समझदारी प्यार से हार जाएगी। अगर आप नहीं मानेंगी, तो मैं खुद अपनी ज़िद पूरी करूँगा!”
शालिनी ने कड़ा स्वर लिया,
“हमारे परिवार के लोग और समाज हमें देखकर हमारी इज्ज़त का आंकलन करेंगे। तुम समझते नहीं कि ये कितनी बड़ी बात है?”
कबीर की आँखें नम हो गईं,
लेकिन गुस्से और प्यार की आग में उसने कहा,
“माँ… अगर नैना को कुछ भी हुआ, तो दुनिया की इज्ज़त और समाज की बातें मेरे लिए अर्थहीन हैं!”
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कबीर की ज़िद ने घर में हलचल मचा दी।
शालिनी ने अपने पति से कहा,
“देखो बेटा कितना अड़ गया है… शायद हमें प्यार के लिए और मजबूरी के लिए समझाना होगा।”
अरविंद ने भी सिर हिलाया,
“हाँ, लेकिन अब यह लड़ाई सिर्फ़ प्यार और परिवार की इज्ज़त के बीच है।”
कबीर ने अपनी जांघों पर हाथ रखा और कहा,
“मैं ना तो पीछे हटूँगा, ना डरूँगा। बस एक बार मुझे नैना के पिता से मिलने दो।”
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रात को, कबीर अकेले बालकनी में खड़ा था।
हवा उसकी शर्ट हिला रही थी और चाँदनी में उसका चेहरा गंभीर था।
“अब या कभी नहीं… मैं अपनी नैना के लिए सब कुछ झेल जाऊँगा। कोई रोक नहीं सकता।”
और उसी समय, नैना अपनी खिड़की से उसे देख रही थी।
उसकी आँखों में आँसू, लेकिन चेहरे पर विश्वास था।
“कबीर… अब बस तुम और मैं… और कोई नहीं।”
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(कभी-कभी जीत की राह ज़िद नहीं, समझदारी से होकर भी गुजरती है)
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कबीर उस शाम देर तक नहीं सो सका।
कमरे की खिड़की से बाहर शहर की रोशनी फीकी लग रही थी, पर उसके भीतर एक तेज़ रोशनी जल रही थी — एक कोशिश, एक तरीका, एक इरादा: “माँ-बाप को नैना के घर ले जाना।”
वो जानता था कि ज़िदबाज़ी से कुछ हासिल नहीं होगा — शालिनी की बातों में समाज और शान की चिंता गहरी बैठी थी। और अरविंद — शांत, पर परंपरा के पक्के — उनसे लड़ते ही क्या मिला? पर कबीर हार मानने वाला था नहीं। उसने मन में योजना बुनी — धीमी, संवेदनशील और प्रभावी।
सबसे पहले कबीर ने अपनी माँ और पिता के लिए एक-एक अलग कदम तय किए:
1. शालिनी के लिए — भावनात्मक पुल: शालिनी का दिल देखने की एक्स्ट्रा ज़रूरत थी। उसे दिखाना होगा कि नैना सिर्फ़ “किसी की लड़की” नहीं, बल्कि एक संस्कारी लड़की है जो शालिनी की इज्ज़त और परंपरा को समझेगी।
2. अरविंद के लिए — तार्किक और सामाजिक पुल: अरविंद को यह भरोसा देना था कि यह रिश्ता परिवार की प्रतिष्ठा को नुकसान नहीं पहुंचाएगा, बल्कि जोड़ देगा — क्योंकि नैना की पारिवारिक воспитан और समर्पण सच्चा है।
3. एक तटस्थ माहौल बनाना: दोनों परिवारों के लिए एक आधिकारिक, पर सम्मानजनक “मुलाकात” करानी थी — जहाँ कोई भी बहाना न बना सके और सच्चाई सामने आ जाए।
कबीर ने योजना पर काम शुरू किया — और इसे अकेले करने की बजाय उसने कुछ भरोसेमंद लोगों को शामिल किया: राहुल (पुराना यार), रुही (नैना की असिस्टेंट), और आदित्य (कबीर का दोस्त पुलिस में — सुरक्षा कारण से)। पर असली तैयारी थी दिल की — और कबीर इसे बहुत नम, विनम्र और इज्ज़त के साथ करना चाहता था।
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कबीर ने राहुल से कहा — “तू अपने गोवा-कॉन्टैक्ट से एक छोटी सी चैरिटी ड्राइव अरेंज करवा। हमें एक ‘हाउस-रिनोवेशन फॉर अन-एंडयूवर्ड’ जैसा प्रोजेक्ट चाहिए — और इसमें नैना ने इंटीरियर प्लान रखा है। हम इसे ‘नज़दीकियाँ’ नाम देंगे और दोनों परिवारों को इनवाइट करेंगे।”
राहुल बोला — “बिलकुल। पर शालिनी आन्टी को कैसे मनाऐंगे ?”
कबीर ने मुस्करा कर कहा — “वही दिल से।”
कबीर ने पिता से बात की।
“पापा, मैं नहीं चाहूँगा कि आप या माँ पर कोई दबाव पड़े। पर मैं चाहता हूँ कि आप एक बार सिर्फ़ आदमी की तरह देखो — नैना को, नहीं तो उस काम को जिसे वो कर रही है। अगर आपको लगे कुछ भी समस्या, तो मैं मान जाऊँगा। पर मुझे मौका चाहिए।”
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