tanhai-6 - last part in English Love Stories by Deepak Bundela Arymoulik books and stories PDF | तन्हाई - 6 (अंतिम भाग)

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तन्हाई - 6 (अंतिम भाग)

एपिसोड 6 
तन्हाई
हर प्रेम का अर्थ साथ नहीं होता, समझ भी होना होता हैं

सुबह की धूप खिड़की के पर्दों से छनकर कमरे में आई तो संध्या की आँखें खुलीं आज कुछ अजीब-सा सुकून था न वो बेचैनी, न कोई अधूरी प्रतीक्षा, बस एक धीमी-सी शांति, जैसे किसी लम्बे तूफ़ान के बाद समुद्र खुद को थाम लेता हैं।
टेबल पर अब भी अमर का ट्रांसफर लेटर रखा था संध्या ने उसे उठाया, देखा, और मुस्कुरा दी।
"तो अब सच में चले गए तुम...” उसने मन ही मन कहा, शब्दों में कोई कसक नहीं थी, बस एक स्वीकृति थी-
कि हर रिश्ता हमेशा साथ रहने के लिए नहीं होता, कुछ सिर्फ़ आत्मा को पहचान देने के लिए होते हैं।
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अब ऑफिस का खालीपन जो अब बोझ नहीं था, दिन सामान्य था, जैसे कुछ हुआ ही नहीं।
लोग काम में लगे थे, मीटिंग्स चल रहीं थीं
अमर की जगह पर अब कोई और बैठा था,
मगर उस सीट पर जैसे अब भी एक साया था अदृश्य, पर परिचित साया.
कर्मचारी धीरे से फुसफुसाते हैं-
"मैडम आज बहुत शांत लग रही हैं।”
"हाँ, जैसे किसी बोझ से मुक्त हो गई हों।”
संध्या अपने केबिन में बैठी रिपोर्ट देख रही थी,
पर मन में किसी रिपोर्ट की जगह अमर की मुस्कान घूम रही थी, वो मुस्कान जो अब स्मृति बन चुकी थी, पर ऐसी स्मृति जो दर्द नहीं, बल्कि शक्ति दे रही थी।
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दोपहर का समय था तभी संध्या के फोन पर अमर का अंतिम मैसेज आया उसने गहरी सांस लीं और मैसेज पढ़ा-
"मैम, आज ट्रेन में बैठा हूँ पहाड़ों की हवा ठंडी है, पर मन में गर्माहट है आपकी बातें, आपकी उपस्थिति सब कुछ जैसे मेरे भीतर एक अनुशासन बन गया है और मैंने ये भी जाना कि सच्चा प्यार वह नहीं जो किसी को पा ले,
बल्कि वो हैं जो किसी की गरिमा को समझे जो आपने मुझे सिखाया इसीलिए हमारा ये रिश्ता अधूरा नहीं हैं वह पूरा है, जहाँ हम एक-दूसरे को समझ पाए।”
संध्या की आँखें भर आईं उसने धीमे से फुसफुसाई-
"अमर, तुम चले तो गए… पर कुछ ऐसा छोड़ गए जो कभी नहीं जाएगा।”
उसने मैसेज के अंत में एक लाइन टाइप की 
"कभी लौटना मत भूलना, भले मिलने नहीं, पर उस स्मृति को ताज़ा रखेनें के लिए मैसेज करते रहना।”
लेकिन ये मैसेज उसने भेजा नहीं उसे ऐसा ही
'Drafts' में छोड़ दिया।
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संध्या शाम को अपने बंगले की छत पर आई
पहली बार उसने आसमान को बिना किसी वजह के देखा सूरज ढल रहा था, पर उसका मन नहीं ढल रहा था.
नीचे से नौकरानी ने पूछा, "मैडम, खाने में क्या बना दूँ?”
"नहीं... रहने दो रमा, आज मैं गार्डन कैफे जाउंगी।”
रमा ने हैरानी से देखा-“आप अकेले जाएँगी?”
संध्या मुस्कुराई, "हाँ… अब अकेलापन भी मेरा साथी है।”
और वो छत्त से निचे उतर आई और कार में बैठी, रेडियो ऑन किया गीत बज रहा था-
"कुछ तो है तुझसे राब्ता…”
उसके होंठों पर मुस्कान आ गई।
उसने महसूस किया, प्यार अब उसके भीतर था.
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एक सप्ताह बाद दोनों बेटों का आगमन हुआ
बंगले में हलचल थी दोनों बेटे विदेश से लौटे थे 
हँसी, रौनक, आवाज़ें, बंगले में काफ़ी अर्से बाद सब कुछ वापस लौट आया था।
"माँ, आपने घर कितना बदल दिया है!”
"बस थोड़ा-सा,”संध्या मुस्कुराई।
बड़ा बेटा बोला,
"माँ, आप बदली हुई लग रही हैं… ज़्यादा शांत, ज़्यादा खुश।”
संध्या ने बस इतना कहा,
" बेटा कभी-कभी वक्त हमें सिखा देता है कि खुशी किसी के आने में नहीं, बल्कि खुद को स्वीकार करने में होती है।”
बेटे ने गले लगाते हुए कहा,
"आप जैसी हैं, वैसे ही बहुत अच्छी लगती हैं माँ।”
संध्या की आँखों में एक चमक आ गई।
वो जानती थी, अब वो जो है अधूरी नहीं है।
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रात को जब सब सो गए, वो अपनी बालकनी में खड़ी हुई वही जगह जहाँ कभी तन्हाई उसे खा जाती थी, अब वही हवा उसे छूकर गुजर रही थी जो उसे शांति का एहसास दें रही थी।
उसने धीरे से आँखें बंद कीं।
मन ही मन बोली-
"अमर… अब मैं समझ गई हूँ, प्यार किसी का इंतज़ार नहीं, एक एहसास है जो भीतर टिक जाता है तुम चले गए, पर मेरा मन अब भी तुम्हारे पास है क्योंकि मैं अब खुद से प्रेम करनें लगी हूँ।”

एक दम से हवा का झोका आया जैसे कोई जवाब आया हो- "शायद ये प्यार गलत नहीं था, बस अधूरा था…”
संध्या मुस्कुराई- "और अब वही अधूरापन मेरी पूरी कहानी है," उसने कहा।
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अगली सुबह संध्या ऑफिस के लिए तैयार हुई,
आईने के सामने खड़ी होकर खुद को देखा चेहरे पर नर्म आत्मविश्वास।
वो आईने में अपने प्रतिबिंब से बोली-
"अब मैं किसी के लौटने की नहीं, अपने आगे बढ़ने की प्रतीक्षा कर रही हूँ।”
कार का दरवाज़ा बंद करते हुए उसने सूरज की ओर देखा- नया दिन, नया सवेरा।
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ऑफिस में नए अफ़सर से संध्या ने मुस्कुराकर कहां- "वेलकम टू द टीम," उसने कहा।
आवाज़ में अपनापन था, लेकिन अब किसी आकर्षण की छाया नहीं, सिर्फ़ स्नेह, सिर्फ़ गरिमा.
वो अब वही थी, पर बदली हुई, अब उसके अकेलेपन में स्मृति का सुकून था, न कि खालीपन का डर।
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शाम को घर लौटते वक्त आसमान में हल्की बारिश थी उसने कार रोक दी, और खिड़की से हाथ बाहर निकाल दिया बारिश की बूँदें हथेली पर गिरीं और वो मुस्कुराई- "हाँ… अब ये ज़िंदगी मेरी है।”
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कभी-कभी प्रेम साथ नहीं देता पर सार्थकता दे जाता है कभी कोई व्यक्ति चला जाता है पर वह एहसास ठहर जाता है जो बताता है कि
प्यार का अर्थ "मिलना" नहीं, बल्कि समझना है और ये बात संध्या अब समझ चुकी थी 
कि अधूरापन भी कभी-कभी पूरा एहसास होता है।

समाप्त 

नोट- पात्र, स्थान काल्पनिक हैं ये कहानी किसी भी जीवित या मृत व्यक्ति के व्यक्तिगत जीवन से किसी भी रूप में सम्बंधित नहीं हैं.