एपिसोड 1 –
तन्हाई
अकेलेपन की गूंज और अधूरी चाहतों की शुरुआत
शहर के सबसे शांत और प्रतिष्ठित इलाके में, सफ़ेद दीवारों वाला एक बंगला हर सुबह की तरह आज भी बेहद सलीके से सजा था। सामने की लॉन में माली रोज़ की तरह फव्वारे चालू कर चुका था, फूलों की क्यारियाँ हल्की धूप में मुस्कुरा रही थीं, लेकिन उस घर की खिड़कियों से आती हवा में एक ठहराव था… जैसे वहाँ कोई आवाज़ बहुत दिनों से गुम हो चुकी हो।
यह बंगला संध्या राठौर का हैं उम्र लगभग पैंतालीस। चेहरा अब भी उतना ही निखरा हुआ, जितना कभी शादी के शुरुआती दिनों में था, बस आँखों के नीचे हल्की लकीरों में वक्त की परछाइयाँ उतर आई थीं।
संध्या के पति, राजीव राठौर, एक ईमानदार और काबिल सरकारी अधिकारी थे। तीन साल पहले एक सड़क दुर्घटना में चले गए। उनके जाने के बाद विभाग ने संध्या को “सहानुभूति नियुक्ति”पर वही पद दे दिया था, और उस दिन से वो घर और ऑफिस दोनों संभाल रही थी। लेकिन कहीं भीतर से अब भी टूटी हुई थीं।
*सुबह का अकेलापन*
रोज़ की तरह आज भी सुबह के आठ बजे ड्राइवर ने कार बाहर खड़ी कर दी थी। नौकरानी रीना ने चाय टेबल पर रखी और बोली,
"मैडम, नाश्ता लगा दूँ?"
संध्या ने सिर हिलाया -
"नहीं रीना, बस एक टोस्ट और ब्लैक कॉफी।"
खाली डाइनिंग टेबल पर वो अकेली बैठी थीं -दो और कुर्सियाँ हमेशा की तरह खाली।
दीवार पर टँगी तस्वीरों में उसके दोनों बेटे अंकुर और अनमोल मुस्कुरा रहे थे- एक लंदन में, दूसरा मेलबर्न में। दोनों ने पिछले महीने वीडियो कॉल पर कहा था,
"माँ, आप वहाँ बिल्कुल अकेली हैं, आ जाइए हमारे पास।"
संध्या ने हँसते हुए जवाब दिया था-
"तुम लोगों के बचपन की खुशबू अब भी इस घर में है बेटा, उसे छोड़ नहीं सकती।"
लेकिन वो जानती हैं- अब वो खुशबू सिर्फ़ यादों में रह गई है।
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ऑफिस में संध्या का रौब और अनुशासन किसी मिसाल से कम नहीं था। हर फाइल, हर मीटिंग, हर निर्णय — सब कुछ बेहद सटीक था ऑफिस के लोग उन्हें "आयरन लेडी" कहते थे। पर हर रोज जब शाम ढलती, और बाकी सब अपने-अपने घर लौट जाते- तब उसकी आँखों के आगे सिर्फ़ खिड़की से झांकता आसमान रह जाता। कभी-कभी वो अपने टेबल पर बैठी पेन से नामों की आकृतियाँ बनातीं- राजीव का नाम अब भी उंगलियों में जैसे बस गया था।
वो हफ्ते में एक बार अपनी पुरानी सहेलियों से मिलती थीं- नीलिमा, किरण और सुजाता।
कॉफी, हँसी-मज़ाक, कुछ पुराने किस्से… और फिर वही जुमला-
"अरे संध्या, तुम्हें किसी का साथ चाहिए, ऐसे कब तक अकेली रहोगी?"
संध्या हल्की मुस्कान के साथ जवाब देतीं-
"साथ तो अब सिर्फ़ यादें देती हैं नीलिमा, बाक़ी सब तो बस आते-जाते चेहरे हैं।”
महफिलों की हँसी के बीच भी उसकी आँखों की गहराई में एक ठंडी सी नमी झलकती थी, जैसे हँसी के पीछे छुपी कोई लंबी खामोशी बार-बार बाहर आने की कोशिश कर रही हो।
रात उसके दिन से कहीं ज़्यादा भारी होती थी।
बाहर की लाइटें बुझ जातीं, बंगले में सन्नाटा उतर आता- और अंदर उसकी बेचैनियाँ करवटें लेने लगतीं। वो अक्सर किताब लेकर बिस्तर पर बैठती, मगर दो पन्नों के बाद ही शब्द धुँधले हो जाते। नींद अब उसके पास नहीं आती थी, बस यादें आती थीं, जो बार-बार उसे जगाती थीं। कभी वो खिड़की से बाहर देखती- सड़क किनारे लैम्पपोस्ट की पीली रोशनी में उड़ते पतंगे… और मन ही मन सोचती,
"कभी-कभी ज़िन्दगी भी इन पतंगों जैसी होती है- उजाले के मोह में जलती चली जाती है।”
कभी-कभी उसे लगता, ज़िन्दगी ने उसे बहुत कुछ दिया- इज़्ज़त, पद, पैसा, आराम, सुरक्षा।
लेकिन जब रात के सन्नाटे में अपने ही कदमों की आवाज़ गूंजती, तो लगता- कुछ बहुत गहरा खो गया है। वो खुद से पूछती,
"क्या आत्मनिर्भर होना ही सब कुछ है? या किसी का होना ज़रूरी है…?”
फिर खुद को टोकती-
"नहीं संध्या, ये उम्र चाहतों की नहीं, जिम्मेदारियों की है।"
पर अंदर एक और आवाज़ धीरे से कहती-
"पर क्या चाहतों की कोई उम्र होती है…?”
एक दिन शाम को ऑफिस से लौटते वक्त हल्की बारिश हो रही थी. ड्राइवर ने छाता खोला, मगर संध्या ने कहा-
"रहने दो, भीगने दो मुझे।”
बारिश की बूँदें उसके बालों और चेहरे पर फिसल रही थीं- जैसे ज़िन्दगी ने लंबे अरसे बाद उसे छुआ हो। कुछ पल के लिए उसने आँखें बंद कीं और राजीव की याद फिर से ताज़ा हो गई। वो मुस्कुरा दी, मगर आँसू बह निकले। वो नहीं जानती थी- आने वाले हफ्तों में कोई ऐसा आने वाला है, जो इन सूखी आँखों में फिर से कुछ चमक भर देगा।
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संध्या ने कमरे की लाइट बंद की और धीरे से बिस्तर पर लेट गई। खिड़की के बाहर आसमान में चाँद अधूरा था जैसे किसी ने उसकी आधी कहानी अब तक लिखी ही न हो।
वो करवट लेकर बोली-
"शायद हर औरत के भीतर एक अधूरी कहानी होती है… बस किसी के आने के इन्जार में"
और बाहर हवा में कहीं दूर से घड़ी की टिक-टिक गूंज रही थी, समय अपनी गति से चल रहा था, लेकिन संध्या की ज़िन्दगी ठहरी हुई थी…
क्रमशः