एपिसोड 5
तन्हाई
प्रेम के अपराधबोध और आत्ममंथन
सुबह की वह धूप जैसे अपराधबोध का परदा उठाने आई थी, संध्या बंगले के बरामदे में बैठी थी, हाथों में ठंडी होती चाय और मन में हजारों सवाल, रात की हर याद अब भी उसकी त्वचा पर साँस ले रही थी, कमरे की हवा अब भी अमर की उपस्थिति से भरी थी पर वो खुद वहाँ नहीं था, सुबह तड़के ही बिना कुछ कहे चला गया था, बस एक हल्की सी चिट्ठी छोड़ गया था.
"मैम, जो हुआ… वो शायद नियति थी, मैं न तो अपराधी हूँ, और न ही निर्दोष, लेकिन आज मैं अपने कर्तव्य और भावनाओ के बीच बँट गया हूँ.
मुझे माफ़ करिएगा।”
उस चिट्ठी के शब्द जैसे हर साँस में गूँज रहे थे कर्तव्य और भावना के बीच बँट गया हूँ…
संध्या मुस्कुराई, पर वह मुस्कुराहट ग़मगीन थी
"हम सब किसी न किसी वक़्त बँट ही जाते हैं, अमर…”
----
ऑफिस वही लोग, वही जगह, पर नज़रों में फर्क था, संध्या राठौर फिर उसी गरिमामयी स्वरूप में थी, सख़्त आवाज़, सीधा चेहरा, और अंदर ज्वालामुखी, अमर भी लौट आया था, चुप, और कहीं दूर कहीं व्यथित।
मीटिंग में जब उनकी नज़रें मिलीं, तो जैसे समय ठहर गया फिर एक पल के लिए सब धुंधला हो गया, फ़ाइलें, रिपोर्ट, कर्मचारी,
बस दो इंसान, जिनके बीच कुछ ऐसा था जो अब नामहीन था।
“अमर, वो रिपोर्ट...”
“जी, मैम... तैयार है,” उसने धीमे से कहा।
“ठीक है, ईमेल कर देना।”
बस इतना ही-
इतना छोटा संवाद, और इतने भारी मन।
----
दिन गुज़रते गए, ऑफिस के गलियारों में अब फुसफुसाहटें बढ़ने लगी थीं।
"लगता है मैडम और नया ट्रांसफर हुआ लड़का... कुछ ज़्यादा ही बात करते हैं।”
"अरे भाई, शहर में तो चर्चे हैं, बंगले तक जाते हैं वो।”
संध्या ने सुना था या शायद महसूस किया।
वो जानती थी, समाज की नज़र सबसे पहले उसी औरत पर उठती है जो अकेली होती है और कुछ पाने की हिम्मत करती है।
----
उस दिन शाम को, अपने केबिन में बैठी वह सोचती रही-
"कितना अजीब है न… मैं चालीस पार हूँ, मगर समाज को अब भी लगता है कि औरत को प्यार महसूस करने का अधिकार सिर्फ़ जवानी तक होता है।”
---
दुबिधाओं के बीच अमर की रातें
अमर अपने छोटे से क्वार्टर के रूम में बैठा था।
टेबल पर माँ और दो बहनों की फ़ोटो थी।
एक बहन कॉलेज में थी, दूसरी अभी बारहवीं में, माँ का चेहरा थका हुआ, मगर उम्मीद से भरा हुआ था वो हर महीने की पगार का हिसाब लगा रहा था, पर दिमाग़ कहीं और था
उस रात पर, उस स्पर्श पर, उस सन्नाटे पर।
"क्या मैंने गलत किया?” उसने खुद से पूछा।
दीवारें चुप थीं, पर दिल ने कहा-
"गलत शायद वो नहीं था जो हुआ, गलत ये है कि तुमने उसे दिल में जगह दे दी।”
उसने सिर झुका लिया।
पर जैसे-जैसे वो दूरी बनाए रखने की कोशिश करता वैसे-वैसे संध्या का चेहरा और पास आता चला जाता उसकी आँखों की थकान, उसकी मुस्कान, उसका अकेलापन सब उसके ज़ेहन में उतर चुका था।
---
एक दोपहर ऑफिस में बिजली चली गई।
संध्या अपने केबिन में अकेली थी, फ़ाइलें बिखरी थीं, अमर अंदर आया-
"मैम, वो डाक्यूमेंट पर साइन चाहिए थे।”
संध्या ने देखा-
दोनों ने एक-दूसरे की ओर ऐसे देखा जैसे समय थम गया हो, हवा में भारी पन था।
"अमर, बैठो...”
वो बैठ गया।
दोनों चुप।
"तुम मुझसे दूर क्यों भाग रहे हो?”
संध्या की आवाज़ काँप रही थी।
अमर ने नज़रें झुका लीं।
"क्योंकि मैं अगर रुक गया, तो खुद से नज़र नहीं मिला पाऊँगा, मैम।”
"और अगर भाग गए तो?”
"तो शायद… ज़िंदगी भर पछताऊँगा।”
कमरे में सन्नाटा फैल गया, दोनों के भीतर हज़ार तूफ़ान चल रहे थे।
संध्या ने कहा, “हम दोनों ने जो किया, वो कोई खेल नहीं था अमर। वो एक रात नहीं, एक सवाल थी कि क्या अकेलापन वाकई अपराध है?”
अमर कुछ नहीं बोला।
सिर्फ़ इतना कहा- “आप बहुत बड़ी हैं, मैं सिर्फ़ एक लड़का हूँ जो अपनी जिम्मेदारियों में बँधा हूं …”इतना कह कर वो चला गया।
---
संध्या की रातें फिर लंबी होने लगीं थी, फिर वही सन्नाटा जो और गहरा हो गया था, वो बिस्तर पर लेटी थी, पर नींद गायब थी, उसकी आँखों के सामने अमर का चेहरा घूम रहा था
कभी मुस्कुराता, कभी उदास, उसने धीरे से खुद से कहा-
"क्या प्यार सच में इतना गलत है कि इसे छुपाना पड़े या समाज इतना कमजोर है कि किसी अधेड़ औरत की मुस्कान उसे शर्मिंदा कर देती है?”
तभी फोन की स्क्रीन जली, बेटे का वीडियो कॉल था।
"माँ! कैसी हो आप?”
"मैं ठीक हूँ, बेटा," संध्या ने मुस्कुरा कर कहा।
बेटे ने ध्यान से देखा-
"माँ, आप थकी हुई लग रही हैं।”
"नहीं तो, बस थोड़ा काम ज़्यादा था।”
"माँ…” बेटा कुछ पल रुका, फिर बोला,
"आप खुश तो हैं न?”
संध्या के गले में शब्द अटक गए।
उसने कैमरे की तरफ़ देखा बेटे की मुस्कान थी, मगर आँखों में चिंता, वो क्या कहती?
कि उसके पास सब कुछ है पैसा, बंगला, ओहदा, पर किसी की आवाज़ नहीं जो कहे, "तुमने खाना खाया क्या?”
उसने हल्के से मुस्कुराकर कहा,
हाँ बेटा, मैं बहुत खुश हूँ।”
और जैसे ही कॉल खत्म हुआ उसकी आँखों से आँसू बह निकले.
---
फिर एक दिन.. अचानक अमर का ट्रांसफर ऑर्डर आया वो वापस उत्तराखंड जा रहा था।
संध्या ने काग़ज़ देखा दिल में कुछ टूट गया।
शाम को उसने अमर को बुलाया।
"ट्रांसफर लेटर देखा मैंने।”
"जी मैम, आदेश है अगले हफ्ते रिपोर्ट करनी है।”
"अच्छा है... तुम्हें अपने घरवालों के पास ही रहना चाहिए।”
वो मुस्कुराई, पर आँसू आँखों के पीछे दब गए।
"मैम, मैं… कुछ कहना चाहता हूँ।”
संध्या ने उसकी ओर देखा- “कहो।”
"उस रात को … मैं आज भी भूल नहीं पा रहा हूं, कभी-कभी लगता है, वो मेरी सबसे बड़ी गलती थी और कही लगता हैं कि वही रात मेरे जीवन की सबसे सच्ची भी थी।”
संध्या की आँखें भीग गईं।
"अमर, शायद हम गलत नहीं थे, हम बस एक अकेलेपन के इंसान थे, अकेलापन भी कभी किसी की बाँहों में चैन ढूँढ लेता है।”
दोनों कुछ देर चुप रहे।
फिर संध्या ने कहा-
"जाओ अमर, तुम्हें अपनी ज़िम्मेदारियाँ निभानी हैं, और मुझे… अपनी तन्हाई से समझौता करना है।”
"आप सिर्फ़ मेरी अधिकारी नहीं, मेरे जीवन की सबसे इज़्ज़तदार याद हैं।”
और वो चला गया।
---
रात के समय संध्या बालकनी में खड़ी थी।
आसमान साफ़ था, पर दिल अब भी बादलों से घिरा, उसने खुद से कहा-
"शायद प्रेम कभी पवित्र या अपवित्र नहीं होता,
लेकिन समाज उसे नाम देता है पाप, पागलपन या अपराध, अगर किसी की उपस्थिति ने मेरी तन्हाई में साँस भर दी, तो क्या वो सच में अपराध था?”
वो मुस्कुराई और धीरे से बोली-
"नहीं… वो मेरा जीवन था, जो एक रात में जिंदा हो उठा था।”
---
तभी मोबाइल की स्क्रीन फिर से जल उठती हैं संध्या का ध्यान फिर मोबाईल पर जाता हैं, बेटे का मैसेज आया है —
"माँ, अगले महीने घर आ रहा हूँ। आप कुछ मंगाना चाहती हैं क्या?”
संध्या टाइप करती है-
"नहीं बेटा, अब मैं जो चाहती हूँ, वो चीज़ नहीं, शांति है।”
उसने भेजने से पहले उसने वो मैसेज डिलीट किया और फिर लिखा-
"बस तुम आ जाओ बेटा, बहुत दिनों से तुम्हे देखा नहीं हैं।”
मैसेज करने के बाद वो बालकनी में आकर खड़ी हो गयी थी और देर तक ख़डी रही-
हवा उसके बालों को उड़ा रही थी, आँखें बंद करके उसने आसमान की ओर अपना चेहरा उठाया और महसूस किया कहीं दूर कोई ट्रेन जा रही हैं शायद अमर उसी ट्रेन में हैं और सोचने लगी "कि कुछ रिश्ते खत्म नहीं होते,
वे बस समय की तरह फैल जाते हैं हर साँस, हर याद, हर रात में।
क्रमशः