एपिसोड 2
तन्हाई
उम्र का अंतर भूलकर मन का कंपन
सुबह की ठंडी हवा ऑफिस की इमारत के लॉन में हल्के-हल्के बह रही थी। सरकारी दफ्तर की दीवारें हर रोज़ की तरह फाइलों की गंध से भरी थीं- लेकिन आज उस गंध में कुछ नया घुला था। शायद किसी नई शुरुआत की आहट…
वही आज दफ्तर में सबके बीच चर्चा थी- "नए अधिकारी का ट्रांसफर यहीं हुआ है, हमने सुना हैं बड़ा ही तेज़ लड़का है।"
संध्या ने अपनी मेज़ पर रखी फाइलों के ढेर के बीच से नज़र उठाई। दरवाज़े पर खड़ा था एक नौजवान- लंबा-चौड़ा, आत्मविश्वास से भरा चेहरा, आँखों में ईमानदारी और मुस्कुराहट में अपनापन।
"मैम, मैं अमर चौहान- सेक्शन ऑफिसर," उसने आदर से झुककर कहा।
संध्या ने हल्की मुस्कान के साथ सिर हिलाया,
"वेलकम मिस्टर चौहान, बैठिए। उम्मीद है उत्तराखंड से यहाँ का मौसम ज़्यादा नहीं खलेगा।"
"जी मैम, यहाँ तो लोग ज़्यादा गर्मजोशी से मिल रहे हैं," अमर ने सहजता से कहा।
उसके लहजे में न औपचारिकता थी, न बनावट, बस एक सीधी, साफ़ सच्चाई।
अमर के आने के बाद ऑफिस की हवा बदल गई थी। वो हर काम को पूरे दिल से करता, और दूसरों की मदद भी करता, सबसे अहम- उसकी आँखों में एक ऐसा आत्मविश्वास था जो प्रेरित करता था। जहाँ बाकी अफसर सिर्फ़ रूटीन में चलते थे, अमर हर फाइल में कुछ नया सोच लाता। कभी किसी कर्मचारी के मेडिकल केस पर सहानुभूति दिखाता, कभी पुराने प्रोजेक्ट्स को नई दृष्टि से समझाने लगता।
संध्या ने कई बार उसे खिड़की के पास बैठे देखा, वो अपने काम में डूबा रहता, मगर चेहरे पर हमेशा एक हल्की मुस्कान रहती। उस मुस्कान में कुछ था- सरलता, सच्चाई और एक अजीब-सी शांति।
दिन बीतते गए, अमर जब कभी कमरे में आता, संध्या अनजाने में अपने बालों को पीछे करती, पेन को सीधा रखती और चेहरे पर हल्की मुस्कान ले आती, उसे खुद भी हैरानी होती थी कि क्यों उसके भीतर कुछ हल्का-सा महसूस होता है- जैसे किसी शांत झील में एक कंकड़ गिर गया हो।
जब कभी अमर फाइल लेकर आता —
"मैम, इस पेपर में कुछ संशोधन चाहिए था, अगर देख लें तो…"
और संध्या को लगता, उसकी आवाज़ में कोई अजीब-सी मिठास है जो कानों में देर तक गूँजती रहती है।
एक दिन कॉरिडोर में नीलिमा नें मुस्कुराते हुए कहां- "लगता है तुम्हारे सेक्शन में कोई नया जोश आ गया है, सब चमक रहा है।”
संध्या ने हँसकर बात टाल दी,
"अरे नहीं नीलिमा, ऐसा कुछ नहीं हैं, वो मेहनती है, और कुछ नहीं।”
लेकिन खुद को वो भी नहीं समझा पाई- "सिर्फ़ मेहनती?”
एक दोपहर- ऑफिस में फाइलों का बोझ और बाहर चिलचिलाती धूप, ऐसे में ऑफिस का एसी भी थक गया था, तभी अमर दो कप कॉफी लेकर आया-
"मैम, आप लगातार काम कर रही हैं, थोड़ा ब्रेक लीजिए।”
संध्या ने मुस्कुराकर कप लिया,
"तुम्हें कैसे पता कि मुझे कॉफी चाहिए थी?”
अमर ने सहजता से कहा,
"जो ज़्यादा बोलते नहीं, उनके चेहरे ही बता देते हैं।”
वो पल इर्द- गिर्द कुछ ज़्यादा देर टिक गया-
संध्या ने पहली बार महसूस किया कि उसकी धड़कन अमर की बातों से थोड़ी तेज़ चलने लगी है।
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शाम को जब घर पहुंची तो संध्या ने देखा-
अंदर वही सूना घर, वही रूटीन। लेकिन आज कुछ अलग था, आज उसे लगा किसी ने दिन में उसकी ज़िन्दगी में थोड़ी रोशनी डाल दी है।
रात में जब वो चाय लेकर बालकनी में बैठी, हवा में वही हल्की गंध थी- बरगद के पेड़ के नीचे खड़ा कोई पुराना वक़्त, और मन में नया एहसास। वो खुद से बोली,
"शायद उम्र नहीं, एहसास तय करते हैं कि दिल कब जवान होता है।”
कभी-कभी वो खुद को रोकना चाहती-
"संध्या, तुम पैंतालीस की हो, वो तीस का है। यह बस एक स्नेह है, आकर्षण नहीं।”पर अगले दिन जब अमर “गुड मॉर्निंग मैम” कहता और मुस्कुराता तो उसके सारे तर्क ढह जाते वो अपने भीतर एक नया संसार उगता महसूस कर रही थी, जहाँ वर्जनाएँ थीं, पर चाहतें भी थीं, जहाँ उम्र की दीवारें थीं, पर नज़रें उन्हें पार कर रही थीं।
एक दिन संध्या ऑफिस से निकल रही थी। बाहर तेज़ बारिश हो रही थी।
ड्राइवर दूर पार्किंग में था, और संध्या बिना छाते के खड़ी थी तभी अचानक अमर आया,
"मैम, छाता लीजिए, भीग जाएँगी।" उसने छाता उनके ऊपर कर दिया, और दोनों एक छतरी के नीचे साथ-साथ चलने लगे, बूँदें धीरे-धीरे दोनों के हाथों पर गिर रहीं थीं।
संध्या ने महसूस किया, इतने बरसों बाद किसी का साथ मिलना कैसा लगता है किसी का यूँ खयाल रखना कितना सुकून देता है।
जब वो कार में बैठ कर जाने लगी तो उसने, उसने पीछे मुड़कर देखा- अमर अब भी छाता थामे खड़ा मुस्कुरा रहा था।
वो मुस्कान संध्या के ख्यालों में देर तक साथ रही- जैसे कोई संगीत, जो बंद होने के बाद भी मन में बजता रहता है।
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उस रात संध्या देर तक सो नहीं सकी खिड़की के बाहर आसमान में फिर वही अधूरा चाँद था,
मगर आज उसके आसपास कुछ रोशनी ज़्यादा थी, वो खुद से बोली —
"क्या ये सिर्फ़ लगाव है, या कोई अधूरी चाहत जो फिर से आँखें खोल रही है?”
फिर खुद ही मुस्कुरा दी-
"कभी-कभी ज़िन्दगी हमें वहीं से शुरू करती है, जहाँ हमने उसे छोड़ दिया था…"
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अमर का आगमन अब उसके जीवन में सिर्फ़ एक नया अधिकारी नहीं रहा था, वो एक नई लहर था, जिसने उसके सन्नाटे में हलचल भर दी थी, उसके मन का सूखा आँगन अब भीगने को तैयार था… वो नहीं जानती थी, ये बारिश कितनी देर टिकेगी, पर इस वक्त वो बस उसकी खुशबू महसूस करना चाहती थी।
क्रमशः