एपिसोड 4
तन्हाई
शरीर और आत्मा का एक होना
शाम ढल चुकी थी बाहर आसमान में काले बादलों की परतें किसी अनकहे तूफ़ान की आहट दे रही थीं बंगले में रखी गयी मीटिंग लंबी खिंच गई थी बिजली बार-बार जा रही थी, और बाहर मूसलाधार बारिश ने सड़कों को जैसे समुंदर में बदल दिया था.
संध्या ने खिड़की से बाहर झाँका कारों की कतारें थमी हुई थीं, पानी छत से धार की तरह गिर रहा था। तभी उसने पीछे मुड़कर देखा अमर फ़ाइलें समेट रहा था, उसका चेहरा थकान से भीगा हुआ था।
"अमर, इस मौसम में निकलना ठीक नहीं होगा,”संध्या ने धीमी, मगर दृढ़ आवाज़ में कहा।
अमर हल्का-सा मुस्कुराया
फिर संध्या ने कहा, "मैं ज़िद नहीं करती कभी, लेकिन आज कह रही हूँ- रुक जाओ, बाहर सड़कें बंद हैं, अगर मन करे, तो ऊपर गेस्ट रूम आज रात यही रूक जाओ।”
अमर ने एक पल को उनकी आँखों में देखा, ये आदेश नहीं था, चिंता थी, ममता थी... और कुछ और भी था, जो शब्दों से परे था।
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रात धीरे-धीरे उतर रही थी बंगले में बस हल्की रौशनी थी, बाहर हवा में बारिश की बूंदें झनकार की तरह टकरा रही थीं, संध्या ने दो कप कॉफ़ी बनाई जब अमर हॉल में आया तो उसके बाल अब भी गीले थे, चेहरा हल्की ठंड से गुलाबी था।
"कॉफ़ी लीजिए,”उसने मुस्कुराकर कहा।
"धन्यवाद, मैम।”
थोड़ी देर दोनों ने चुपचाप कॉफ़ी पी दीवारों पर घड़ी की टिक-टिक, बाहर गरजते बादल और भीतर एक अनकही सन्नाटे की गूंज।
"आप बहुत थक जाते होंगे..." संध्या ने बात शुरू की।
"थक तो जाता हूँ, लेकिन घर पहुँचते ही माँ और बहनों का जब वीडियो कॉल पर चेहरा देखता हूँ तो सब थकान मिट जाती है,”अमर ने जवाब दिया।
संध्या ने उसके चेहरे की तरफ़ देखा कितनी सादगी, कितनी ज़िम्मेदारी। उसने सोचा इस उम्र में इतना बोझ... और मैं, जिसके पास सब है, पर कुछ नहीं।
और कुछ देर बाद बिजली चली गई। मोमबत्ती की लौ हॉल में टिमटिमाने लगी उसके उजाले में संध्या का चेहरा कुछ और ही प्रतीत हो रहा था, जैसे बरसों की थकान उस नर्मी में पिघल रही हो।
"डर तो नहीं लग रहा?” संध्या ने हल्के स्वर में पूछा।
अमर मुस्कुराया- “नहीं मैम, बचपन में गाँव में ऐसी रातें बहुत देखी हैं मैंने मुझे डर नहीं लगता,”
संध्या ने धीरे से कहा, "पर... तन्हाई से डर लगने लगा है।”
अमर ने पहली बार उन्हें इतने खुले रूप में देखा वह सख़्त अधिकारी नहीं थीं, एक औरत थीं, जो भीतर से टूटी हुई थी उसने कुछ कहने के लिए होंठ खोले, पर शब्द कहीं गुम हो गए।
"कभी-कभी लगता है,”संध्या ने आगे कहा,
" इंसान ज़िम्मेदारियाँ निभाते-निभाते खुद से दूर हो जाता है। जैसे मैं...”
वह रुक गईं, आँसू नहीं थे, पर आवाज़ काँप गई थी, अमर के भीतर कुछ हलचल सी हुई उसने बस धीरे से कहा,
"आप अकेली नहीं हैं, मैम...”
वह वाक्य जैसे दीवारें तोड़ गया। दोनों के बीच सन्नाटा था, मगर उस सन्नाटे में हज़ार अनकहे एहसास तैर रहे थे।
मोमबत्ती की लौ झिलमिलाई, और उसी पल कुछ टूट गया, वह दूरी, जो अब तक दोनों ने बनाए रखी थी, अमर ने संध्या की आँखों में देखा वहाँ एक गहरा दर्द था, और उस दर्द में अपनापन, उसने धीरे से कहा, "अगर मैं कुछ गलत कह दूँ तो माफ़ करिएगा...”
संध्या ने कुछ नहीं कहा, बस नज़रें झुका लीं।
पल भर में हवा का झोंका आया, और मोमबत्ती बुझ गई, अंधेरे में बस साँसों की आवाज़ थी, दो धड़कनों की गूँज, जो एक लय में आ चुकी थी।
ये रात सीमा टूटने की गवाह बनी जहाँ शरीर ने नहीं, आत्मा ने स्पर्श किया था, ये मिलन कोई वासना नहीं, एक अधूरेपन की चुप स्वीकारोक्ति थी।
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सुबह की पहली रौशनी जब खिड़की से भीतर आई, तो दोनों अलग-अलग कोनों में थे नज़रे झुकी हुईं, दिल भारी, कॉफ़ी ठंडी थी, और हवा में अब सिर्फ़ गिल्ट का स्वाद तैर रहा था।
अमर ने धीरे से कहा,“मैम... जो हुआ...”
संध्या ने उसे रोकते हुए कहा- “कुछ मत कहो, अमर। ये रात... शायद ज़रूरी थी हमारे भीतर के खालीपन को देखने के लिए।”
दोनों की आँखों में एक साथ नमी आई.
कभी-कभी रिश्ते नाम नहीं माँगते बस एक रात में सारी सीमाएँ तोड़ जाते हैं, और फिर हमेशा के लिए पीछे छूट जाते हैं।
उस रात ने संध्या और अमर दोनों को बदल दिया था वो अब सिर्फ़ एक अधिकारी और अधीनस्थ नहीं थे, बल्कि दो आत्माएँ थीं, जिन्होंने एक पल के लिए एक-दूसरे में अपना प्रतिबिंब देखा था।
क्रमशः