इतिहास के पन्नों से 11
करोड़ों की विरासत और कौड़ियों में पेंशन
किसी जमाने में अपार धन दौलत , आभूषण और राजपाट के स्वामी रहे राजाओं / रानियों के वंशजों को आज एक रुपया से दस रुपये की पेंशन मिलती है , सुनने में यह विचित्र लगता है पर यह सत्य है . इस पेंशन को वसीका कहते हैं .
वसीका, फ़ारसी शब्द जिसका अर्थ लिखित समझौता होता है . यह पूर्व अवध साम्राज्य के शासकों के वंशजों और सहयोगियों को दी जाने वाली पेंशन थी . शुरू में अवध, जो अब उत्तर प्रदेश का मध्य क्षेत्र है, पर अर्ध-स्वायत्त मुस्लिम शासकों - जिन्हें नवाब कहा जाता था , का शासन था हालांकि अंग्रेजों ने 1856 में इसे अपने अधीन कर लिया .
वसीका ( wasiqa ) क्या है - वसीका एक फ़ारसी शब्द है . इसका शाब्दिक अर्थ दान भी है . व्यवहार में वसीका एक प्रकार का लिखित एग्रीमेंट ( समझौता ) होता था . वसीका एक ऐतिहासिक समझौता था जिसके अंतर्गत कोई नवाब या राजा अपनी संपत्ति , आभूषण आदि तत्कालीन सरकार ( तब ब्रिटिश राज में ईस्ट इंडिया कंपनी ) के यहाँ जमा कर देता था . . इसके बदले में शाही वंशजों और उनके करीबी सहयोगियों को एक मासिक भत्ता ( शाही पेंशन जिसे वसीका कहते हैं ) आजीवन दिया जाता है . वसीका से शाही या कुलीन परिवार और उनके अनुचरों का गुजारा होता था . यह वसीका पुस्त दर पुस्त चलता आया और वसीकेदार के वंशजों में बंटता गया . इस तरह अब जो वंशज बच गए हैं उनके लिए वसीका की राशि बहुत कम रह गयी है , मात्र करीब एक रुपया से दस रुपये तक .
एक रिपोर्ट के अनुसार वसीका पाने वालों में अवध के शाही परिवार और उनके निकट सहयोगियों की संख्या लगभग 30000 थी . एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार करीब 1200 लोग जो अवध के शाही परिवार के वंशज और उनके निकट सहयोगियों / अनुचरों के वंशज रहे थे आज भी वसीका ले रहे हैं . वसीका का कार्यालय उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में स्थित है .
विशेषज्ञों के अनुसार पहले वसीका चांदी के सिक्कों में दिया जाता था जो बाद में भारतीय मुद्रा में होने लगा .
उदाहरण के लिए कुछ वसीकेदार -
वसीका का आरम्भ 18 वीं सदी के मध्य में तत्कालीन अवध के नवाब शुजाउद्दौला की पत्नी बहु बेगम ने की थी . उन्होंने और उनके बाद नवाब के बेटे आसफुदौला ने अंग्रेजों को भारी रकम दी थी . बहु बेगम को डर था कि भविष्य में उनके वंशज , सहयोगी और सेवक कंगाल हो जायेंगे और उनके लिए भरण पोषण की समस्या होगी . इसलिए उन्होंने अपनी संपत्ति , आभूषण आदि ईस्ट इंडिया कंपनी को सौंप दिया था और बदले में वसीके के लिए समझौता किया . कहा जाता है कि उस समय उनकी जमा संपत्ति पर 5 - 6 % व्याज देने का समझौता हुआ था जो करीब 70 लाख रुपया सालाना था . यह राशि भारतीय रिजर्व बैंक के कंट्रोल में है और उसी दर से व्याज मिलता रहा है . वसीका की राशि पीढ़ी दर पीढ़ी वंशजों में बंटते बंटते आज की तिथि में बहुत कम हो गयी है , उदाहरण के लिए अगर किसी को 300 रुपये वसीका मिलता था और उसके तीन बच्चे होंगे तब उसकी मौत के बाद उनके तीनों बच्चों को 100 रुपये वसीका मिलेगा . आज ज्यादा से ज्यादा करीब दस रूपये मासिक वसीका ही मिलता है .
60 वर्षीय सईदा अब भले बूढी और कमजोर हो गयी हो और वसीका की मात्र 1. 60 रुपये मासिक राशि भी उनके लिए शानदार है . यह उनकी शाही विरासत का प्रतीक और पहचान है . 85 वर्ष या उस से भी ऊपर के कुछ ऐसे लोग हैं जिनका वसीका एक रुपया और कुछ पैसे रह गया है . नवाब नसीरुद्दीन हैदर की वंशज कमर जहाँ बेगम को 1989 में मात्र 10. 03 रुपये का वसीका मिलता था .
हालांकि आज के नियम से दो रूपये से कम राशि के वसीके को बेच कर एकमुश्त 20 साल का वसीका लेने का विकल्प है नुरुनिशा को 1. 12 रुपये की अल्प राशि हर महीने मिलती है फिर भी उन्हें इस पर गर्व है . उनका कहना है “ यह अतीत की एकमात्र निशानी है . मैं इसे किसी कीमत पर नहीं बेचूंगी . “
अभी हाल ही अक्टूबर में BBC की एक रिपोर्ट थी जिसमें उत्तर प्रदेश के हुसैनाबाद के 90 वर्षीय फ़ैयाज़ अली की कहानी थी . उन्हें लखनऊ के वसीका दफ्तर में अपना शाही पेंशन यानी वसीका लेने जाते दिखाया गया था . हालांकि पुरानी रियासतों के राजाओं या नवाबों के प्रिवी पर्स और विशेषाधिकारों को बहुत पहले ही समाप्त कर दिया गया था फिर भी U . P . केरल और राजस्थान के कुछ शाही परिवार के वंशजों के लिए आज भी कुछ पेंशन मिल रहा है . वसीका का आरम्भ 1817 में हुआ था जब बहु बेगम ने 40 मिलियन रुपये ईस्ट इंडिया कंपनी को दो किस्तों में दे दिया था . इसके अतिरिक्त शाही परिवार के अन्य सदस्यों ने भी कंपनी को क़र्ज़ दिया था .
अवध के पूर्व शासक मोहम्मद अली शाह के काल के पिक्चर गैलरी के बाहर खड़े फ़ैयाज़ अली का कहना था कि वे 13 महीने बाद अपना वसीका लेने आये थे . उनका कहना सही है क्योंकि इतनी ज्यादा उम्र में उन्हें मात्र 9. 70 रुपये मासिक वसीका मिलता है जिसे लेने आने के लिए पेट्रोल पर 500 रुपये का खर्च करना पड़ता है . व्याज दर अभी भी पुराने रेट से मिल रहा है जबकि आजकल वास्तविक दर कहीं ज्यादा है . हालांकि चंद रुपये कोई मायने नहीं रखते हैं फिर भी अपनी एक विशेष पहचान बनाये रखने के लिए यह जरूरी है .
पिक्चर गैलरी में पेंशन भुगतान के लिए दो कार्यालय हैं - एक लखनऊ जिला प्रशासन द्वारा संचालित हुसैनाबाद ट्रस्ट और दूसरा उत्तर प्रदेश सरकार वसीका दफ्तर . ट्रस्ट कैश भुगतान करता है जबकि सरकार सीधे बैंक अकाउंट में ट्रांसफर करती है .
रिपोर्ट के अनुसार 1800 ई के आरम्भ में अवध के शाही घराने ने तत्कालीन ईस्ट इंडिया कंपनी को एक मोटी रकम एक समझौते के अंतर्गत दिया था . समझौते की शर्त के अनुसार कंपनी को मूल धन वापस नहीं करना था पर उस का व्याज शाही परिवार के वंशजों को पेंशन के रूप में देने का प्रावधान था . हालांकि जैसे जैसे ईस्ट इंडिया कंपनी मजबूत होती गयी शाही परिवार को धन देने के लिए मजबूर भी किया जाता था .
एक वसीका लाभार्थी वकील शाहिद अली खान का कहना है कि उनके दादा नवाब मोहम्मद अली खान के दरबार में मंत्री थे . शहीद को दो अलग अलग राशियों के बदले दो अलग अलग शाही पेंशन मिलते हैं - पहला 4. 80 रुपये त्रैमासिक और दूसरा 3. 21 रुपये मासिक . फिर भी अपनी शाही विरासत की याद जिन्दा रखने के लिए यह सिलसिला चलते रहना उन्हें अच्छा लगता है .
एक अन्य वसीकेदार मसूद अब्दुल्लाह का परिवार पीढ़ियों से पेंशन लेता आया है . उनका कहना है कि पहले पेंशन लेना एक त्यौहार की तरह होता था . पुरुष अपने घोड़े गाड़ियों में आते थे और महिलाएं पर्दों वाली गाड़ियों में . मेले जैसा माहौल रहता था , शर्बत , चाय आदि की दुकानें लगती थीं . फ़ैयाज़ अली खान का भी यही कहना है - अब पहले जैसा माहौल नहीं रह गया है .
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