JANVI - Rakh Se Uthti Loa - 4 in Hindi Motivational Stories by Luqman Gangohi books and stories PDF | JANVI - राख से उठती लौ - 4

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JANVI - राख से उठती लौ - 4

✨राख से उठती लौ✨

"जिसे सबने छोड़ा, उसने खुद को थामा। जिसे सबने रोका, उसने उड़ना सीखा।"

पंकज के जाने के बाद जानवी मोतियों की माला की तरह जैसे टूट कर बिखर सी गई थी। पर बिखराव के बीच ही उसे एक अनकही चुनौती ने झकझोर दिया।

उसे अब यह तय करना था कि वो पंकज की याद में रोएगी, या उसकी बेरुखी को अपनी आग बनाएगी।

प्यार की राख से तपस्या की लौ

जानवी ने पहली बार खुद से कहा-
"अब कोई मेरा ध्यान भटकाने नहीं आएगा, क्योंकि अब मेरा ध्यान ही मेरी ताकत है।"

उसने अपनी भावनाओं को कागज़ पर उतार दिया- हर चोट, हर अपमान, हर वादा जो अधूरा रह गया।

कागज़ पर उतरते ही वो बोझ ताकत बन गया। अब वो लड़ रही थी -
✅अपनी तक़दीर से
✅अपने हालात से
✅और सबसे ज्यादा अपने अंदर की कमजोरियों से

हालांकि पंकज अपनी शादी फिक्स होने की खुशी ज्यादा दिन तक नहीं मना सकता था, क्योंकि उससे शादी करने वाली लड़की उसे छोड़कर जा चुकी थी। और पंकज फिर से जानवी के मन को अशांत करने आने लगा था।

लौटती परछाई
दिन सामान्य था। गर्मियों की शामों की तरह थोड़ा थका हुआ, थोड़ा भारी। जानवी अपने स्टडी टेबल पर बैठी थी, लेकिन किताब की लाइनों के साथ साथ मन किसी और जगह भी अटका हुआ था।

इसी बीच, अचानक एक मैसेज आता है- "कैसी हो जानवी?"

भेजने वाला वही था, जिसकी यादों को जानवी ने बहुत कोशिशों के बाद दफन किया था-पंकज ।

कुछ पल के लिए कमरे की हवा जैसे थम गई। दिल ने पलटकर देखना चाहा, लेकिन दिमाग ने फौरन रोक दिया। और जानवी ने स्क्रीन लॉक कर दी, लेकिन मन अब भटक चुका था। आधे घंटे तक मन के भीतर बहस चलती रही- "क्या जवाब दूं? क्या बात करूं? फिर वही सब?"

पर उसने नहीं लिखा। उसने फोन उठाया और अपने भाई शौकीन को कॉल किया।

जानवी: "भैया... एक अजीब बात हुई है। पंकज का मैसेज आया है।"

शौकीन (थोड़ी देर चुप रहकर): "अब क्या चाहता है?"

जानवी: "पता नहीं... शायद फिर से वही सब शुरू करना चाहता है... लेकिन अब मैं कमजोर नहीं हूं भइया। पर मन डगमगा जाता है कभी-कभी।"

शौकीन ने लंबी सांस ली, जैसे बहन के भीतर उठते तूफान को महसूस कर रहा हो। फिर गहरी आवाज़ में बोलाः

"सुन बहना, वो अब तब तक पीछे आता रहेगा जब तक उसे यकीन है कि तू उसे स्वीकार कर लेगी। पर इस बार तू उससे ऐसे मिल जैसे कोई पुराना जानकार, जैसे कुछ था ही नहीं। जब तू ठंडे दिल से बात करेगी, तब ही उसे समझ आएगा कि तू अब पहले जैसी नहीं रही। तू अब कमजोर नहीं, तू मजबूत है। और ये तेरा इग्नोर करना नहीं होगा, ये तेरी काबिलियत की आवाज़ होगी कि तू अब खुद को जान चुकी है।"

जानवी कुछ देर चुप रही... फिर आंखें बंद कीं, जैसे खुद को भीतर तक टटोल रही हो। उस रात उसने पंकज को "Hi" का जवाब दिया, लेकिन भावनाओं के समंदर में बहकर नहीं... बल्कि एकदम सपाट, संयमित।

कुछ दिन बाद... पंकज ने धीरे-धीरे बातों में पुरानी यादें ताज़ा करनी शुरू कीं।

"तुम बहुत याद आती हो..."

"काश उस वक्त मैंने तुम्हें समझा होता..."

"अब लगता है, तुम्हारे बिना सब अधूरा है...".

जानवी बस हल्की मुस्कान के साथ जवाब देती-"तुम ठीक हो, ये सुनकर अच्छा लगा।" पर न वो 'हम' की बात करती, न भविष्य की।

उसी दौरान उसने अपने भाई को मैसेज कियाः

"भइया, वो बात कर रहा है... अबकी बार बहुत बदल गया लगता है। ऐसा लगता है जैसे उसे सच में पछतावा है।"

शौकीन कहता है -
"तो बात कर, लेकिन याद रख-बात करने का मतलब ये नहीं कि तुम वापस वहीं लौट जाओ। तुम अब जानवी हो-वो जानवी जो मंजिल के बेहद करीब है। ये वक्त है अपने फैसलों को सोच-समझकर लेने का, भावनाओं के बहाव में नहीं।"

कुछ हफ्ते बीते ही थे कि जानवी को फिर से वही पुरानी बेचैनी महसूस होने लगी- पंकज ने एक बार फिर से इग्नोर करना शुरू कर दिया था। अब बातों का जवाब घंटों बाद, कभी दिन भर बाद आता। जहां कभी 'कैसे हो था, अब 'busy हूं' हो गया था।

और उस दिन उसने तय कर लिया-अब बस।

उस रात उसने फिर अपने भाई को कॉल किया। आवाज़ में न आंसू थे, न गुस्सा। बस ठंडा, शांत, स्पष्ट स्वर

"भैया... अब मुझे समझ आ गया है। ये इंसान सिर्फ तब आता है जब उसे ज़रूरत होती है। मैं उसके लिए सिर्फ एक विकल्प थी, पर खुद के लिए मैं 'फर्स्ट चॉइस' बनूंगी। अब पंकज के लिए नहीं, अपने लिए जियूंगी। और इस बार मुझे कोई रोक नहीं सकता।"

शौकीन की आंखों में उस रात गर्व था, और जुबां पर सिर्फ एक बातः
"अब तू उड़ने के लिए तैयार है बहना, और जब तू ऊंचाइ‌यों पर पहुंचेगी ना... ये सब पीछे बहुत छोटे नज़र आएंगे।"

जब परिवार भी छूटने लगे

पिता की मृत्यु के बाद परिवार का सहारा भी धीरे-धीरे कम होने लगा था। रिश्तेदारों के रवैये में बदलाव आने लगा।

कुछ बोले- "पढ़ाई में क्या रखा है?"

"कितने साल से घर पर ही बैठी है, अब तो शादी की सोचो।"

कई बार घर की आर्थिक स्थिति उसे अंदर से तोड़ती। जानवी ट्यूशन पढ़ाने लगी, हर शाम 4 से 6 तक बर्ची को पढ़ाती, और फिर रात 7 बजे से 1 बजे तक अपने नोट्स बनाती।
कभी पेट की भूख और नींद की लड़ाई चलती, पर जीत हर बार उसकी जिद की होती।

समाज के ताने - और जवाब मौन में

गांव की औरतें कहीं -
"इतनी पढ़ाई कर के करेगी क्या? आखिर तो चूल्हा-चौका ही करना है।"
"देखो, उस लड़की को तो लड़के वाले भी डरते हैं अब।"

हर ताना उसके दिल को चीरता था। पर उसने कभी पलटकर जवाब नहीं दिया। उसने जवाब देना सीखा था-अपने रैंक से, अपने रिजल्ट से, अपनी चमक से।

मोटिवेशन नहीं, सिस्टम बना लिया था खुद को
अब जानवी को किसी मोटिवेशनल स्पीच की जरूरत नहीं थी। उसने खुद को एक मशीन की तरह ढाल लिया था।

👉सुबह 5:00 - उठना
👉योग, न्यूजपेपर्स, करंट अफेयर्स
👉6 घंटे इकोनॉमिक्स, पॉलिटी, एथिक्स
👉मॉक टेस्ट
👉बच्चों को ट्यूशन
👉शौकीन भैया से दिनभर की समीक्षा

फिर देर रात तक आत्म-विश्लेषण

हर रविवार को वो एक ही सवाल खुद से पूछतीः
"क्या मैं कल से बेहतर बनी हूं?"

कभी-कभी हार मानने का मन होता...

एक दिन उसे बुखार था। पर उसने कोचिंग का मॉक टेस्ट नहीं छोड़ा। कभी-कभी परीक्षा में कम नंबर आते, तो लगता - शायद पंकज सही था, शायद मैं बन ही नहीं सकती। पर फिर खुद को शीशे में देखती और कहती -
"अगर मैंने अब हार मानी, तो हर वो लड़की हारेगी जो मुझसे उम्मीद रखती है।"

पंकज की बेरुखी - ताकत बन चुकी थी

अब वो पंकज को याद नहीं करती थी, बल्कि उसकी बेरुखी को अपने दिन के पहले पन्ने पर चिपका चुकी थी।
उसका हर नोट्स एक वादा था-
"मैं खुद को इतना मजबूत बनाऊंगी कि कोई फिर मुझे छोड़कर ना जा सके, और अगर कोई जाए तो मुझे फर्क ही न पड़े।"

अब उसकी आंखों में पानी नहीं, आग थी

हर कठिनाई अब भस्म हो रही थी उसकी तपस्या में। वो अब न सिर्फ़ अफसर बनना चाहती थी, बल्कि एक ज़िंदा जवाब बनना चाहती थी हर उस सवाल का जो समाज ने एक लड़की से किया था।

"सिर्फ किताबें नहीं पढ़ रही थी वो....
वो खुद को गढ़ रही थी - एक नई जानवी।"

अब ये देखना बड़ा दिलचस्प होगा कि उसकी तपस्या रंग कैसे लाती है?