प्रणाली (संदेह से बाबा को देखते हुए): आप... आप कुछ जानते हैं?
(बाबा ने तुरंत नज़रें फेर लीं और बात बदल दी)
बाबा (गंभीर स्वर में): तुम बस बाहर पहरा दो... अभी और कोई सवाल मत करो।
बाहर प्रणाली के सिपाही आ चुके हैं, लेकिन उन्हें कुछ भी नज़र नहीं आ रहा...
सिपाही आपस में बातें करते हैं —
पहला सिपाही: कुछ दिख क्यों नहीं रहा? क्या वो यहीं है?
दूसरा सिपाही: पता नहीं... जैसे कुछ अदृश्य ताक़त हमें भ्रमित कर रही हो।
अगला दिन हुआ...
सिपाही अब भी उसकी तलाश में हैं और आसपास ही कहीं मंडरा रहे हैं... पर नतीजा शून्य।
शाम हो चुकी है, पर स्थिति में अब भी कोई सुधार नहीं है...
वर्धानं की हालत वैसी की वैसी बनी हुई है...
चोट पर लगातार पट्टियाँ लगाई जा रही हैं,
लेकिन जैसे उसके पास होश में आने की कोई वजह ही नहीं बची...
प्रणाली (धीरे से बाबा से): बाबा... कुछ तो कीजिए... कुछ भी...
बाबा (आँखें बंद करते हुए): मैं कोशिश कर रहा हूँ... लेकिन ये सिर्फ दवाई से नहीं होगा...
रात हो चुकी है।
ना वर्धानं को होश आया...
ना ही प्रणाली के सिपाही वहाँ से हिले।
बाबा देर रात तक कुछ जड़ी-बूटियाँ पीस रहे हैं, कुछ मंत्र बड़बड़ा रहे हैं,
और वर्धानं की गहरी चोट पर लेप लगा रहे हैं... लेकिन कुछ भी असर नहीं हो रहा।
बाबा प्रणाली की ओर गंभीरता से बढ़ते हैं।
बाबा: मुझे... तुम्हारा खून चाहिए।
(उन्होंने पास रखे एक चाकू को उठाया)
प्रणाली (चौंक कर लेकिन बिना झिझक): ले लीजिए... जितना चाहिए उतना ले लीजिए... अगर इससे वर्धानं को कुछ हो सकता है तो मैं पीछे नहीं हटूँगी।
बाबा: लेकिन याद रखना... जैसे-जैसे तुम्हारे ज़ख्म से खून बहेगा,
बाहर की अदृश्य रेखा — जो अभी तुम्हारे सिपाहियों को रोक रही है — कमज़ोर होती जाएगी।
और तब... तुम्हें वहाँ से जाना होगा।
प्रणाली (आँखों में आँसू लिए): ठीक है बाबा... इसकी जान से बढ़कर मेरे लिए कुछ नहीं है...
जैसे ही इसे होश आएगा... मैं... मैं वहाँ से चली जाऊँगी...
(इतना कहते ही बाबा ने उसके हाथ पर चाकू से कट लगाया — एक तेज़ चीख प्रणाली के मुँह से निकल पड़ी।)
प्रणाली (दर्द में कराहते हुए): आहhhhh...!!!
खून बर्तन में इकट्ठा किया जा रहा है।
प्रणाली के चेहरे पर दर्द साफ़ झलक रहा है,
लेकिन उसकी आँखें... सिर्फ वर्धानं को देख रही हैं...
प्रणाली (कमज़ोर आवाज़ में): इसका दर्द... मेरे दर्द से कहीं ज़्यादा है...
बाबा ने अब वह खून वर्धानं की गहरी छाती की चोट पर लगाना शुरू किया...
कुछ मंत्र पढ़ते हुए... जैसे कोई पुराना रहस्य खुल रहा हो...
प्रणाली: बाबा... ये चोट बहुत गहरी है क्या?
बाबा (धीरे पर तीखे स्वर में): ये सिर्फ ज़ख्म नहीं है...
तुम्हारे भाई को मौत अपने सिर पर ली है इसने...
प्रणाली (हैरानी और झटके से): क... क्या कह रहे हैं आप?
बाबा: हाँ... उसने तुम्हारे भाई की जगह अपने प्राण मौत के नाम कर दिए...
प्रणाली (गहरी साँस लेते हुए): नहीं बाबा... नहीं...
मैंने ऐसा नहीं चाहा था... बस वो ठीक हो जाए...
बाबा: अब तुम यहाँ से जाओ... मैं देख लूँगा सब...
वो जाने लगती है... लेकिन तभी एक धीमी, डगमगाती सी आवाज़...
वर्धानं (साँसों के बीच धीमे स्वर में): त... तुम... रुको...
(उसका हाथ प्रणाली का हाथ पकड़ता है)
प्रणाली ने तुरंत मुड़कर देखा... उसकी आँखें उम्मीद से भर जाती हैं...
प्रणाली (भागते हुए उसके पास): वर्धानं!!! तुम... तुम होश में हो?
कुछ मत बोलो... कुछ नहीं हुआ है... मैं यहीं हूँ...
वर्धानं (टूटती साँसों में): न... नहीं... तुम जाओ...
मैं... मैं ठीक हूँ... मैं तुम्हें यही मिलूँगा... एकदम ठीक...
तुम... जाओ...
प्रणाली (आँसू रोकते हुए): पर मैं कैसे...
बाबा (गंभीर स्वर में): वो सही कह रहा है...
तुम्हारा यहाँ रहना... इसके लिए जानलेवा हो सकता है...
प्रणाली (काँपती आवाज़ में): पर... पर मैं इसे छोड़कर कैसे जाऊँ बाबा...?
(बिना कुछ कहे, वर्धानं की पकड़ ढीली होने लगती है... प्रणाली का दिल काँप जाता है...)
फिर... जैसे ही बाबा प्रणाली के खून को वर्धानं की छाती पर लगाते हैं —
एक तेज़ रोशनी चारों ओर फैल जाती है... आँखें चौंधिया जाती हैं...
और फिर... सब शांत।
प्रणाली (चौंक कर): वर्धानं...?
कोई हरकत नहीं।
उसके शरीर से साँसे भी नहीं चल रही।
प्रणाली (चीखकर): वर्धानं.................!!!!!!!
(वो उसके ऊपर गिर पड़ती है, आँखों से आँसू थम नहीं रहे।)
बाबा (तुरंत उसका मुँह पकड़ते हैं): शांत रहो! अगर आवाज़ आई तो सब कुछ ख़त्म हो जाएगा!
प्रणाली (चीखते हुए): मुझे इसके पास रहना है... इसे छोड़ नहीं सकती बाबा!
बाबा (कठोरता से): अगर तुम यहाँ रहीं तो इसके घरवालों को इसका शरीर भी नसीब नहीं होगा...
(ये सुनते ही प्रणाली की आत्मा जैसे शरीर से निकल गई हो...)
उसकी आँखें शून्य में खो गईं...
आँसू बिना पलक झपकाए बहते जा रहे हैं...
बाबा: अब जाओ यहाँ से!
रेखा अब नहीं है... तुम्हारे सिपाही कभी भी यहाँ पहुँच सकते हैं...
और हाँ —
सैनिकों को यहाँ से दूर ले जाओ... बहुत दूर।
(बाबा की बातों की गूँज उसके दिमाग में लगातार चल रही थी...)
प्रणाली अब उस कुटिया से बहुत दूर निकल गई थी।
सैनिकों को वह कहीं एक पेड़ के नीचे मिले —
वो भी बेसुध, जैसे किसी ने उनमें से जीवन ही खींच लिया हो।
सिपाही (धीरे से): राजकुमारी...? आप... ठीक हैं?
लेकिन प्रणाली कुछ नहीं बोली।
बस बेजान, खाली आँखों से देखती रही...
आँसू... लगातार बहते रहे...
जैसे उसकी आत्मा वहीं किसी के साथ बिछड़ गई हो।