रवि मुस्कराया,
“ठीक है, जैसा तुम चाहो… मैं तुम्हारे साथ चलूंगा।”
रवि और तृषा दोनों दादी से मिलने गांव की ओर निकल पड़े।
घंटों की यात्र के बाद तृषा अपने गांव पहुंचती है।
तृषा ने घर पहुंचने पर जब दरवाजे को खटखटाया,जैसे ही दादी ने दरवाज़ा खोला, तृषा को सामने देखकर उनकी आंखें खुशी से भर आईं।
“अरे मेरी बच्ची!” दादी ने उसे गले लगा लिया।
वे दोनों गले लग कर बहुत खुश हुई।
बहुत दिनों बाद दादी से मिलने की खुशी में तृषा रवि का परिचय दादी से करना भूल ही गई थी।
फिर दादी तृषा से पूछती है... ये कौन है, बेटा,
तृषा 'ओहो'
माफ करना रवि मैं भूल गई थी।
रवि कोई बात नहीं ऐसे ही होता है।
फिर तृषा ने रवि का परिचय भी दादी और सभी घरवालों से करवाया और सभी आंगन में बैठकर बतियाने लगे। थोड़ी ही देर में तृषा की मां ने आवाज़ दी —
“आ जाओ, खाना लग गया है!”
सब खाना खाने बैठे। वही गांव का सादगी भरा स्वाद… वो गर्माहट… तृषा की आंखों में बचपन तैर गया।
खाने के दौरान दादी ने पूछा,
“बता न बिटिया, अचानक कैसे आ गई? कोई खबर भी नहीं दी…”
तृषा भी मां वहीं पास में बैठी थी।
तृषा थोड़ी देर चुप रही, फिर हल्के से मुस्कराई,
“दादी, आपको याद है न… जब आप मुझे बचपन में समुंदर किनारे ले जाती थीं? और मैं कहती थी कि एक दिन उस पार जाऊंगी…”
दादी की आंखों में चमक आई —
“हां, कहती थी… पर अब क्यों पूछ रही है ये सब?”
तृषा गंभीर हो गई।
“क्योंकि दादी… वो दिन आ गया है। मैं जा रही हूं… उसी द्वीप पर… उसके रहस्यों को जानने… अपने सपने को पूरा करने।”
दादी के चेहरे की मुस्कान धीरे-धीरे चिंता में बदल गई।
“नहीं… तुम कहीं नहीं जा रही!
वो टापू ठीक जगह नहीं है… वहां राक्षस रहता है! बचपन से सुनती आई हूं ये बात।”
तृषा ने उनकी आंखों में देखा और प्यार से उनका हाथ थामते हुए कहा,
“दादी… कोई राक्षस नहीं होता। वो सब कहानियां हैं… डर है, जो हम पीढ़ी दर पीढ़ी ढोते आए हैं। लेकिन अब… सच जानना जरूरी है।”
वो रवि की ओर देखती है और कहती है,
“रवि, तुम ही बताओ दादी को — क्या है उस द्वीप पर… और क्या नहीं।”
रवि अब दादी की ओर मुड़ता है… और वह बात शुरू करता है
दादी ने रवि की सारी बातें ध्यान से सुनीं। पहले तो उनकी आंखों में चिंता साफ दिखी और उन्होंने तुरंत मना कर दिया,
“तुम नहीं जाओगी! मैं नहीं चाहती कि तुम उस टापू पर जाओ। वहां तो खतरनाक चीजें हैं… बुरे लोग हैं…”
और पता नहीं क्या क्या होगा?
लेकिन रवि ने शांत स्वर में कहा,
“दादी, हमें कुछ नहीं होगा। हम तो सिर्फ उस जगह का सच जानने जा रहे हैं। हमारे पास जो ज्ञान और समझ है, हम वही लेकर जाएंगे।
हम किसी को नुकसान नहीं पहुंचाएंगे।
हम सिर्फ जानना चाहते हैं कि क्या सच है और क्या नहीं।”
रवि की बातें दादी के मन में गहरे बैठ गईं। वह थोड़ी देर तक चुप रहीं और फिर उनका चेहरा नरम पड़ा।
“ठीक है… अगर तुम दोनों को यकीन है तो मैं तुम्हें मना नहीं कर सकती।
लेकिन तुम अपनी जान को खतरे में मत डालना।”
तृषा, जो अब दादी के पास बैठी थी, उन्हें गहरी नज़रों से देखा और फिर शांत स्वर में कहा,
“दादी, मुझे पता है आपको चिंता है… लेकिन मैं चाहती हूं कि कोई और कभी ऐसी अनदेखी बातें न माने।
मैं चाहती हूं कि आने वाली पीढ़ी के लिए हवा और प्रकृति उतनी ही शुद्ध और सुंदर हो, जितनी हमे पहले मिली थी। मैं नहीं चाहती कि हम सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए सब कुछ नष्ट कर दें।”
उसने दादी का हाथ पकड़ते हुए कहा,
“यह हमारी जिम्मेदारी है, दादी… हम इसे बचाने के लिए जो कर सकते हैं, वह करेंगे।
हम इस दुनिया के अगले हिस्से को बचाने के लिए अपनी पूरी ताकत लगाना चाहते हैं।”
दादी की आंखों में हल्की सी नमी आ गई। वह तृषा को एक गहरी नज़र से देखने लगीं। कि कब उनकी नन्ही बेटी इतनी बड़ी हो गई।
उनकी चुप्पी बताती थी कि वह तृषा के फैसले में विश्वास रख रही थीं, लेकिन एक मां और दादी के तौर पर उनका दिल अभी भी घबराया हुआ था।
तृषा की सारी बातों को सुनकर उसकी मां उठकर अंदर कमरे में चली जाती है।
तृषा भी मां के पीछे पीछे कमरे में चली आई, उसने मां को बहुत ही प्यार से समझाया।
बहुत कोशिशों के बाद तृषा की मां ने भी 'हां' बोल दिया।
रात बहुत हो चुकी थी। वे सब अपने अपने कमरे में सोने चले गए।
पर तृषा को नींद नहीं आ रही थी, वो खिड़की से बाहर देख रही थी।
और उस ठंडी हवा को महसूस कर रही थी जो समुंद्र की लहरों को छू कर आ रही थी।
तृषा के मन में सवाल तो बहुत थे, लेकिन उसके पास सिर्फ एक जबाव था - कुछ ना करने से बेहतर है, कुछ कर के देख लेना।
और इसी जवाब में उसे सुकून मिलता था।
घंटों जागने के बाद तृषा भी सोने चली गई।
गांव की वो सुहावनी सुबह जहां गाड़ियों का शोर नहीं चिड़ियों की चहचहाहट होती है।
जो दिन को और भी खुशनुमा बना देता है।
रवि और तृषा समुंद्र के किनारे सुबह की ताजी ताजी हवा लेने गए थे।
वापस आए तो मां ने नाश्ता तैयार रखा था।
तृषा और रवि नाश्ता कर रहे थे।
तभी दादी ने पूछा... तुम दोनों को कब जाना है?
रवि: आज ही निकलना है।
तृषा 'हां' क्योंकि मौन द्वीप पर पहुंचे में तीन चार दिन तो लगते ही हैं।
दादी ठीक है, आराम से जाना और जल्दी वापस लौट आना।
थोड़ी देर बाद तृषा दादी से विदा लेती है।
दादी उसकी आंखों में देखती हैं और धीरे से कहती हैं,
"तू अपने सपनों को ज़रूर पूरा करेगी मेरी बच्ची… बस लौट कर आना।"
तृषा ने उनकी मुठ्ठी को अपने हाथ में थामा और मुस्कुरा दी, लेकिन आंखों में छुपा डर और जिम्मेदारी वह भी नहीं छिपा सकी।
कुछ समय के बाद वे समुंद्र के किनारे पहुंचते हैं। वे वहां से एक नाव लेते हैं।
तृषा और रवि समुद्र की लहरों के बीच अपनी नांव लिए उस टापू की ओर बढ़ते हैं। नीले आकाश के नीचे फैले विशाल समुंदर में वह यात्रा किसी परीक्षा जैसी लग रही थी।
कई दिनों की यात्रा के बाद जब वे उस टापू के किनारे पहुंचते हैं, तो उनका मन बैठने लगता है।
टापू अब वैसा नहीं था जैसा प्रोफेसर नैनी ने वर्णन किया था।
सौंदर्य की जगह बर्बादी थी। हरियाली की जगह वीरानी।
किनारे पर उतरते ही उनकी नजरें चारों तरफ फैले विनाश को देखने लगती हैं —
सूखे पेड़, उजड़ी हुई ज़मीन, चुप्पी ओढ़े पड़े हुए टूटे-फूटे आशियाने… और कुछ दूरी पर पड़े पक्षियों और जानवरों के कंकाल, जैसे जीवन यहां से पूरी तरह मिट चुका हो।
एक तरफ नीला समुंद्र है और दूसरी ओर एक वीराना टापू जहां कोई जीवन नही।
जैसे-जैसे वे अंदर की ओर बढ़ते हैं, ज़मीन में खुदे हुए गहरे गड्ढे दिखाई देते हैं —
जैसे यहां से कुछ जबरन खींच कर निकाला गया हो।
कभी जड़ी-बूटियों से भरी रहने वाली यह भूमि अब वीरान पड़ी थी।
तृषा वहीं एक टूटे हुए पेड़ के पास रुक गई।
उसकी आंखें भर आती हैं।
"ये वही जगह है, रवि… जहां कभी प्रकृति ने सबसे सुंदर रूप में सांस ली थी।"
रवि ने चुपचाप सिर हिलाया।
"और अब ये जगह चीख भी नहीं सकती…
तृषा बहुत दुखी थी। उस टापू को देख उसका दिल भर आया था। लेकिन उसके मन में एक सवाल लगातार उठ रहा था — "अगर ये टापू पूरी तरह बर्बाद हो चुका है, तो फिर वो रोशनी आज भी कैसे दिख रही है?"
क्या आज भी कुछ है यहां?
रवि ने उसकी ओर देखा और कहा, “तृषा, अब शाम होने को है। हमें यहां रुकने के लिए कोई सुरक्षित जगह ढूंढनी होगी।
क्या अभी भी कुछ बचा था?
आगे...