💫"मैं उन्हें जानता हूं... और ये भी जानता हूं कि वो अब कहां रहते हैं।"
ये सुनकर तृषा की आंखों में चमक दौड़ गई - उसने रवि से पूछा क्या तुम मुझे वहां ले चलोगे।
'हां' रवि ने कहा चल सकते हैं...
तृषा ने रवि से कहा "तो फिर? हम कब चलें?"
रवि ने कहा, "जगह शहर से बहुत दूर है। हम कल सुबह निकलेंगे।"
तृषा थोड़ी मायूस हुई, "आज नहीं जा सकते?" "रात में वहां जाना ठीक नहीं होगा। भरोसा रखो, कल सुबह चलेंगे।" तृषा ने हामी भर दी।
दिन का बाकी वक्त उसने पढ़ाई में बिताया, पर दिल तो उसी एक पल में अटका था जब वो उस इंसान से मिलेगी,
जिसने कभी उस रहस्यमयी "प्रकृति की पुकार" को सुना था...
🌛 उसी रात तृषा अपने कमरे में बैठी थी और उसके अंदर बहुत से सवाल थे।
दादी की कही बातें किताबों में पढ़ा ज्ञान 'वो जगह ठीक नहीं...' और दोनों उसे खींच रहे थे, विपरीत दिशाओं में।
वह सोचती, अगर वो गलत निकली तो? क्या उसका सपना लोगों के डर को बढ़ा देगा?"
रात बहुत हो चुकी थी सब तरफ बस सन्नाटा था अब तृषा को भी नींद आने लगी थी।
🌈 सुबह की पहली किरण तृषा के चेहरे पर पड़ी, और वह झटपट उठ गई।
आज का दिन उसके लिए बेहद खास था उसे प्रोफेसर नैनी से मिलने जो जाना था।
उसने जल्दी से तैयार होकर कॉलेज का रुख किया।
कॉलेज का परिसर अभी शांत था, कुछ ही छात्र-छात्राएं दिखाई दे रहे थे।
तृषा एक कोने में खड़ी थी - कभी बेचैनी से चलती, कभी पास की बेंच पर बैठ जाती।
समय मानो बहुत धीरे-धीरे चल रहा था। तभी उसे सामने से रवि आता दिखाई दिया।
"तुम इतनी देर से क्यों आए?" तृषा ने हल्की झुंझलाहट में पूछा।
रवि मुस्कराया, "मैं देर से नहीं आया, तुम ही आज कुछ ज़्यादा जल्दी आ गई हो।"
तृषा उसकी बात पर मुस्करा दी उसकी बेचैनी अब एक नर्म सी खुशी में बदल रही थी।
🌿 कुछ ही देर में वे दोनों गाड़ी से निकल पड़े। रास्ते में शहर की चहल-पहल धीरे-धीरे पीछे छूट गई,
और हरियाली, खुला नीला आसमान, और शांत रास्ते तृषा को एक नई दुनिया में ले जा रहे थे।
🌸 प्रोफेसर नैनी का घर शहर से बहुत दूर एक सुरम्य घाटी में था - जहाँ न तो गाड़ियों का शोर था, न भीड़-भाड़।
सिर्फ ठंडी हवाओं की सरसराहट थी,
पत्तों की मधुर सरगम थी, और दूर कहीं चिड़ियों की चहचहाहट।
जब गाड़ी एक पतले रास्ते से होकर गुज़री और आखिरकार एक पुराने लेकिन खूबसूरत कॉटेज के सामने रुकी - तृषा की आँखें उस जगह की सुंदरता में खो गईं।
चारों ओर प्रकृति अपनी पूरी भव्यता में खिली थी।
"मैंने कभी इतनी प्यारी जगह नहीं देखी," तृषा ने धीमे स्वर में कहा।
फिर हल्की मुस्कान के साथ बोली "लगता है... कहीं मैं यहां खो न जाऊं।"
रवि ने उसकी ओर देखा, और बिना कुछ कहे बस सिर हिला दिया -
जैसे वो समझता हो कि तृषा का ये खो जाना सिर्फ एक जगह में नहीं, बल्कि एक खोज में था... जिसे अब वो पूरा करने वाली थी।
तभी रवि मुस्कुराते हुए कहता है, " तृषा अगर तुम यहीं खो गईं तो फिर प्रोफेसर नैनी से कौन मिलेगा?" तृषा हँसते हुए कहती है, "नहीं,
मैं मिलूंगी ज़रूर।
मुझे तो उनसे बहुत कुछ जानना है।" फिर वह रवि से पूछती है, "पर तुम उन्हें जानते कैसे हो?"
रवि थोड़ा टालते हुए कहता है,
"आगे चलो, सारे जवाब अंदर ही मिलेंगे।"
वे दोनों घर की ओर बढ़ते हैं और दरवाजे पर पहुँचते हैं।
रवि दस्तक देता है। कुछ पल बाद अंदर से आवाज आती है, "रुको, अभी आती हूँ।"
दरवाज़ा खुलता है और सामने एक सौम्य-सी महिला खड़ी होती हैं।
तृषा झिझकते हुए पूछती है, "क्या आप प्रोफेसर नैनी हैं?"
महिला मुस्कुराकर कहती हैं, "नहीं, वो तो मेरे पति हैं।" तृषा झेंप जाती है और कहती है, "माफ़ कीजिए, मुझे लगा आप ही...
" तभी रवि पूछता है, "क्या प्रोफेसर नैनी अभी हैं?"
वो कहती हैं, "हाँ, वो अपने अध्ययन कक्ष में हैं।"
रवि और तृषा भीतर की ओर बढ़ते हैं।
रास्ता बहुत शांत था, जैसे हर चीज़ कुछ कह रही हो। रवि कहता है इधर जाना है...
तृषा फुसफुसाकर रवि से पूछती है, "तुम्हें कैसे पता कि उधर जाना है?" रवि मुस्कुराता है,
"अभी सब पता चल जाएगा। तुम चलती रहो।
" जब वे अध्ययन कक्ष के पास पहुँचते हैं, रवि दरवाज़ा खटखटाता है। भीतर से धीमी-सी आवाज आती है, "आ जाओ।"
दरवाज़ा खुलता है और सामने सफ़ेद बालों वाले एक बुजुर्ग प्रोफेसर दिखाई देते हैं।
आँखों में गहराई, और चेहरों पर सालों की मेहनत की झलक। "ओह, रवि ! आओ अंदर।"
रवि और तृषा अंदर आते हैं। रवि धीरे से तृषा का परिचय करवाता है।
प्रोफेसर नैनी, तृषा की आँखों की चमक और आवाज़ के जोश को देखकर मुस्कुराते हैं, "बहुत अच्छा लगा तुमसे मिलकर, बेटा।
"आजकल के समय में बहुत कम युवा ऐसे सवालों में दिलचस्पी लेते हैं।" तभी प्रोफेसर की पत्नी चाय लेकर आती हैं। "रवि, तुम्हारे लिए कम शुगर वाली चाय लाई हूँ।"
तृषा हैरान होकर रवि से पूछती है, "तुम्हें इतनी चीजें कैसे पता हैं?
तुम इन्हें पहले से जानते हो?"
प्रोफेसर हँसते हुए कहते हैं, "क्या इसने तुम्हें नहीं बताया? तृषा ने कहा नहीं।
प्रोफेसर नैनी ने बताया, "रवि मेरा सबसे प्रतिभाशाली शिष्य है।"
तृषा, रवि की ओर देखती है थोड़ी मुस्कुराती है, थोड़ी उलझन में।
रवि कहता है, "मैं चाहता था कि तुम सब कुछ अपनी नजर से देखो, बिना किसी पूर्व सोच के।"
प्रोफेसर आगे कहते हैं, "जिस विषय पर तुम्हें जानना है- समुद्र, पार की दुनिया, और वो आदिवासी लोककथाएं - रवि ने भी वर्षों तक उस पर अध्ययन किया है।"
अध्ययन कक्ष में बैठे प्रोफेसर, रवि और तृषा आपस में बात कर रहे थे।
फिर तृषा कहती हैं "प्रोफेसर, ये प्रकृति की पुकार' आपकी लिखी किताब है ना?"
प्रोफेसर नैनी मुस्कराकर बोले "हाँ, ये किताब मैंने ही लिखी है।"
तृषा थोड़े संकोच से पूछती है "जो कुछ इसमें आपने लिखा है... क्या वो सब सच है?"
प्रोफेसर गम्भीरता से कहते हैं "जो कुछ लिखा है, वो मेरे अनुभव पर आधारित है।
मैंने इस विषय पर बहुत अध्ययन किया है और जो जाना, महसूस किया, उसी को शब्दों में ढाला।"
तृषा और रवि, दोनों ही उनकी बातें ध्यान से सुन रहे थे। कुछ देर बाद तृषा फिर बोली "क्या आप मुझे विस्तार से बता सकते हैं कि इस किताब की बातें कैसे आपके अनुभव से जुड़ी हैं?"
प्रोफेसर मुस्कराकर बोले "बिलकुल... लेकिन उससे पहले, मैं जानना चाहूँगा इस किताब में तुम्हारी इतनी गहरी रुचि क्यों है?"
तृषा ने बड़ी विनम्रता और गहराई से जवाब दिया "जिस गांव से मैं आती हूँ, वो समुद्र के किनारे बसा है। वहाँ के लोग आज भी 'उस पार' की किसी अनजानी घटना से डरते हैं। उनके लिए वो एक रहस्य है... और शायद डर भी।
बचपन से मैं वो रोशनी देखती आई हूँ, जो समुद्र के उस पार दिखती है।
सब कहते हैं, वहाँ कोई राक्षस है, पर मैंने हमेशा सोचा हैं। राक्षस होते नहीं, बनाये जाते तभी से सोच लिया था।
मैं वहाँ जाऊँगी... और उन सबको बताऊँगी कि डर के पीछे सिर्फ अनजानी बातें होती हैं, ना कि कोई राक्षस ।"
प्रोफेसर नैनी उसकी बातें सुनकर उसकी जिज्ञासा और साहस की सराहना करते हैं।
"तुम वाकई अपने मकसद में सफल हो सकती हो, तृषा।
क्योंकि तुम अफ़वाहों से नहीं, सच से डर मिटाने निकली हो।"
तृषा हल्की मुस्कान से पूछती है - "तो क्या आप मेरी मदद करेंगे?"
इससे पहले कि प्रोफेसर कुछ कहते, रवि बोल पड़ता है। "सिर्फ प्रोफेसर ही नहीं... मैं भी तुम्हारी मदद करूँगा।
क्योंकि मुझे भी ये जानना है कि समुद्र के उस पार क्या है।"
तृषा उसकी ओर देखकर मुस्कुराती है -
"तो अब हम दोस्त हैं, और इस यात्रा पर साथ चलेंगे जो यात्रा मैंने शुरू तो की है, पर ये नहीं जानती, कि जाना कहाँ है..." रविः "हाँ, मैं साथ चलूँगा
क्योंकि यही तो एक सच्चा दोस्त करता है।"
तृषा: "तो चलिए...
अब बताइए प्रोफेसर, आपको कैसे पता कि जो इस किताब में है वो सच है?
"प्रोफेसर नैनी थोड़ी देर चुप रहे, जैसे कुछ याद कर रहे हों फिर बोले...
"मैं भी तुम्हारी ही तरह जिज्ञासु था। हर सवाल मुझे बेचैन करता था।
मैंने महसूस किया कि जिन उत्तरों की तलाश मुझे है, वो कहीं और नहीं प्रकृति में, और शायद... मेरे भीतर ही छुपे हैं।"
"मैंने खूब मेहनत की। धीरे-धीरे एक प्रतिष्ठित संस्था से जुड़ गया जो ऐसे क्षेत्रों में शोध करती थी, जो मानव जीवन को नई दिशा दे सकें।"
"वहाँ हम टीम बनाकर काम करते थे।
एक दिन हमें सूचना मिली - कि हमें एक रहस्यमयी द्वीप पर जाना है। जिसका नाम मौनद्वीप था।
जो समुद्र के उस पार था..."
प्रोफेसर नैनी ने बताया कि दो दिन बाद हमारी टीम समुद्र के उस पार जाने के लिए निकल पड़ी।
मौनद्वीप पहुंचने में लगभग तीन से चार दिन लगने वाले थे। इसलिए हम पूरी तैयारी के साथ जा रहे थे।
हम सब निकल तो पड़े थे, पर हमें इस बात का कोई अंदाज़ा नहीं था कि आगे क्या होने वाला है।
हम सब समुद्र के किनारे पहुँचे और वहाँ से एक नाव लेकर निकल पड़े।
जैसे ही हम बीच समुद्र में पहुँचे, अचानक तेज़ तूफ़ान आ गया। और समुंद्र की लहरें बहुत तेज हो गई थी।
उस समय किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें।
धीरे-धीरे तूफ़ान और भी तेज़ होने लगा और नाव भी तूफ़ान के कारण अपना संतुलन खोने लगी।
समुंद्र के तेज प्रवाह के कारण हमारी नांव डूबने लगी थी। फिर हम सबको लगने लगा था कि अब हम नहीं बचेंगे।
जब मेरी आँखें खुली, तो मैंने खुद को समुंद्र के किनारे उसी मौनद्वीप पर पड़ा पाया, और अब तक तूफान भी शांत हो चुका था।
हमारी नांव पूरी तरह नष्ट हो गई थी। कुछ नहीं बचा था।
मैं कोशिश कर के धीरे से उठा और अपनी टीम को आस पास ढूंढने लगा लेकिन वहां कोई नहीं था। सिर्फ़ "मैं" अकेला था। मेरे किसी भी साथी की मुझे कोई जानकारी नहीं थी।
शायद वे सब तूफ़ान में मर गए, या फिर कहीं और पहुंच गए होंगे। ये सब मेरे अंदर चल रहा था।
मौनद्वीप रहस्य क्या है?
आगे...