Samunder ke us Paar - 7 in Hindi Fiction Stories by Neha kariyaal books and stories PDF | समुंद्र के उस पार - 7

Featured Books
Categories
Share

समुंद्र के उस पार - 7

तृषा ने हामी भरी और रवि से कहा चलो थोड़ा ओर आगे बढ़ते हैं,

शायद आगे कोई सुरक्षित स्थान मिल जाए।

सूरज भी डूबने को था।

तृषा और रवि आगे बढ़ रहे थे तभी उन्हें पानी के बहने की आवाज सुनाई दी ।

रवि ने कहा लगता है वहां कोई नदी है।

तृषा शायद,

चलो देखते हैं,

वे दोनों उस नदी के पास पहुंचे। नदी के आस पास ठहर ने के लिए बहुत जगह थी। वो जगह सुरक्षित भी लग रही थी।

रवि और तृषा ने वही पर अपना तम्बू बनाने का विचार किया।

धीरे धीरे अंधेरा गहरहराता जा रहा था।

तृषा और रवि अपने अपने तम्बू में सोने के लिए चले गए।

वे दोनों अपने तम्बू में सो रहे थे कि आधी रात में तृषा की नींद अचानक टूट गई, 

उसने जब तम्बू से बाहर देखा तो वह चौंक गई।

सामने वही रोशनी थी जिसे बचपन से समुद्र के किनारे से देख रही थी। 

उसने झट से रवि को आवाज दी, रवि भी उसकी आवाज सुनकर उठ गया।

रवि ने तृषा से पूछा क्या हुआ?

तृषा: रवि देखो ये वही रोशनी है जिस के बारे में मैंने बताया था।

तृषा अपने तम्बू से बाहर आती है।

रवि भी बाहर आ गया। दोनों ने देखा कि वह रोशनी एक पहाड़ी के पिछली ओर से आ रही थी — रहस्यमय, शांत… और आकर्षित करने वाली।


“क्या इस टापू पर अब भी कुछ बचा है?” तृषा ने खुद से सवाल किया।

“चलो, चलकर देखते हैं,” तृषा ने कहा।

रवि थोड़ा चिंतित था, उसने कहा क्या ये सुरक्षित है। हमारा वहां जाना।
तृषा बोली अगर हम नहीं गए तो जानेंगे कैसे, उस पार क्या है?

रवि: ठीक है, पर सावधान रहना। यहां कुछ भी हो सकता है।”

दोनों अब उस रोशनी की दिशा में चल पड़े।


तृषा और रवि उस रोशनी का पीछा करते हुए पहाड़ी के ऊपर चढ़ गए।

थोड़ी सी मुश्किलों के बाद वे पहाड़ी के उस पार पहुंचे।

जैसे ही वे दूसरी ओर पहुंचते हैं,  तृषा और रवि आश्चर्यचकित रहे जाते हैं।

उनकी आंखों में एक चमक भर जाती है।

सामने फैला वह टापू का हिस्सा अभी भी हरा-भरा था — ठीक वैसा ही जैसा प्रोफेसर नैनी ने बताया था।

जिस रोशनी का वे पीछा कर रहे थे, वह असल में कबीले के लोग थे,
जो अब भी अपने देवता की पूजा करते थे और पूरी निष्ठा से प्रकृति की रक्षा में लगे थे।

यह दृश्य देख तृषा की आंखें भीग जाती हैं।

रवि कहता है...
“प्रोफेसर ने इस हिस्से के बारे में तो कभी बताया ही नहीं।”
तृषा मुस्कराकर कहती है, “शायद उन्हें भी इसका पता नहीं था — और अच्छा ही हुआ।
वरना ये हिस्सा भी इंसानी लालच की भेंट चढ़ जाता।”

रवि ने कहा तुम सही हो तृषा, हम मनुष्य अच्छे नहीं हैं।


वे दोनों देर तक वहीं बैठकर प्रकृति को निहारते हैं।
उन सुंदर फूलों को, पेड़ो को जो बहुत ही अलग थे।
जो किसी का भी मन मोह लेते थे।

तृषा धीरे से कहती है,
“मैं इनसे नहीं मिलूंगी, रवि।
मैं नहीं चाहती कि किसी को भी इस हिस्से का सच पता चले।
क्योंकि अगर आज ये टापू बचा है, तो सिर्फ इन लोगों की वजह से। 
हम सिर्फ लौटकर अपने दिल में ये सच्चाई संजोकर ले जाएंगे।”
रवि सहमति में सिर हिलाता है।

थोड़ी देर बाद वे चुप चाप वापस अपने तम्बू में लौट आए।

वे दोनों अपने तंबू में सुकून से सोते हैं — पहली बार मन में एक शांति के साथ।

अगली सुबह वे वापस घर की ओर निकलते हैं।

वे अपनी नाव के पास लौटते हैं। जो मौन द्वीप पर समुद्र के किनारे खड़ी थी।

तृषा रवि से कहती है की हमने जो भी इस द्वीप पर देखा वो बाहर सबके लिए एक राज ही रहेगा।
रवि और तृषा एक दूसरे से वचन लेते हैं।

टापू अब उनके लिए सिर्फ एक जगह नहीं, बल्कि एक प्रतिबद्धता बन चुका था।

एक लम्बे सफर के बाद वे वापस अपनी दुनिया में पहुंचते हैं।

घर लौटते ही तृषा दादी से मिलती है,
जो उसे देख गले से लगा लेती हैं।
तृषा कहती है, “दादी, मेरा सपना पूरा हुआ। मैं देख आई उस टापू को।”
दादी: तो क्या तुम्हें अपने सवालों के जवाब मिले?
तृषा हां,
और मैं बहुत खुश हूँ।

कुछ दिन बाद, तृषा और रवि वापस अपने होस्टल लौट आते हैं।
अब वे जान चुके थे कि यदि समय रहते प्रकृति को नहीं बचाया गया, तो इंसान भी ज्यादा दिनों तक नहीं बच पाएगा।

समय बीतता है।

पढ़ाई पूरी होने के बाद, तृषा और रवि - जो अब एक-दूसरे के सबसे अच्छे साथी बन चुके थे।

अब वे दोनों शादी करने का फैसला लेते है। 

लेकिन उनकी ज़िंदगी का असली सपना शादी नहीं, बल्कि प्रकृति की सेवा था।

वे दोनों उसी कॉलेज में प्रोफेसर की नौकरी कर रहे थे।
जैसे प्रोफेसर नैनी कभी थे - और छात्रों को एक ही बात सिखाते हैं: "प्रकृति है, तभी हम हैं।
उसे बचाना सिर्फ ज़िम्मेदारी नहीं एक कर्ज़ है। और जो कर्ज़ नहीं चुकाता, वह भविष्य नहीं पाता।"

"तृषा और रवि ने मिलकर एक 'Nature Fellowship' शुरू की, जहाँ हर साल कुछ युवा छात्रों को लेकर वे प्राकृतिक स्थलों पर जाते और उन्हें सिखाते कि सिर्फ विज्ञान नहीं, संवेदना भी ज़रूरी है।"

उन दोनों ने एक NGO भी शुरू किया और उन सब युवाओं को शामिल किया, जो प्रकृति की रक्षा को अपना कर्तव्य समझते थे।

वे गांव और शहरों में बड़े बड़े कैंप लगते और प्रकृति का महत्व समझते।


"हर पीढ़ी को अगली पीढ़ी के लिए कुछ छोड़ जाना होता है।
पर सवाल ये है - कि हम क्या देकर जायेंगे?
धुंआ, सन्नाटा और उजड़े जंगल...
या ताजी हवा, हरियाली और एक जिंदा धरती?"

ये हमें सोचना है।

                                 ***


Neha kariyaal ✍️ 

अगर मेरी कहानी अच्छी लगी तो comments करें,
और अगली कहानी के लिए Follow करे।
धन्यवाद।