मैंने देखा, सब कुछ तहस-नहस हो चुका था। मेरी टीम के बाक़ी सदस्यों का कोई पता नहीं था। मैंने उन्हें बहुत ढूँढा लेकिन वे नहीं मिले।
मुझे तो ये भी नहीं पता था कि अब मैं यहाँ से वापस कैसे जाऊँगा।
मेरी सारी उम्मीदें टूट चुकी थीं। कुछ हफ्तों तक बस मैं यही सोचता रहा कि मेरी टीम के लोग कहाँ गए...
क्या वे ज़िंदा भी हैं या नहीं? अगर हैं, तो कहाँ होंगे?
और जब मैं उस टापू पर पहुँच ही गया था, तो ज़िंदा रहने के लिए कुछ तो करना था।
इसलिए मैं निकल पड़ा अपने लिए कुछ खाने की तलाश में। इतने दिनों में वो पहली बार था जब मैं उस मौनद्वीप के अंदर जा रहा था।
मुझे घबराहट हो रही थी। पता नहीं अंदर क्या होगा? क्या ये जगह सुरक्षित भी है या नहीं?
फिर मैं सोचता हूँ - अगर अंदर नहीं गया, तो वैसे भी मर ही जाऊँगा।
इसी बात को सोचकर मैं अंदर की ओर बढ़ा। जंगल धीरे धीरे घना होता जा रहा था।
जैसे ही मैं कुछ दूर चला, मैंने जो देखा... वो अद्भुत था।
एक ऐसा टापू जो समुद्र के बीचों बीच था और वहाँ के पेड़-पौधे, अजीब पर सुंदर पक्षी और जानवर... हर चीज़ जैसे एक और ही दुनिया में ले जाती हो।
उस टापू पर खनिज भी थे जो हमारे जीवन को और भी बड़ी उपलब्धि दिला सकते थे, और शायद इसलिए हमें वहां भेजा गया था।
खोज के लिए,
वहाँ जीने के लिए हर साधन था। वहीं जंगल के बीच से एक नदी बह रही थी। उसकी लहरों से एक मधुर संगीतमय ध्वनि निकल रही थी -
क्योंकि वे लहरें उन छोटे-बड़े पत्थरों से टकरा रही थीं।
और पूरे जंगल को वो धुन सुना रही थी।
जो उस टापू को और भी सुंदर बना रही थी।
मैं तो बस यही सोच रहा था क्या सच में इस भीड़-भरी दुनिया में इतनी शांत और पवित्र जगह हो सकती है?
अब मैं उस प्रकृति के भीतर खुद को महसूस करने लगा था।
मैं पूरी तरह बाहर की दुनिया को भुला चुका था।
पर फिर भी उस टापू की हर चीज़ मेरे लिए नई और अनजानी थी।
ऐसे ही धीरे धीरे समय बीतता रहा। अब वो जंगल ही मेरे लिए घर था।
एक रात जब मैं अकेला बैठा सोच रहा था, तभी मुझे जंगल के भीतर से एक अजीब सी रोशनी आती दिखाई दी।
पहले तो मैं घबरा गया, पर फिर मन में हिम्मत लाकर उस रोशनी की ओर बढ़ा।
जब मैं वहाँ पहुँचा... तो देखा कि एक आदिवासी कबीला वहाँ जश्न मना रहा था।
ढोल की थाप, गीतों की गूंज और आग के चारों तरफ नाचते उनके चेहरे एक पल को मैं बस स्तब्ध खड़ा रहा।
मैंने कभी नहीं सोचा था कि इस टापू पर कोई इंसान भी हो सकता है, और वो भी ऐसा कबीला जिसका रहन-सहन, भाषा और जीवनशैली हमारे जैसे बिल्कुल भी नहीं थी।
उनकी अपनी ही एक दुनिया थी।
मैं चुपचाप सब देख ही रहा था कि पीछे से एक आदिवासी ने मुझे पकड़ लिया। वो मुझे कबीले के मुखिया के पास ले गया।
मुखिया ने अपनी भाषा में कुछ पूछा शायद ये कि मैं कौन हूँ और यहाँ क्या कर रहा हूँ।
लेकिन मुझे उनकी भाषा समझ नहीं आ रही थी। फिर भी मैंने इशारों और शब्दों के सहारे उन्हें समझाने की कोशिश की कि मैं यहाँ फँस गया हूँ, और अब अकेला हूँ। मेरे सभी साथी मर चुके हैं।
बहुत कोशिशों के बाद वो मेरी बात को समझ पाए।
उनके चेहरे पर अब संदेह नहीं, सहानुभूति थी।
जिन्हें मैं शुरू में डरावना समझ रहा था वो भीतर से उतने ही अच्छे और सीधे थे।
मैं वहीं उनके बीच रहने लगा। धीरे-धीरे मैं उनके जीवन को समझने लगा और उनके जीवन का हिस्सा बन गया।
तब मुझे पता चला कि वो लोग इस टापू की रक्षा कर रहे हैं। इस प्रकृति की, इस शांति की, जिसे वो अपना देवता मानते हैं।
उस कबीले के लोग यही चाहते थे कि बाहरी दुनिया इस टापू से दूर रहे।
उन्हें अंदाज़ा था कि अगर किसी को भी इस जगह की मूल्यवान वस्तुओं की भनक लग गई, तो वो इसे तबाह कर देंगे… और कुछ नहीं छोड़ेंगे।
अब ये बात मुझे भी समझ आ गई थी —
हम इंसान अब इतने स्वार्थी हो चुके हैं कि अपने फायदे के लिए कुछ भी कर सकते हैं।
और हमने किया क्या है अब तक?
सिर्फ और सिर्फ प्रकृति का दोहन।
हम अपने आपको “विकसित” कहते हैं, लेकिन भूल जाते हैं —
कि जिस प्रकृति ने हमें साँस दी, जीवन दिया,
आज हम उसी को नष्ट कर रहे हैं।
हम पढ़े-लिखे कहलाते हैं,
लेकिन उन आदिवासी लोगों से बहुत पीछे हैं,
जो जानते हैं कि जब पेड़ नहीं होंगे,
तो जीवन भी नहीं बचेगा।
अब मुझे इस बात का कोई दुख नहीं था कि मैं अपने घर लौट पाऊँगा या नहीं,
या कि बाहर भी कोई दुनिया है या नहीं —
अब मैं उन्हीं में से एक था।
अब मैं भी उसी जंगल, उसी प्रकृति की रक्षा करना चाहता था।
उस टापू पर वह सब कुछ था
जो हमारे लिए अब भी अनमोल था —
लेकिन मुझे डर लगने लगा था कि अगर किसी बाहरी को इस जगह का पता चल गया…
तो शायद ये शांत स्वर्ग नष्ट हो जाएगा।
इधर समय बीत रहा था,
और उधर मेरी संस्था हम सबकी खोज में लग गई थी।
कई महीनों से हमारे कोई संकेत नहीं थे,
इसलिए उन्होंने एक खोजी टीम बनाई —
जो समुद्र पार हमें ढूँढ़ने निकल पड़ी।
मुझे इन सब बातों का कोई अंदाज़ा नहीं था।
जब वह टीम उस टापू पर पहुँची,
तो उन्होंने झाड़ियों में कुछ सामान देखा —
हमारी टीम का सामान।
उन्हें यकीन हो गया था कि हम यहाँ ज़रूर आए थे…
और शायद हमारे साथ कुछ अनहोनी हुई है।
वे और आगे बढ़े,
और बहुत ढूंढने के बाद उन्हें कुछ जगह पाँच इंसानी कंकाल मिले।
सन्नाटा फैल गया।
एक सदस्य बोला,
“हमारी टीम तो छह लोगों की थी… ये तो सिर्फ पाँच हैं…”
सब चौंक गए।
क्या इसका मतलब ये था कि…
कोई एक अब भी ज़िंदा है?
वे लोग निर्णय लेते हैं कि अब उन्हें टापू के और अंदर जाना चाहिए।
अपने साथी की खोज में।
हालाँकि लंबी यात्रा ने उन्हें थका दिया था, इसलिए पहले वे वहीं किनारे के पास कुछ देर सुस्ताने का निर्णय लेते हैं।
थोड़ी देर में जब उनके शरीर को थोड़ा आराम मिल जाता है, तो वे फिर धीरे-धीरे जंगल की ओर बढ़ने लगते हैं।
जैसे-जैसे वे टापू के भीतर दाखिल होते जाते हैं, वातावरण बदलता जाता है।
हवा और भी शुद्ध और ठंडी महसूस होती है, और तभी उनकी नज़र उस जंगल पर पड़ती है जिसे देखकर उनके होश उड़ जाते हैं।
चारों तरफ इतने घने और रंग-बिरंगे पेड़-पौधे, जैसे किसी चित्रकार ने कल्पना से सजाए हों।
फूल इतने अनोखे और चमकते हुए थे,
कि शायद उन्होंने अपने जीवन में पहले कभी वैसा कुछ नहीं देखा था।
पत्तों पर सूरज की रोशनी जब गिरती, तो लगता जैसे हर शाखा पर सोना बरस रहा हो। हर ओर एक अनकहा संगीत था नदी की हल्की-सी आवाज़, पत्तियों की सरसराहट, और पक्षियों की मधुर बोली...
वे सब कुछ पल के लिए भूल गए कि वे किस उद्देश्य से यहाँ आए हैं, और क्यों उन्हें किसी को ढूँढना है।
कभी-कभी प्रकृति का सौंदर्य इतना तीव्र होता है, कि वो हर भय, हर उद्देश्य को कुछ पल के लिए मौन कर देता है।
उन्हें लगने लगा था कि इस टापू पर वे सभी अनमोल वस्तुएँ मौजूद हैं, जिनकी उन्हें वर्षों से तलाश थी।
जैसे-जैसे वे आगे बढ़ते गए, उन्हें इंसान के पैरों के कुछ निशान दिखाई दिए।
वे चौंक उठे , फिर सोचने लगे-शायद ये निशान उनकी ही टीम के किसी सदस्य के हों।
वे बिना समय गँवाए उन निशानों के पीछे-पीछे चलने लगे। रास्ता घना और रहस्यमय होता जा रहा था। कुछ ही देर में अंधेरा गहराने लगा और रात छा गई।
अब आगे बढ़ना मुश्किल था, इसलिए उन्होंने जंगल के एक सुरक्षित हिस्से में रुकने का निर्णय लिया।
कुछ दूर चलने पर उन्हें एक सुरक्षित स्थान मिला, और वहीं पर वे अपना तंबू लगा लेते हैं।
जैसे-जैसे रात गहराती गई, जंगल का रूप भी बदलता गया।
वो पेड़ और फूल, जो दिन में सामान्य दिख रहे थे, अब रात की नमी और चाँदनी में धीरे-धीरे चमकने लगे थे। कुछ फूलों की कोमल रोशनी और उनकी सुगंध पूरे जंगल को प्रकाशित, और महका रही थी, जैसे कोई स्वप्निल संसार हो-जहाँ अंधेरा भी सुंदर था।
जब प्रोफेसर नैनी उन्हें यह कहानी सुना रहे थे, तृषा पूरी तरह उस कथा में डूब चुकी थी।
उसे ऐसा लग रहा था जैसे वह खुद उस कहानी का हिस्सा हो-मानो जंगल की नमी, समुद्र की लहरें और वो चमकता हुआ टापू उसकी आँखों के सामने जीवंत हो उठे हों।
तभी अचानक प्रोफेसर चुप हो जाते हैं। तृषा का भावनाओं से भरा भ्रम टूट जाता है। वह बेचैनी से पूछती है, "आपने कहानी अधूरी क्यों छोड़ दी, प्रोफेसर ?
प्रोफेसर नैनी चुप रहे?
आगे उस जंगल का एक और रहस्य...
आगे...