भूल-2
जिन्ना को पाकिस्तान की राह दिखाना
वर्ष 1937-38 के प्रांतीय चुनावों से पहले कांग्रेस को संयुक्त प्रांत में अपने दम पर सरकार बनाने के लिए पर्याप्त सीटें मिलने की उम्मीद नहीं थी। ऐसा मैदान में मौजूद उन दूसरे दलों के चलते था, जिनके पास जमींदारों और प्रभावशाली वर्गों का बेहद मजबूत समर्थन प्राप्त था। इसलिए सरकार बनाने में सक्षम होने के लिए उसने मुसलिम लीग के साथ एक उपयुक्त गठबंधन करने की योजना बनाई थी। मुसलिम लीग को पर्याप्त सीटें मिलें, जिससे गठबंधन सफल हो सके, इसलिए कांग्रेस के रफी अहमद किदवई (जो मोतीलाल नेहरू के निजी सचिव थे और मोतीलाल की मृत्यु के बाद जवाहरलाल नेहरू के एक अभिन्न सहयोगी रहे) ने नेहरू के साथ कई प्रभावशाली मुसलमानों, जिनमें खलीक-उज-जमान (ए.आई.एम.एल. के पदानुक्रम में जिन्ना और लियाकत अली खाँ के बाद तीसरे स्थान पर) और नवाब मोहम्मद इस्माइल खाँ जैसे लोग शामिल थे, जिनमें जीतने की काबिलियत थी, को मुसलिम लीग की तरफ से चुनाव लड़ने के लिए राजी किया; क्योंकि मुसलिम लीग के झंडे तले लड़ने वाले मुसलमानों के जीतने की संभावना काफी अधिक थी। वे लड़े और जीते। लेकिन चुनावों के बाद जब कांग्रेस को ऐसा लगा कि वह मुसलिम लीग के समर्थन के बिना ही अपने दम पर सरकार का गठन कर सकती है तो उसने अनुचित शर्तें रखनी शुरू कर दीं। (डी.डी./181-83)
यू.पी. के मंत्रिमंडल में मुसलिम लीग के दो मंत्रियों को शामिल करने के प्रस्ताव के बदले में नेहरू, जो उस समय कांग्रेस अध्यक्ष थे और साथ ही उत्तर प्रदेश के मामलों को भी देख रहे थे, ने बेहद ही अजीब और अहंकारी शर्त रख दी—लीग के विधायकों का विलय कांग्रेस में करने की! दूसरी बातों के अलावा नेहरू-आजाद द्वारा विशेष रूप से लागू की जानेवाली शर्तें कुछ ऐसी थीं—
“संयुक्त प्रांत विधानसभा में मुसलिम लीग समूह एक अलग समूह के रूप में काम करना बिल्कुल बंद कर देगा। यूनाइटेड प्रोविंस असेंबली में मुसलिम लीग पार्टी के मौजूदा सदस्य कांग्रेस पार्टी का हिस्सा बनेंगे। यूनाइटेड प्रोविंस में मुसलिम लीग संसदीय बोर्ड भंग कर दिया जाएगा और उसके बाद होनेवाले किसी भी उप-चुनाव में उक्त बोर्ड द्वारा कोई भी उम्मीदवार खड़ा नहीं किया जाएगा।” (शैक/187)
“नीचा दिखानेवाली उपर्युक्त स्थिति, जो निश्चित रूप से लीग के लिए मौत के परवाने जैसी थी, को जिन्ना द्वारा स्वाभाविक रूप से अस्वीकार कर दिया गया।” (गिल/179-80)
बंबई में कांग्रेस के नामित मुख्यमंत्री बी.जी. खेर अपने मंत्रिमंडल में मुसलिम लीग के एक मंत्री को शामिल करने के इच्छुक थे, क्योंकि कांग्रेस को पूर्ण बहुमत नहीं मिल पाया था और इस तथ्य के मद्देनजर कि मुसलिम लीग ने बंबई के मुसलिम बहुल इलाकों में अच्छा प्रदर्शन किया था, जिन्ना ने इस संबंध में गांधी को एक पत्र लिखा। गांधी ने 22 मई, 1937 को जिन्ना को एक रहस्यमयी और अस्वाभाविक रूप से नकारात्मक जवाब दिया :
“श्रीमान खेर ने मुझे आपका संदेश दिया। काश, मैं कुछ कर पाता! लेकिन मैं पूरी तरह से असहाय हूँ। एकता (हिंदू-मुसलिम) में मेरा भरोसा हमेशा की तरह उज्ज्वल है; लेकिन ऐसा है कि मैं इस अभेद्य अँधेरे में रोशनी की कोई किरण नहीं देख पा रहा हूँ और मैं उजाले के लिए ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ।” (सी.डब्ल्यू.एम.जी./खंड-71/277)
इसके बाद जिन्ना ने गांधी से मुलाकात करने का प्रयास किया; लेकिन गांधी ने उन्हें यह कहते हुए अबुल कलाम आजाद से मिलने की सलाह दी कि वे भी ऐसे मामलों में उनकी ही राय लेते हैं। दो-टूक जवाब मिलने से अपमानित जिन्ना ने तब कांग्रेस व नेहरू-गांधी को उनकी जगह दिखाने का फैसला किया। इस घटना से अन्य मुसलमान नेताओं को भी यह भरोसा हो गया कि कांग्रेस की पूर्ण बहुमत वाली सरकार हमेशा मुसलमानों के हितों को अपने पैरों तले कुचलने का काम करेगी। दावा तो यह किया जाता है कि इस उलझन के चलते ही मुसलमानों के बुरी तरह से आहत आत्मसम्मान ने उन्हें कांग्रेस से दूर जाने और मुसलिम लीग की ओर बेहद तेजी से बढ़ने और अंततः अलग होने के लिए प्रेरित किया।
जिन्ना और मुसलिम लीग के लिए यह घटना दुःख के वेश में सुख के रूप में आई, क्योंकि उन्होंने यह महसूस किया कि उनकी राजनीति को अब बड़े पैमाने पर कांग्रेस का मुकाबला करने के लिए आधारित होने की जरूरत है। ए.आई.एम.एल. के लिए सदस्यता शुल्क को नाटकीय रूप से घटाकर सिर्फ दो आना कर दिया गया। मुसलमानों के बीच सदस्यता को बढ़ाने के लिए बड़े कदम उठाए गए और इसका भरपूर फायदा भी मिला—इसके सदस्यों की संख्या बेहद तेजी के साथ कुछ हजार से बढ़कर करीब पाँच लाख से अधिक तक पहुँच गई! जिन्ना ने अपने समर्थकों से कहा कि उन्होंने अतीत में कांग्रेस के सामने बहुत हाथ फैला लिये—और अब वे वह दिन देखना चाहते हैं, जब कांग्रेस उनके सामने हाथ फैलाकर खड़ी हो। (आर.जेड./70-71)
मुसलिम लीग के अपमानित पदाभिलाषी खालिक-उज-जमान और नवाब मोहम्मद इस्माइल खाँ, जिनकी महत्त्वाकांक्षाओं पर कांग्रेस और नेहरू ने कुठाराघात कर दिया था, आगे चलकर मुसलमानों की प्रतिक्रिया के आधार बन गए और फिर जिन्होंने मुसलमानों की राय को विभाजन और पाकिस्तान के पक्ष में करने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। अंग्रेज इस गतिविधि से बहुत खुश थे। राज्य के सचिव बीरकेनहेड ने वायसराय को लिखा—“मैंने सांप्रदायिक स्थिति के अनंत काल में अपनी उच्चतम और सबसे स्थायी आशाएँ लगाकर रखी हैं।” (मुल्ड/42)
लीग के प्रति जरा भी उदारता का प्रदर्शन न करना कांग्रेस और नेहरू के स्तर पर नासमझी भरा कदम था। कहा जाता है कि सरदार पटेल और जी.बी. पंत चुनाव पूर्व तालमेल के आधार पर मुसलिम लीग के साथ गठबंधन के लिए तैयार थे; लेकिन अपनी ‘बुद्धिमत्ता’ और घमंड में चूर नेहरू ने अहंकार भरा कदम उठाने का फैसला किया और जिन्ना व मुसलिम लीग के साथ अंतिम अलगाव एवं विभाजन और पाकिस्तान का मार्ग प्रशस्त किया—नेहरू वर्ष 1936 औैर 1937 में कांग्रेस के अध्यक्ष थे। नेहरू के अन्यायपूर्ण कृत्य पर जिन्ना ने 26 जुलाई, 1937 को अपनी कड़ी प्रतिक्रिया कुछ ऐसे दी थी :
“मैं दूसरों के काम में बाधा डालनेवाले कांग्रेस के अध्यक्ष (नेहरू) से क्या कह सकता हूँ? उन्हें (नेहरू को) ऐसा लगता है कि उन्होंने सारी दुनिया की जिम्मेदारी को अपने कंधों पर उठा रखा है और उन्हें सिर्फ अपने काम से काम रखने के बजाय दूसरों के कामों में टाँग जरूर अड़ानी चाहिए।” (डी.डी./181-82)
नेहरू के उतावलेपन की वजह से आई दरार को कभी भरा नहीं जा सका। ऐसा माना जाता है कि अगर कांग्रेस वर्ष 1937 के चुनावों के बाद ए.आई.एम.एल. के प्रति सामंजस्यपूर्ण व्यवहार करती तो ए.आई.एम.एल. ने विभाजन और पाकिस्तान की तरफ अपने कदम नहीं बढ़ाए होते। इसके अलावा, ऐसा करके प्रतितथ्यात्मक अटकलों को भी रोका जा सकता था। मौलाना आजाद ने लिखा :
“ ...मुझे फिर भी बड़े अफसोस के साथ यह कहना पड़ रहा है कि ऐसा (भूल#7) कोई पहली बार नहीं है कि उन्होंने (नेहरू ने) राष्ट्रीय हित को भारी नुकसान पहुँचाया है। उन्होंने 1937 में भी लगभग ऐसी ही गलती की थी, जब भारत सरकार अधिनियम (1937) के तहत पहले चुनाव आयोजित किए गए थे।” (आजाद/170)
“जवाहरलाल के कदमों ने मुसलिम लीग को संयुक्त प्रांत में एक नया जीवन-दान दिया। भारतीय राजनीति के सभी छात्र यह बात जानते हैं कि वह यू.पी. ही था, जहाँ लीग को पुनर्गठित किया गया था। जिन्ना ने मौके का पूरा फायदा उठाया और एक ऐसा अभियान शुरू किया, जिसकी परिणति पाकिस्तान के रूप में हुई।” (आजाद/171)
“1937 की गलती (नेहरू की) काफी बुरी थी। 1946 की गलती (नेहरू की ‘गलती#7’) और भी महँगी साबित हुई।” (आजाद/172)
एम.सी. छागला ने लिखा— “मेरे खयाल से, उन सबसे महत्त्वपूर्ण कारणों में से एक, जो आखिरकार पाकिस्तान के निर्माण की वजह बना, वह था, जो उत्तर प्रदेश (1937 में संयुक्त प्रांत) में घटित हुआ था। अगर जवाहरलाल नेहरू एक गठबंधन मंत्रालय के लिए सहमत होते और मुसलिम लीग के प्रतिनिधियों पर कांग्रेस के संकल्प-पत्र पर दस्तखत करने पर जोर नहीं देते तो शायद पाकिस्तान कभी अस्तित्व में ही नहीं आता। मुझे याद है कि जवाहरलाल ने मुझे बताया कि खलीक जमान (जिन्हें नेहरू ने 1937 में यू.पी. मंत्रिमंडल में स्थान देने से मना कर दिया था) उनके सबसे अच्छे और सबसे प्यारे दोस्तों में से एक थे और फिर भी उन्होंने पाकिस्तान के लिए आंदोलन का नेतृत्व किया...उत्तर प्रदेश मुसलमानों का सांस्कृतिक घर था। हालाँकि वे राज्य में अल्पमत में थे, लेकिन अगर सिर्फ उत्तर प्रदेश विभाजन के प्रति गंभीर नहीं हुआ होता तो पाकिस्तान कभी भी वास्तविकता नहीं बन पाता।” (एम.सी.सी./81-2)