Nehru Files - 3 in Hindi Anything by Rachel Abraham books and stories PDF | नेहरू फाइल्स - भूल-3

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नेहरू फाइल्स - भूल-3

भूल-3 
आत्मघाती कदम उठाना : मंत्रियों के इस्तीफे, 1939 वर्ष 

1936-37 में ग्यारह प्रांतों में हुए प्रांतीय चुनावों में कांग्रेस ने पाँच प्रांतों (यू.पी., बिहार, मद्रास, सी.पी. (मध्य प्रांत) और उड़ीसा) में पूर्ण बहुमत हासिल किया और चार प्रांतों में वह सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी (बंबई, बंगाल, असम और एन.डब्ल्यू.एफ.पी.)। कुल आठ प्रांतों में कांग्रेस के मंत्रिमंडलों का गठन किया गया। यू.पी. में गोविंद बल्लभ पंत, बिहार में श्रीकृष्ण सिन्हा, सी.पी. में एन.बी. खरे, बंबई में बी.जी. खेर, मद्रास में राजाजी, उड़ीसा में बिश्वनाथ दास, असम में गोपीनाथ बाेरदोलोई और एन.डब्ल्यू.एफ.पी. में डॉ. खान साहब ने उनका नेतृत्व (प्रीमियर कहा जाता था) किया। 

वहीं दूसरी तरफ, मुसलिम लीग का प्रदर्शन खराब रहा। उसे 5 प्रतिशत से भी कम मुसलमान मत प्राप्त हुए। वह कुल सीटों का मात्र 6 प्रतिशत (108/1,585) जीतने में सफल रही। मुसलमान सीटों में भी उसका हिस्सा (108/(372+108=480) काफी कम था—22.5 प्रतिशत। वह किसी भी प्रांत में अपने दम पर सरकार बनाने में विफल रही। इसने जिन्ना और ए.आई.एम.एल. को और अधिक भड़का दिया और साथ ही अंग्रेजों को भी, जो नहीं चाहते थे कि कांग्रेस शक्तिशाली बने।

वर्ष 1937-39 के दौरान कांग्रेस के मंत्रालयों का अच्छा प्रदर्शन 
वर्ष 1937 से प्रांतों में बड़े संघर्ष (प्रमुख रूप से सरदार पटेल के प्रयासों के चलते मिली जीत) के परिणामस्वरूप गठित कांग्रेस के मंत्रिमंडलों ने, पटेल की मुस्तैद निगरानी में, उम्मीद से कहीं बेहतर प्रदर्शन करना प्रारंभ कर दिया था। प्रांतीय सरकारों की गतिविधियों का मार्गदर्शन और समन्वय करने के लिए एक केंद्रीय नियंत्रण बोर्ड का गठन किया गया था, जिसे ‘संसदीय उप- समिति’ के नाम से जाना जाता और सरदार पटेल, मौलाना अबुल कलाम आजाद एवं डॉ. राजेंद्र प्रसाद इसके सदस्य थे। आम जनता के हितों के लिए कई कदम भी उठाए गए थे। कांग्रेस के कई मंत्रियों ने सादा जीवन जीने में एक मिसाल कायम की। उन्होंने अपने खुद के वेतन को कम किया। उन्होंने खुद को आम लोगों के लिए सुलभ तरीके से उपलब्ध बनाया। कांग्रेस के चुनावी घोषणा-पत्र में किए गए कई वादों को पूरा करने के प्रयासों के तहत बहुत ही कम समय में बहुत बड़ी संख्या में सुधारक कानूनों को लागू किया गया।

 प्रांतीय सरकारों को सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियमों और ऐसे ही कानूनों के तहत मिली हुई आपातकालीन शक्तियों को निरस्त कर दिया गया। हिंदुस्तान सेवा दल और यूथ लीग जैसे अवैध राजनीतिक संगठनों तथा राजनीतिक पुस्तकों एवं पत्रिकाओं पर लगे प्रतिबंधों को हटा लिया गया। प्रेस पर लगे तमाम प्रतिबंधों को हटा लिया गया। समाचार-पत्रों और प्रेस से जमा काररवाई गई प्रतिभूतियों को लौटा दिया गया और लंबित मुकदमों को वापस ले लिया गया। सरकारी विज्ञापनों को लेकर समाचार-पत्रों की काली सूची को खत्म कर दिया गया। अधिगृहीत किए गए हथियारों को लौटा दिया गया और जब्त किए हुए हथियारों के लाइसेंसों को बहाल कर दिया गया। कांग्रेस के प्रांतों में पुलिस को मिली हुई शक्तियों पर अंकुश लगाया गया और सार्वजनिक भाषणों की रिपोर्टिंग और सी.आई.डी. के एजेंटों के द्वारा राजनीतिक कार्यकर्ताओं का पीछा करना रोक दिया गया। सांप्रदायिक दंगों को बहुत अच्छे तरीके से सँभाला गया। वर्ष 1937-39 के दौरान राजाजी का मद्रास के प्रीमियर के रूप में कार्यकाल बेहद शानदार रहा। 

द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान नेहरू और उनके साथियों का ब्रिटेन के साथ नासमझी भरा असहयोग 
जर्मन-सोवियत गैर-आक्रामकता संधि, जिसे मोलोतोव-रिब्बेंट्रॉप पैक्ट या नाजी-सोवियत संधि भी कहा जाता है, पर 23 अगस्त, 1939 को मॉस्को में स्टालिन की उपस्थिति में नाजी जर्मनी और सोवियत संघ के बीच हस्ताक्षर किए गए थे। इसके तुरंत बाद 1 सितंबर, 1939 को जर्मनी ने पोलैंड पर आक्रमण कर दिया (सोवियत संघ ने 17 सितंबर, 1939 को ऐसा किया)। जवाब में ब्रिटेन ने दो दिन बाद—3 सितंबर, 1939 को—जर्मनी के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी। उसी दिन भारत के वायसराय लिनलिथगो ने भी घोषणा की कि भारत ब्रिटेन के साथ युद्ध (द्वितीय विश्व युद्ध) में शामिल हो गया है। 

नेहरू और समाजवादियों ने कांग्रेसी मंत्रालयों के इस्तीफे की पैरोकारी की 
कांग्रेस को उम्मीद थी कि अंग्रेज भारत की ओर से युद्ध की घोषणा करने से पहले उनसे सलाह जरूर लेंगे। ए.आई.सी.सी. ने मई 1939 में ही इस बात की घोषणा कर दी थी कि कांग्रेस अपने लोगों की सहमति के बिना भारत पर युद्ध थोपे जाने के किसी भी प्रयास का विरोध करेगी। इसके बावजूद अंग्रेज प्राधिकारियों ने जरा भी परवाह नहीं की। कांग्रेस ने पराजय और नाराजगी महसूस की। उसने यह भी प्रदर्शित किया कि अंग्रेजों ने गांधीवादी ‘खतरे’ को जरा भी खतरा नहीं माना। उन्हें इस बात का पता था कि गांधीवादी अहिंसा राज की किसी भी वास्तविक समस्या के प्रति एक सुरक्षा थी। 

ब्रिटिश भारत द्वारा कांग्रेस की सलाह के बिना युद्ध की घोषणा के विरोध में 22-23 अक्तूबर, 1939 को वर्धा में कांग्रेस कार्यसामिति की बैठक में अंग्रेजों के साथ युद्ध (द्वितीय विश्व युद्ध) में सहयोग न करने का निर्णय लिया गया। इस कदम की अगुवाई की नेहरू और समाजवादियों ने, जिन्होंने इस बात की भी पैरोकारी की कि कांग्रेस की प्रांतीय सरकारों को भी विरोध में महीने के अंत तक इस्तीफा दे देना चाहिए। पटेल और गांधी युद्ध में अंग्रेजों के प्रति असहयोग के लिए और मंत्रालयों द्वारा इस्तीफा दिए जाने के पक्ष में नहीं थे; लेकिन नेहरू और उनके साथियों (सोशलिस्टों) ने इस बात पर जोर दिया। ये इस्तीफे प्रभावी रूप से कांग्रेस वाम की जीत थे। 

गांधी की लीक के विपरीत सोवियत लीक से प्रेरित होते नेहरू 
नेहरू का वैश्विक दृष्टिकोण मार्क्सवादी-कम्युनिस्ट (‘भूल#106/107’) था, जैसाकि उनकी पुस्तकों एवं भाषणों से स्पष्ट था और वे न केवल हमेशा सोवियत संघ के पक्ष में रहते थे, उन्होंने ऐसा उस स्थिति में भी किया था, जब सोवियत संघ की स्थिति असमर्थनीय थी—असल में नेहरू सोवियत संघ के प्रति आसक्त थे। 
सीताराम गोयल लिखते हैं— 
“इसलिए तार्किक रूप से ऐसी उम्मीद की जा सकती है कि ब्रिटेन और फ्रांस ने एक बार फासीवादी ताकतों के खिलाफ लड़ने का मन बना लिया तो कांग्रेस उनका सहयोग करने के लिए तैयार होगी। असल में, महात्मा गांाधी ने यह निष्कर्ष तब निकाला, जब यूरोप में द्वितीय विश्व युद्ध शुरू होने के तुरंत बाद उन्होंने कांग्रेस को भारत की ब्रिटिश सरकार को बिना शर्त नैतिक समर्थन देने की सलाह दी। डॉ. पट्टाभि सीतारामैया लिखते हैं—‘गांधी का यह मानना था कि हमें अपना नैतिक समर्थन जरूर देना चाहिए, मंत्रालयों को काम करने देना चाहिए और उन्हें इतना भरोसा था कि इन मंत्रालयों के जरिए वे पूर्ण स्वराज्य या फिर डोमिनियन स्टेट्स की घोषणा का दाँव खेल सकते हैं।’” (एस.आर.जी.2/149-50) 

“लेकिन महात्मा गांधी को इस बात का भान नहीं था कि पं. नेहरू ने कांग्रेस को एक फासीवादी-विरोधी आस्था के प्रति प्रतिबद्ध कर दिया है और उन्होंने ऐसा सिर्फ इसलिए नहीं किया है कि वे भारत की स्वतंत्रता की संभावनाओं को उस आस्था से नहीं जोड़ पा रहे थे, बल्कि इसलिए, क्योंकि उनके सोवियत आकाओं ने उस समय खाका इसी प्रकार से खींचा था। अगर सोवियत संघ फासीवादी ताकतों के खिलाफ फासीवादी-विरोधी युद्ध में शामिल हो गया होता तो उन्हें उसके ब्रिटिश सहयोगी के साथ सहयोग की वकालत करने में कोई परेशानी महसूस नहीं होती, जैसाकि उन्होंने बाद की तारीख में किया भी (सन् 1941 में जब सोवियत संघ मित्र देशों में शामिल हो गया)। लेकिन सोवियत संघ अब नाजी जर्मनी (1939-41) का सहयोगी था और हर जगह फैले कॉमिंटर्न तंत्र ने युद्ध को ‘साम्राज्यवादी युद्ध’ के रूप में चित्रित किया। इसके अलावा, कॉमिंटर्न ने पश्चिमी देशों के साथ-साथ उन देशों के उपनिवेशों के ‘लोगों’ को भी इस ‘साम्राज्यवादी युद्ध’ को वर्ष 1914-18 में लेनिन द्वारा प्रतिपादित ‘गृह युद्ध’ या ‘मुक्ति के युद्ध’ में बदलने के लिए आमंत्रित किया था। इसी वजह के चलते पं. नेहरू के लिए भारत की ब्रिटिश सरकार के साथ सहयोग की वकालत करना बिल्कुल भी संभव नहीं था।” (एस.आर.जी.2/150) 

यह ध्यान देने योग्य बात है कि एक ‘अंतरराष्ट्रीयवादी’ या एक स्वतंत्र अथवा एक राष्ट्रवादी विचारक की तुलना में अधिक समाजवादी और एक कम्युनिस्ट हमदर्द होने के चलते नेहरू ने सन् 1941 में रूस के पक्ष में और नाजियों के विरुद्ध युद्ध में शामिल होने के तुरंत बाद ही अपनी धुन बदल ली। 

विनाशकारी नेहरूवादी भूल : कांग्रेसी मंत्रालयों का इस्तीफा 
नेहरू और उनकी मंडली के दबाव में कांग्रेसी मंत्रालयों ने नवंबर 1939 में इस्तीफा दे दिया। यह निरर्थक संकेत की राजनीति थी—एक बड़ी गलती, एक राजनीतिक आत्महत्या! बलराज कृष्ण ने लिखा—
“इसके बावजूद, जहाँ तक कांग्रेस के मंत्रालयों के जारी रहने की बात थी तो ऐसा लगता था कि वे (सरदार पटेल) गांधी के साथ सहमति में हैं। यह पार्टी के अगुवा और एक प्रशासक के रूप में बिल्कुल विशिष्ट था, जो सत्ता में पकड़ में स्पष्ट राजनीतिक लाभ देखता था। लिनलिथगो की सोच भी पटेल से मेल खा गई। उन्होंने राजा को लिखा था कि ‘मुसलिम लीग से कांग्रेस में जानेवाले मुसलमानों की संख्या में होते हुए इजाफे को देखते हुए जिन्ना चौकन्ने हो गए हैं’, क्योंकि मंत्री उनके मित्रों की सहायता कर सकते हैं और ‘उनके विरोधियों को कष्ट’। कांग्रेस द्वारा प्रांतों की सत्ता के छोड़ देने के बाद हालाँकि इस प्रकार के दल-बदल के होने की कोई उम्मीद नहीं थी। ‘द हिंदू’ के संपादक के. श्रीनिवासन ने ‘प्रांतीय मंत्रियों के इस्तीफे दिलवानेवाली ‘भयानक भूल’ के लिए नेहरू को जिम्मेदार ठहराया’।” (बी.के./199-200) 

“ये इस्तीफे कांग्रेस-वाम के लिए एक जीत जैसे थे—एक जीत, जिसके बेहद गंभीर राजनीतिक निहितार्थ थे। इसने कांग्रेस को हाशिए पर धकेल दिया और जिन्ना को एक ऐसा खेल खेलने की पूरी आजादी प्रदान कर दी, जिसने अंग्रेजों के सामने उनकी स्थिति को अधिक मजबूत कर दिया और आखिर में पाकिस्तान को पाने में उनकी मदद की। इस्तीफे की अनुपयुक्तता उनके सबसे अधिक असंगत और असामयिक होने की स्थिति में है, विशेषकर तब, जब लिनलिथगो ने कांग्रेस नेताओं और एक पार्टी के रूप में कांग्रेस के लिए अनुकूल राय तैयार की थी। उन्होंने दूसरे को ‘नाम के योग्य अकेला और निश्चित रूप से निर्वाचन क्षेत्रों में एक सक्रिय और व्यापक संगठन रखनेवाला इकलौता’ संगठन माना। यह उपलब्धि पटेल की कांग्रेस संसदीय बोर्ड की प्रभावी अध्यक्षता के चलते ही हासिल हो पाई थी। लिनलिथगो को पटेल में ‘हाजिर-जवाबी, एक चतुर और सक्रिय मस्तिष्क तथा एक मजबूत व्यक्तित्व’ मिला था और पटेल ने तर्क के आधार पर काल्पनिक परिकल्पना से बचने की महत्ता को देखा था।” (बी.के./199-200) 

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नेहरू और उनकी मंडली का यह नासमझी भरा फैसला सन् 1937 के चुनावों में मिले सभी लाभों से हाथ धोने जैसा और उन्हें खुले हाथों से उस समय बुरी तरह से हारी हुई मुसलिम लीग को सौंपने जैसा था। यह कदम एक तरफ जहाँ कांग्रेस के लिए अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा था, जिसने उसे बेहद कमजोर कर दिया और सौदेबाजी करने की इसकी स्थिति को काफी घटा दिया और इसे हाशिए पर धकेल दिया; जबकि अंग्रेजों और जिन्ना के लिए कांग्रेस के मंत्रालयों का इस्तीफा ‘चलो, छुटकारा तो मिला’ सरीखा था।
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 “उपमहाद्वीप में इसलामिक स्टेट का खाका तो उसी दिन खिंच गया था, जब कांग्रेस ने द्वितीय विश्व युद्ध का बहिष्कार करने का फैसला लिया था और सन् 1939 में इस्तीफा दे दिया था। लीग ने सन् 1946 तक ब्रिटिश सेना में मुसलमानों की हिस्सेदारी को 34 प्रतिशत तक बढ़ा दिया और कांग्रेस  गृह युद्ध की आशंका को लेकर घबरा गई, जिसकी धमकी लीग लगातार दे रही थी।” (टी.डब्‍ल्यू. 2)