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और ये "खचचच..." की आवाज आई। तलवार उसके शरीर में घुस चुकी थी!
"वर्धांन....!"
(प्रणाली पूरी जान से चीखी)
उसने ये मंजर अपनी आंखों से देखा।
वो तलवार वर्धांन के पेट को चीरती हुई उसके शरीर में धंसी थी...
वर्धांन ने अपनी आंखें बंद होने से पहले प्रणाली को वहां आते हुए देखा।
और उसे देखकर मानो मौत भी उसके हलक में फंसकर रह गई...
"त...त... तुम... यहां क्यों आई...? भ...भ... भाग जाओ यहां से..."
(उसने लड़खड़ाती आवाज में प्रणाली से कहा)
वर्धांन की ये हालत देख कर प्रणाली की आंखों से नदियां बहने लगीं...
उसे कुछ समझ नहीं आया।
वो भाग कर उसके पास आई, उन घुसपैठियों को एक ओर धकेलते हुए वर्धांन से लिपट गई...
"वर्धांन... तुम ठीक तो हो ना? तुम्हें कुछ नहीं होगा... ये सब क्या हो रहा है उस्ताद??"
(उसने घबराते हुए पूछा)
"एक प्रेमी-प्रेमिका का प्रेम-विलाप..."
(उनका उस्ताद मुस्कुरा कर बोला)
"अब हमें इस लड़की को भी मारना होगा... वरना..."
(दूसरा घुसपैठ बोला)
प्रणाली रोते हुए, उसकी तलवार उसके शरीर से अलग कर, जख्म पर अपना दुपट्टा बांध देती है — ताकि खून रुक जाए
"हाँ... पर उससे पहले इस नौजवान का किस्सा तो खत्म करें..."
इतना कहकर वो लोग फिर से आगे बढ़ने लगे।
ये सुनकर प्रणाली ने बिलखते हुए उनके आगे हाथ जोड़ लिए, उसकी जान की भीख मांगने लगी।
"कृपया... हमें यहां से जाने दें... ये आपका क्या बिगाड़ेगा? एक रोजमर्रा के किसान परिवार का बेटा है..."
(उसने रोते हुए कहा)
"अच्छा? तो ये किसान का बेटा है? तो हम भी इंद्र के दूत हैं!"
(उन्होंने प्रणाली पर हँसते हुए कहा)
प्रणाली:
"हमें छोड़ दीजिए..."
"लगता है, तुझे ही पहले सुलाना होगा..."
(एक ने उसके बाल पकड़ कर उसे घसीटा)
दो घुसपैठियों ने उसे पकड़ कर कस लिया।
एक तलवार लेकर उसकी ओर बढ़ने लगा...
तभी एक लड़खड़ाती आवाज आई—
"तुम लोग यहां मेरे लिए आए हो ना? तो मुझे मारो!"
(वर्धांन ने कहा)
उनके सरदार ने प्रणाली को बालों से पकड़ा और वर्धांन से बोला:
"लगता है, बहुत अजीज है तुम्हें ये लड़की?"
"जान जाने को है लेकिन मोहब्बत के आगे शेखियां मारनी हैं..."
(एक घुसपैठ बोला)
"ये सच्चा प्रेम है उस्ताद!"
(दूसरा घुसपैठ बोला)
वर्धांन और प्रणाली एक-दूसरे को देखने लगे।
उनकी आंखों में नमी थी — और एक डर भी:
क्या आखिरी बार देख रहे हैं एक-दूसरे को...?
"तो चलो इस प्रेमी की प्रेमिका से पहले मरने की मुराद भी पूरी कर देते हैं!"
(उनका सरगना बोला)
चांद अब पूरी तरह जवान हो चुका था।
वो खूंखार हँसी हँसता हुआ, तलवार लेकर वर्धांन के पास बढ़ा।
"नहीं... उसे कुछ मत करना! रुक जाओ! वो जख्मी है, उसकी जान चली जाएगी... रुक जाओ!"
और तभी तेज हवाएं चलने लगीं।
सूखे पत्ते पेड़ों से इस कदर झड़ने लगे मानो खुद जंगल गुस्से में हो...
सरगना की आंखों में धूल भर गई,
घुसपैठिए इधर-उधर गिरने लगे — किसी को कुछ नहीं दिख रहा था... चारों तरफ बस धूल का बवंडर , और अब बिगड़ता हुआ दिख रहा है।
रोने-बिलखने की आवाज भी थम गई।
"अरे चमचों... कहां मर गए? इस लड़की का भी काम तमाम करो! जल्दी!"
(उनका उस्ताद चीखा)
...पर सामने से कोई आवाज नहीं आई।
उसने आंखें साफ कीं और देखने की कोशिश की —
वर्धांन तो वहीं था, पर जब उसने पलट कर देखा...
प्रणाली अपनी जगह पर नहीं थी।
वो भागा उस ओर... जहां पहले उसे दो घुसपैठियों ने पकड़ा था।
अब वे दोनों दो अलग-अलग ओर गिरे पड़े थे।
"उठो!! क्या हुआ तुम्हें...? ये क्या हो गया?"
(उसने डर और सवाल भरे लहजे में पूछा)
"उस्ताद... वो लड़की... कोई आम लड़की नहीं है... वो... वो..."
(और इतना कहकर बेहोश हो गया)
"ये सब क्या हो रहा है...? मुझे यहां से निकलना होगा..."
(वो घबराकर भागने लगा)
तभी... ऊपर से आती एक शख्सियत ने उसका रास्ता रोका।
वो ऊपर से आती हुई —
सुर्ख सफेद कपड़ों में लिपटी एक हसीन परी,
जिसके काले, लंबे बाल — जैसे काले मोती बिखरे हों।
नीली आंखें... जिन पर सुरमा लगा हो — और वो सुरमा भी खुद को छोटा माने...
उसकी पीठ पर थे दो चमकदार पंख —
ऐसा लगता था जैसे सितारे उसकी त्वचा पर बिछे हों।
उसकी खूबसूरती... अप्सराओं से परे...
वो उसके सामने उतरी...
"प्रणाली...?"
(वर्धांन के मुंह से निकला)
"ये सपना है...? तुम सच में परी हो...? या मौत के डर से मुझे अपना काल भी खूबसूरत दिख रहा है?"
(वर्धानं ने कहा
उस्ताद डर से कांपने लगा.....
डर के मारे वो वहीं बेहोश हो गया।
प्रणाली... एक परी के अवतार में...?
तो पिताजी सही कह रहे थे...?
(वर्धांन सोचने लगा)
प्रणाली तुरंत घबरा कर उसके पास आई —
"वर्धांन! तुम ठीक हो ना???"
वर्धांन (टूटती सांसों में):
"प्रणाली... मुझे तुम्हें कुछ बताना है..."
प्रणाली:
"Shhhhhh.... कुछ मत बोलो! मैं तुम्हें लेकर चलती हूं महल — वहां इलाज हो जाएगा..."
वर्धांन (डरते हुए):
"नहीं... महल नहीं!"
...और इतना कहकर वह बेहोश हो गया।
सांसें भी अब मद्धम हो गई थीं...
"वर्धांन!!"
(उसकी ये हालत देख कर प्रणाली चीख पड़ी)
वो और भी घबरा गई।
"महल नहीं... तो कहां ले जाऊं तुम्हें...?"
(प्रणाली अब खुद को भी नहीं समझा पा रही थी)
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