"अगर आगे चलकर मुझसे कोई गलती हो जाएगी...
तो तुम मुझे माफ़ कर दोगी?"
(उसने प्रणाली से पूछा)
"ज़रूर... लेकिन... वो सच में एक गलती हुई तो ही..."
(वो धीमे से बोली)
"मुझे तुम अच्छी लगती हो..."
(वो अचानक बोल पड़ा)
"हम्म...? हां...? क्या?"
(वो फटी आँखों से चौंक कर बोली)
"मैं चाहता हूँ... हम यहाँ से कहीं दूर चले जाएं। बोलो...
चलोगी मेरे साथ?"
(वर्धांन की आँखें नम हो गईं)
प्रणाली को कुछ समझ नहीं आया कि वो क्या बोले।
वर्धांन ने अपना हाथ आगे बढ़ाया —
उसकी "हाँ" का इंतज़ार करते हुए...
"बोलो, प्रणाली...?"
(उसने दोबारा पूछा)
प्रणाली के माथे पर हल्की सी शिकन उभरी —
"तुम्हें मेरा नाम कैसे पता? मैंने तो नहीं बताया..."
वर्धांन चौंक गया और धीरे से अपना हाथ पीछे खींच लिया।
उसे प्रणाली का नाम गरुड़ शोभित से पता चला था,
पर अब वो ये बात कैसे बताए...
वो बात टालने की कोशिश करता है:
"अरे... वो... मतलब... तुम भी कैसी बात कर रही हो...
जब मैंने पता कर लिया कि तुम राजकुमारी हो,
तो तुम्हारा नाम जानना कोई बड़ी बात थोड़ी न है..."
प्रणाली ने भी इस बात को ज़्यादा तवज्जो नहीं दी...
और चुपचाप मान गई।
वर्धांन मन ही मन सोचने लगा —
“इतना भरोसा...? दूसरी बार पूछा भी नहीं...
जो कहा, वो मान लिया!
मैं कैसे धोखा दूँ तुम्हें...”
प्रणाली ने उसकी आँखों के आगे चुटकी बजाई:
"क्या हुआ? क्या सोच रहे हो?"
"कुछ नहीं।"
(उसने मुस्कुराकर जवाब दिया)
"शायद... मैं अब तुमसे दोबारा मिल न पाऊं..."
(प्रणाली अचानक बोली)
वर्धांन (चौंक कर):
"क्यों? ऐसा क्या हो गया?"
(वो सोचने लगा — कहीं इसे कुछ पता तो नहीं चल गया...)
प्रणाली ने शांत स्वर में कहा:
"मेरा कल राज्याभिषेक है..."
वर्धांन (खुश होकर):
"ये तो बहुत अच्छी बात है!
तुम्हारी काबिलियत इतनी है, ये मुझे नहीं पता था।"
"पर... मुझे ये नहीं करना..."
(प्रणाली बोली)
"ये जगह मेरे भाई की है... और मैं उसका हक नहीं लेना चाहती।"
वर्धांन (गहराई से):
"क्या बोल रही हो...? साफ-साफ बताओ... मुझे समझाओ।"
प्रणाली एक पत्थर पर बैठ गई:
"मैंने तुम्हें बताया था ना,
गरुड़ों ने हम पर हमला किया था?
उसी युद्ध में... मुझे बचाते हुए,
मेरे भाई के प्राण जाते-जाते बचे थे।
वो वार मेरे लिए था...
लेकिन उन्होंने उसे अपने ऊपर ले लिया।"
"अब तुम ही बताओ...
मैं इतनी एहसान-फरामोश कैसे हो जाऊं,
कि उनकी जगह खुद बैठ जाऊं?"
वर्धांन (धीरे से):
"तुम्हें पक्का यकीन है कि वो हमला गरुड़ों का ही था...?"
प्रणाली (चौंक कर):
"ये कैसी बात कर रहे हो?"
"मतलब... हो सकता है कि वो किसी और का हमला हो?"
"जिस तीर से मुझ पर हमला हुआ था,
उस पर गरुड़ विष लगा था!
और उस विष का नाम है — 'गरुड़ विष'!"
वर्धांन (मन में):
"गरुड़ विष...? वो भी धरती पर...?
ऐसा कौन कर सकता है?"
प्रणाली:
"तुम्हें अब भी विश्वास नहीं है ना...?
कोई बात नहीं...
उस विष का तोड़ लेने मैं खुद गरुड़ लोक तक गई थी।
वहाँ से एक 'गरुड़ पुष्प' लेकर आई।"
वर्धांन स्तब्ध रह गया।
सोचने लगा — तो वो मेरा भ्रम नहीं था, वो तुम ही थी ,मेरे पास .....मेरे साथ,........“मुझे होश में लाने वाली... तुम ही थी?”
प्रणाली:
"मेरे भाई उस पुष्प से होश में तो आ गए...
लेकिन उठ नहीं पाए।
अगर वो ठीक होते...
तो मुझे ये कभी नहीं करना पड़ता..."
वर्धांन:
"तुमने... मुझे बचाया है!"
प्रणाली (चौंक कर):
"क्या...? मैंने कब?"
"तुम नहीं समझोगी..."
(उसने धीरे से जवाब दिया)
मन में:
“तुम्हारा ये एहसान...
मैं कैसे चुकाऊँगा?”
प्रणाली (झुंझलाकर):
"तुम मेरी बात सुन भी नहीं रहे हो ना!"
वर्धांन (प्रेम से):
"अगर तुम्हारा भाई ठीक हो जाएगा...
तब तो तुम्हें कोई ऐसा काम नहीं करना पड़ेगा ना
जो तुम्हें खुशी न दे?"
(उसने प्रणाली का हाथ पकड़ लिया)
प्रणाली:
"हां... पर... तुम क्या करोगे?"
"तुम ये सब मुझ पर छोड़ दो।"
(और वो चलने लगा)
प्रणाली (जल्दी से):
"तुमसे एक बात बतानी है।"
"हां, बोलो..."
"मेरा विवाह तय हो चुका है...
सीकरपुर के राजकुमार से!"
वर्धांन के कान ये शब्द सुनने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं थे।
उसकी आँखें चौड़ी हो गईं।
कदमों ने खुद को कुछ पीछे खींच लिया।
आँखों की नमी पलकों तक आ पहुँची।
वो बस... भर आया।
"अच्छा... माफ़ करना मुझे।"
(वो नम आँखों से बोला)
"नहीं... नहीं! तुम क्यों?"
(प्रणाली ने क़दम आगे बढ़ाए,
हाथ बढ़ाकर उसे समझाने की कोशिश की)
लेकिन वर्धांन और पीछे हट गया —
ताकि वो उसे छू भी न पाए।
उसने हाथ से इशारा किया:
"नहीं... ठीक नहीं ये।
तुम्हें यहाँ से जाना चाहिए...
अगर किसी ने तुम्हें ऐसे देख लिया तो अच्छा नहीं लगेगा।"
प्रणाली (ग़ुस्से और दुख के बीच):
"वर्धांन... ये तुम क्या...?"
वर्धांन को अपनी और प्रणाली की नज़दीकियाँ
अब बोझ-सी लगने लगी थीं...
"तुमने मुझे पहले क्यों नहीं बताया, प्रणाली?"
(उसके स्वर में अफ़सोस था)
"मौका नहीं मिला...
पर मेरी बात तो सुनो, वर्धांन..."
"तुम्हारे भाई को ठीक होना होगा..."
(इतना कहकर वो जाने लगा)
"और हां... अपने कक्ष की खिड़की खुली रखना!"
(वो जाते हुए चिल्लाया)
प्रणाली चुपचाप खड़ी रही...
बस एक बात कहने की कोशिश करती हुई:
"तुमने पूरी बात क्यों नहीं सुनी...?
मैं बस ये कहना चाहती थी कि
मैं अविराज से प्रेम नहीं करती..."
(वो दुखी स्वर में बोली)
कुछ दूर जाकर,
वो उड़ गया...
दूर एक सुनसान जगह पर जाकर बैठ गया।
और खुद से ही बात करने लगा:
"तुम्हें तो खुश होना चाहिए...अगर प्रणाली की शादी हो जाएगी तो वो बीजापुर की राजकुमारी नहीं रहेगी ,तो हो सकता है उसे परी वाली शक्तियां न मिले........?
तो अब मुझे किसी मासूम को धोखा नहीं देना होगा...
तो खुशी दिखाओ..."
"...लेकिन मुझे इतना बुरा क्यों लग रहा है?
अच्छा क्यों नहीं लग रहा?"
(वो खुद से ही शिकायतें कर रहा था...)
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