Ishq aur Ashq - 53 in Hindi Love Stories by Aradhana books and stories PDF | इश्क और अश्क - 53

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इश्क और अश्क - 53



वर्धांन बिना उसे कोई जवाब दिए आगे बढ़ गया।

सय्युरी उसे रोकते हुए:
"वर्धांन! तुम जानते हो ना कि हम एक-दूसरे से जुड़े हैं... हमारी किस्मत साथ ही जुड़ी है!"

वर्धांन चला गया।

सय्युरी (मन ही मन सोचते हुए):
“आख़िर ये जा कहां रहा है... वो भी पूरी तरह ठीक हुए बिना?”

वो अगस्त्य का पीछा करने ही जा रही थी कि बीच रास्ते में गरुड़ शोभित से टकरा गई।

सय्युरी (हड़बड़ाते हुए):
"माफ़ कीजिए गरुड़ शोभित... मैंने आपको देखा नहीं!"

गरुड़ शोभित (मुस्कुराते हुए):
"कोई बात नहीं! लेकिन तुम जा कहाँ रही हो?"

सय्युरी (सामने इशारा करते हुए):
"वो... वर्धांन... पता नहीं कहाँ चला गया।"

गरुड़ शोभित (हल्के से मुस्कुराकर):
"अरे, तुम परेशान क्यों होती हो? अब से वो मेरे काम से बाहर जाएगा... मैंने उसे एक ज़रूरी कार्य सौंपा है।"

सय्युरी (थोड़ी मायूसी के साथ):
"गरुड़ शोभित... मुझे डर सा लगा रहता है। वो आए दिन धरती पर जाता रहता है... कहीं किसी धरतीवासी को दिल न दे बैठे!"

गरुड़ शोभित (उसके माथे पर हाथ रखते हुए):
"वर्धांन के दिल और किस्मत पर सिर्फ़ तुम्हारा नाम लिखा है... और ये नाम मैंने लिखा है।"


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दूसरी ओर – प्रणाली
अपनी सखियों और फौज की एक टुकड़ी (साधारण कपड़ों में) के साथ बाज़ार पहुंची।
वर्धांन भी उसका पीछा करते हुए धरती पर आ गया, और अब जहां भी वो जा रही है, वो कुछ ही कदम पीछे साथ-साथ चल रहा है।

प्रणाली हर चीज़ को देख और समझ रही थी। बाज़ार की हालत तो ठीक-ठाक लग रही थी पर महंगाई की वजह से आम जनता को अनाज की दिक्कत हो रही थी।
गेहूं दो अशर्फियों के भाव में बिक रहा था।

प्रणाली (दासी को बुलाकर):
"गेहूं का मूल्य तो एक अशर्फी तय किया गया था, फिर यहां दो अशर्फी क्यों?"

वर्धांन (मन में सोचते हुए, हल्की मुस्कान के साथ):
"तो ये बात-बात पर रोने वाली लड़की इतनी समझदार भी है?"

दासी:
"राजकुमारी, बेवक्त की बारिश, खाद की कमी और कीटनाशकों की किल्लत के चलते ऐसा हो रहा है।"

प्रणाली (ठहर कर):
"शाही गोदामों के अनाज को एक अशर्फी में बेचा जाए। इससे शाही कोश को भी ज़्यादा नुकसान नहीं होगा और प्रजा की भी मदद हो जाएगी।"

दासी:
"जी राजकुमारी।"

थोड़ा और आगे चलने पर प्रणाली की नज़र नीले रंग की चूड़ियों पर पड़ी। वो तुरंत उस दुकान की ओर बढ़ी।

वर्धांन (उन्हें देखकर, मन ही मन):
"मैं भी तुम्हारे लिए ऐसी ही खूबसूरत चूड़ियां लेकर आऊंगा... और अपने हाथों से तुम्हें पहनाऊंगा!"

प्रणाली:
"भाईजी, इन चूड़ियों का क्या मोल है?"

दुकानदार:
"एक सिक्का!"

प्रणाली (मुस्कुराते हुए):
" ये तो बहुत सुन्दर हैं, आप हमें पहना दीजिए..."

वर्धांन (मन में जलते हुए):
"अरे ..........'पहना दीजिए' क्या होता है... ख़ुद नहीं पहन सकती क्या....."

दुकानदार:
"लाइए, अपना हाथ दीजिए..."

वर्धांन (खुद से बड़बड़ाते हुए):
"ए... ए........ दूर....दूर.... पता भी है किसे छूने जा रहा है तू..."

प्रणाली ने दुकानदार की ओर अपना हाथ बढ़ाने लगी.....

वर्धांन को गुस्सा आ गया:
"चूड़ी तो तू पहना पाएगा.....रुक!

जैसे ही दुकानदार ने चूड़ी हाथ में ली, वो चटक कर टूट गई।
उसने फिर चूड़ी अपने हाथ में ली, फिर चटक गई।
अब बार बार ऐसा ही होने लगा......
दुकानदार तक कर:
"माफ़ करना..."

वो बार-बार कोशिश करता रहा — मगर हर बार चूड़ियां टूट जातीं।
प्रणाली भी ये सब देख के हैरान हुई।
वर्धांन (मन में हँसते हुए):
"पहनाओ... पहनाओ!"

आख़िरकार, दुकानदार ने हार मान ली।

दुकानदार (हाथ जोड़ते हुए):
"माफ करिए पर आपकी नाप की चूड़ी मेरी दुकान में नहीं है... शायद"

प्रणाली (हैरान होकर):
"पर...?"

वो मायूस होकर चल दी।

वर्धांन उसकी दुकान पर आया।

वर्धांन:
"भाईजी, इसी रंग की चूड़ियां मुझे दीजिए।"

दुकानदार:
"भाईजी लगता है ये रंग ठीक नहीं है, आप कुछ और रंग ले लीजिए।"

वर्धांन (नटखट हँसी के साथ):
"नहीं भाईजी... सब ठीक है! चूड़ी भी... और आप भी! मुझे तो यही रंग चाहिए।"

दुकानदार ने बात बढ़ाए बिना उसे चूड़ी दे दी।

वो उन्हीं चूड़ियों को देखते हुए आगे बढ़ा।


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प्रणाली (माला से):
"माला, तुम्हें क्या लगता है... ये सब इत्तेफ़ाक था?"

माला:
"राजकुमारी, हमारे गांव में कहा जाता है — जिसके पीछे बुरी आत्मा हो, उसके साथ ऐसा ही होता है।"

वर्धांन (आँखें घुमाते हुए):
"क्या......! मैं इसको आत्मा लगता हूँ?" हम्मम!

राजकुमारी:
"मुझे वैसी ही चूड़ियां चाहिए... मुझे लाकर दो!"

वर्धांन (मन में):
"काश ये कभी अकेली हो, ताकि मैं बात कर सकूं... पर क्या पता इसे याद भी हो या नहीं? भूल गई हो तो?"

सुबह से शाम हो गई — पर वो अकेली ही नहीं हुई।

शाम को रात्रि बाज़ार से निकलकर दूसरी ओर अपनी सवारी मंगवाती है और रवाना हो जाती है।