O Mere Humsafar - 7 in Hindi Drama by NEELOMA books and stories PDF | ओ मेरे हमसफर - 7

The Author
Featured Books
  • धोखा

    कहानी का नाम: "अधूरी वफाएं..."मुख्य पात्र: नायरा और रेहानकहा...

  • नेहरू फाइल्स

    कई क्षेत्रों में नेहरू द्वारा की गई भूलों की एक पूरी श्रृंखल...

  • टाम ज़िंदा हैं - 14

    टाम ज़िंदा है ------- ये उपन्यास लगातार चलता जा रहा है,इसकी ऐ...

  • बेमौसम मोहब्बत

    कहानी शीर्षक: "बेमौसम मोहब्बत"लेखिका: InkImaginationप्रस्ता...

  • बचपन का प्यार - 1-2

    लेखक: बिकाश पराजुलीमुख्य पात्र: सीमा और निर्मलएपिसोड 1: पहली...

Categories
Share

ओ मेरे हमसफर - 7

(ललिता राठौड़ रिया को आदित्य की बहू बनाना चाहती है और रिश्ते की बात लेकर डोगरा हाउस जाती है, पर कुमुद रिया की पढ़ाई का हवाला देकर मना कर देती है। ललिता अपमानित महसूस करती है और बदले की भावना से प्रिया के लिए कुणाल का रिश्ता तय करने की योजना बनाती है। बिन्नी की मदद से वह जानती है कि प्रिया लंगड़ाकर चलती है, लेकिन रिया नहीं। ललिता कुटिलता से प्रिया की शादी कुणाल से कराने का निर्णय लेती है। कुणाल मां की मंजूरी से खुश होता है, अनजान कि वह सिर्फ एक मोहरा बन रहा है उसकी मां की चाल में।  अब आगे)

रिया स्टोररूम में कुछ पुराने अखबार खोज रही थी। तभी उसकी नजर एक अखबार पर पड़ी, जिसकी कतरनें किसी ने सावधानी से काटी थीं। वह ठिठक गई।

"ये तो प्रिया की ही हरकत लगती है," उसने बुदबुदाया।

उसने बाकी साबुत अखबार समेटे और सीधे प्रिया के कमरे की ओर बढ़ी।

"प्रि, ये तेरा ही—" कहते हुए वह दरवाज़े पर रुकी।

कमरा खाली था। लेकिन साइड टेबल पर रखी कुछ कटी हुई न्यूज क्लिपिंग्स ने उसका ध्यान खींचा। उसने उन्हें उठाया और पढ़ने लगी।

एक नाम बार-बार उसकी आंखों में चुभ रहा था—कुणाल राठौड़।

"ये सब कब हुआ? और प्रिया ने बताया तक नहीं?"

बीते कुछ लम्हे उसकी याद में कौंध गए—वो दिन जब न्यूज चैनल बदलते वक्त भी प्रिया कुणाल का इंटरव्यू एकटक देखती रह गई थी, जबकि आमतौर पर वह न्यूज़ से चिढ़ती थी।

रिया के होंठों पर मुस्कान आ गई।

"तो ये बात है..."

उसके चेहरे पर एक शरारती चमक थी, जैसे कोई रहस्य उसके हाथ लग गया हो। वह स्टोररूम से निकलकर अपने कमरे की ओर मुड़ी ही थी कि दरवाज़े की घंटी बज उठी।

लापरवाही से उसने दरवाज़ा खोला — और सामने देखकर उसका चेहरा सख़्त हो गया।

ललिता राठौड़।

साथ में उनका बेटा आदित्य भी था।

रिया ने झिझकते हुए नमस्कार किया।

"आइए, मैं चाची को बुलाती हूं।"

दोनों ड्राइंग रूम में आकर बैठ गए। रिया ने नौकर को चाय लाने का इशारा किया, लेकिन खुद रसोई में जाकर छिप गई। मन में घबराहट थी—"ये सब अचानक क्यों?"

कुछ ही देर में वैभव और कुमुद आ गए। वे समझ चुके थे कि माजरा क्या है, फिर भी चेहरे निर्विकार थे।

ड्राइंग रूम में एक अजीब-सी चुप्पी पसरी थी, जिसे फिर से दरवाज़े की घंटी ने तोड़ा।

बिन्नी आई—हमेशा की तरह मुस्कुराती, आत्मविश्वासी।

कुमुद और वैभव के चेहरे पर अब स्पष्ट नाराज़ी थी। वे समझ गए थे—ये रिश्ता रचाने की चाल बिन्नी की ही है।

कुमुद कुछ बोलने ही वाली थी कि वैभव ने धीरे से उसका हाथ थाम लिया,

"डोगरा खानदान में मेहमान का अपमान नहीं होता," उसने फुसफुसाया।

बिन्नी ने बात की शुरुआत ही सीधे कर दी,

"ये लोग आपकी बेटी रिया के लिए रिश्ता लेकर आए हैं।"

कुमुद ने ठंडे स्वर में जवाब दिया,

"रिया अभी शादी नहीं करना चाहती।"

बात यहीं खत्म हो सकती थी, लेकिन ललिता ने व्यंग्य किया,

"पहले छोटी बहन की शादी और अब बड़ी की टालमटोल? समाज क्या कहेगा?"

कुमुद का पारा चढ़ गया, लेकिन वैभव ने शांति से कहा,

"हमारी बेटियों की चिंता हमें करने दीजिए।"

कुमुद ने गंभीर स्वर में जोड़ा,

"बात करने से पहले ये मत भूलिए कि आप किससे बात कर रही हैं।"

ललिता हँसी, लेकिन शब्दों में जहर था,

"बेटियाँ नहीं, बेटी। रिया आपकी नहीं, प्रमोद की है। उसका हक हमसे मत छीनिए।"

कमरे में जैसे विस्फोट हो गया हो। सब कुछ थम गया।

कुमुद की आंखों में आंसू थे, वैभव की मुठ्ठियाँ भींच गई थीं।

रिया अब भी रसोई में थी, लेकिन हर शब्द उसके दिल में गूंज रहा था।

आदित्य ने अपनी मां को चुप रहने का इशारा किया। माहौल पहले ही भड़क चुका था।

बिन्नी ने फिर हवा में हल्कापन भरने की नाकाम कोशिश की,

"हम तो बस आदित्य का नहीं, कुणाल का रिश्ता भी लेकर आए हैं — आपकी छोटी बेटी प्रिया के लिए।"

कमरे में जैसे बिजली सी गिरी।

कुमुद ने तमतमाते हुए पूछा,

"क्या बकवास है ये?"

वैभव ने हस्तक्षेप किया, आवाज़ संयत थी लेकिन वज्र जैसी,

"हमारी बेटियाँ कोई बोझ नहीं हैं। और किसी की मेहरबानी की ज़रूरत नहीं। मेहमान हैं तो मेहमान की तरह रहिए।"

बिन्नी की मुस्कान गायब हो गई। ललिता पहली बार खामोश थी। आदित्य की निगाहें ज़मीन पर गड़ी थीं।

उधर, रिया के भीतर तूफान मच चुका था।

कुणाल और प्रिया का नाम एक साथ सुनते ही जैसे उसका सारा भ्रम टूट गया।

वह तेजी से बाहर आई और सबके सामने आकर बोली—

"मुझे आदित्य के साथ शादी मंज़ूर है।"

कमरे में सन्नाटा छा गया।

ललिता और आदित्य के चेहरों पर विजय की चमक दौड़ गई।

पर कुमुद और वैभव के चेहरे सफेद पड़ चुके थे।

कुमुद की आंखें भर आईं, लेकिन वह खुद को रोकती रही।

"क्या कर रही है तू, रिया?"

रिया चुपचाप सिर झुकाए खड़ी रही।

कुमुद कुछ कहने ही वाली थी कि एक पुरानी हकीकत उसे रोक गई —

रिया उसकी अपनी बेटी नहीं थी।

और शायद अब, उसका कोई हक भी नहीं था।

कुमुद चुपचाप कमरे से बाहर चली गई।

वैभव ने रिया को एक गहरी नज़र से देखा और बस इतना कहा,

"हम सोचकर बताएंगे।"

ललिता, आदित्य और बिन्नी मुस्कुराते हुए चले गए।

और उस घर में…

कुछ पीछे छूट गया था —

एक भरोसा, एक रिश्ता… और शायद, एक बेटी भी।

...

1. क्या रिया का आदित्य से शादी के लिए "हाँ" कहना महज़ एक आवेग था—या कोई ऐसी चाल, जो किसी गहरे राज़ की परत खोलने वाली है?

2. क्या प्रिया और रिया दोनों अपना हमसफ़र पा सकेंगी, या ये रिश्तों की बिसात उन्हें एक-दूसरे से दूर कर देगी?

3. क्या डोगरा खानदान की मर्यादा इन रिश्तों के तूफान में टिक पाएगी, या टूट जाएगा एक और बंधन—सामाजिक भी, और भावनात्मक भी?

जानने के लिए पढ़ते रहिए "ओ मेरे हमसफ़र"।