आलस का फल
गौ तम बुद्ध के प्रिय शिष्यों में एक ऐसा भी था, जो बहुत आलसी था। परंतु वे उसे भी उतना ही स्नेह करते जितना अन्य शिष्यों को। एक दिन गौतम बुद्ध ने उस शिष्य को एक कथा सुनाते हुए कहा-
किसी गाँव में एक ब्राह्मण रहा करता था। वह बड़ा भला आदमी था, लेकिन साथ ही काम को टाला करता था। वह यह मानकर चलता था कि जो कुछ होता है, भाग्य से होता है, वह अपने हाथ-पैर नहीं हिलाता था। वह बहुत आलसी था। एक दिन एक साधु उसके घर आया। ब्राह्मण और उसकी घरवाली ने उसका खूब आदर-सत्कार किया। साधु ने चलते समय खुश होकर ब्राह्मण से कहा, "तुम बहुत गरीब हो! लो, मैं तुम्हें पारस पथरी देता हूँ। सात दिन के बाद मैं आऊँगा और इसे ले जाऊँगा। इस बीच तुम जितना सोना बनाना चाहो, बना लेना।"
ब्राह्मण ने पथरी ले ली। साधु चला गया। उसके जाने के पश्चात् ब्राह्मण ने घर में लोहा खोजा, उसे बहुत थोड़ा लोहा मिला। वह उसी को सोना बनाकर बेच आया और कुछ सामान खरीद लाया।
अगले दिन स्त्री के बहुत जोर देने पर लोहा खरीदने बाजार में गया तो लोहा कुछ महँगा था। वह घर लौट आया। दो-तीन दिन बाद फिर वह बाजार गया तो पता चला कि लोहा अब पहले से भी महँगा हो गया है।
'कोई बात नहीं।' उसने सोचा, 'एक-दो दिन में भाव जरूर नीचे आ जाएगा, तभी खरीदेंगे।'
किंतु लोहा सस्ता नहीं हुआ और दिन बीतते गए।
आठवें दिन साधु आया और उसने अपनी पथरी माँगी तो ब्राह्मण ने कहा, "महाराज, मेरा तो सारा समय यों ही निकल गया। अभी तो मैं कुछ भी सोना नहीं बना पाया। आप कृपा करके इस पथरी को कुछ दिन मेरे पास और छोड़ दीजिए।"
लेकिन साधु राजी नहीं हुआ। उसने कहा, "तुम जैसा आदमी जीवन में कुछ नहीं कर सकता। तुम्हारी जगह और कोई होता तो कुछ-का-कुछ कर डालता। जो आदमी समय का उपयोग नहीं जानता, वह कभी सफल नहीं होता।" ब्राह्मण पछताने लगा, पर अब क्या हो सकता था। साधु पथरी लेकर जा चुका था। उसे अपने आलस और भाग्य पर जरूरत से ज्यादा यकीन की कीमत चुकानी पड़ी, इसलिए कहा जाता है कि आलस आदमी का सबसे बड़ा दुश्मन होता है।
शिष्य अब बुद्ध के कहने का तात्पर्य समझ चुका था। उसने कसम खाई कि वह आज के बाद आलस को त्याग देगा। इसके पश्चात् उसने कभी आलस नहीं किया।
साँच को आँच नहीं
एक दिन भगवान् बुद्ध अपने शिष्यों को सच का उपदेश दे रहे थे। सच्चाई पर आधारित कथा सुनाते हुए भगवान बुद्धा बोलदेश
किसी नगर में एक जुलाहा रहता था। वह बहुत बढ़िया कंबल तैयार करता था। एक दिन उसने एक साहूकार को दो कंबल दिए। साहूकार ने दो दिन बाद उनका दाम ले जाने को कहा। साहूकार दिखाने को तो धरम-करम करता था, माथे पर तिलक लगाता था, लेकिन मन उसका मैला था। वह अपना रोजगार छल-कपट से चलाता था।
दो दिन बाद जुलाहा अपना पैसा लेने आया तो साहूकार ने कहा, "मेरे यहाँ आग लग गई, उसमें दोनों कंबल जल गए, तो अब मैं दाम क्यों दूँ?"
जुलाहा बोला, "यह नहीं हो सकता, मेरा धंधा सच्चाई पर चलता है और सच में कभी आग नहीं लग सकती।"
जुलाहे के कंधे पर एक कंबल पड़ा था, उसे सामने करते हुए उसने कहा, "यह लो, लगाओ इसमें आग।"
साहूकार बोला, "मेरे यहाँ कंबलों के पास मिट्टी का तेल रखा था।
कंबल उसमें भीग गए थे, इसलिए जल गए।"
जुलाहे ने कहा, "तो इसे भी मिट्टी के तेल में भिगो लो।"
काफी लोग वहाँ इकट्ठे हो गए। सबके सामने कंबल को मिट्टी के तेल में भिगोकर आग लगा दी गई। लोगों ने देखा कि तेल जल गया, लेकिन कंबल जैसा था वैसा बना रहा।
जुलाहे ने कहा, "याद रखो, साँच को आँच नहीं।"
साहूकार ने लज्जा से सिर झुका लिया और जुलाहे के पैसे चुका दिए।
सच ही कहा है कि जिसके साथ सच होता है, उसका साथ तो भगवान्
भी नहीं छोड़ता।