Ishq Benaam - 19 in Hindi Fiction Stories by अशोक असफल books and stories PDF | इश्क़ बेनाम - 19

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इश्क़ बेनाम - 19

19

चाँदनी में नहायी हुई थी नदी 

राघवी आश्रम में अपनी साधना और सेवा में तल्लीन बनी रहती और मंजीत अपने स्कूल में बच्चों को प्रेम, अहिंसा और नैतिकता का पाठ पढ़ाने में। पर इसके बावजूद उनकी मुलाकातें अब नियमित थीं, और उनमें वह पुरानी बेचैनी नहीं थी। दोनों के बीच एक गहरा बंधन बन चुका था- एक ऐसा बंधन जो देह के आकर्षण से परे, आत्मा की खोज में सत्य की तलाश पर आधारित था।

...

रावी किनारे वह एक और शाम थी, जब चाँद की मद्धिम रोशनी नदी के पानी पर किंचित झिलमिला रही थी। सामुदायिक आयोजन के बाद रागिनी और मंजीत एकांत में बैठे थे। रागिनी, जो जैन दर्शन के सिद्धांतों में गहरे डूबी थी, मंजीत की बदलती सोच और उसके प्रेम की गहराई से प्रभावित थी। मंजीत का प्रेम अब उसे शारीरिक आकर्षण नहीं, बल्कि आत्मा की शुद्धता और सत्य की तलाश में एक साक्षी-भाव लग उठा था। लेकिन तभी मंजीत ने फिर एक बार उसका हाथ धीरे से थाम लिया और भावुक हृदय से कहा, ‘रागिनी, मैंने बहुत दिनों बाद फिर एक कविता लिखी है। तुम्हें याद है, एक बार दीना नगर में इसी रावी के तट पर एक गीत रचा था, तुम्हारे सान्निध्य में। आज फिर एक कविता...तुम्हारी प्रेरणा से...’ 

आगे जैसे, शब्द नहीं जुड़ रहे थे। तब साध्वी ने दिल ही दिल में उसकी भावना और धैर्य को सराहा, और मुँह से कुछ न कह, नेत्रों से मौन स्वीकृति दे दी तो मंजीत ने अपनी कविता सुना डाली:

‘चांदनी में नहायी हुई थी नदी...

नदी पेड़ सोए पड़े थे वहाँ,

साथ लेकर तुम्हें मैं गया था जहाँ।

 

बातें अब भी वही गूँजती हैं वहाँ...

हल्की ठंडक बसी थी हवा में जहाँ,

दिल की धड़कन थमी थी जरा-सी जहाँ।

साथ लेकर तुम्हें मैं गया था जहाँ।।

 

पल वो थम-सा गया था कहीं ना कहीं...

तुम थी, मैं था, ये बस्ती कहीं भी नहीं,

वक्त ने छेड़ा कैसा मधुर गीत था।

साथ लेकर तुम्हें मैं गया था जहाँ।।

 

सच कहूँ, अब भी उस पल को जीता हूँ मैं...

बिन तुम्हारे अधूरा-सा, रीता-सा मैं,

वो बुलाती है संध्या-सी फिर फिर मुझे!

तुम भी सुनती हो, क्या ऐसी धुन भी कभी?’

 

और फिर उसने लगभग हारे हुए दिल से कहा, ‘रागिनी मेरी हर कविता की तरह यह भी अधूरी है...’ मगर कविता की अंतिम पंक्ति के प्रश्न ने रागनी के दिल में एक हलचल मचा दी थी। बेशक उसकी ड्रेस में बैठी साध्वी ने यकायक मौन धारण कर लिया, जो कि उसने साधना से हासिल किया था, कि जब बात उलझ जाए, तब अपने मौन में चले जाओ। मगर वहाँ भी, उसके भीतर एक साध्वी और एक स्त्री के बीच गहरा संवाद चल उठा था...। 

मंजीत के प्रश्न के सत्य ने उसके हृदय की संवेदनाओं को झंकृत कर दिया था। जबकि वह जानती थी कि प्रेम का सत्य देह से कहीं ऊपर है। थोड़ी देर बाद उसने शांत स्वर में कहा, ‘मंजी, देह का आकर्षण झुठलाया नहीं जा सकता। यह प्रकृति का हिस्सा है, जैसे- नदी का प्रवाह, हवा का बहाव, मिट्टी का क्षरण और अग्नि का जलाव। लेकिन प्रेम का सत्य उससे परे है- वह आत्मा की शुद्धता और एकता में है, जहाँ स्त्री-पुरुष का भेद मिट जाता है। प्रत्यक्षतः मैं तुम्हें एक पुरुष के रूप में देखती हूँ, पर उससे कहीं अधिक एक ऐसी आत्मा के रूप में महसूस करती हूँ, जो मेरे साथ सत्य और अहिंसा के पथ पर चल रही है।’

मंजीत ने रागिनी की आँखों में देखा, और साहस के साथ उसका चेहरा अपनी हथेलियों में ले लिया। उसकी आँखों में श्रद्धा थी, जैसे वह राघवी की आत्मा को ही स्पर्श कर रहा हो! उसने कहा, ‘रागिनी, क्या हम इस सत्य को एक साथ जी सकते हैं? एक ऐसा प्रेम, जो देह के आकर्षण को स्वीकारे, पर आत्मा की शुद्धता को सर्वोपरि रखे?’

रागिनी का चेहरा हल्के सा काँप उठा। उसके मन में साध्वी के कर्तव्यों और एक स्त्री के मनोभावों के बीच अब एक द्वंद्व था। लेकिन वह समझ चुकी थी कि साधना का अर्थ देह को नकारना नहीं, बल्कि उसे परास्त कर उसके परे जाना है। उसने मन ही मन कहा, मंजी, मैं तुम्हारे साथ इस सत्य को जीना चाहती हूँ, पर यह पथ कठिन होगा। हमें समाज, धर्म और अपने मन के भ्रमों को पार करना होगा।

कुछ सप्ताह बाद, जब वे फिर एक बार रावी के तट पर बैठे और मंजीत ने उसके हाथ को अपने हाथ में लेकर कहा, ‘रागिनी! मैंने बहुत सोचा, तुम ठीक कहती थीं; प्रेम देह से शुरू हो सकता है, पर उसकी मंजिल आत्मा की एकता है। लेकिन देह का आकर्षण भी प्रेम का हिस्सा है, और यह स्वाभाविक है। मैं तुम्हें केवल एक आत्मा के रूप में नहीं, बल्कि एक पुरुष होने के नाते एक स्त्री के रूप में भी महसूस करता हूँ...। सच बताओ, क्या तुम भी ऐसा महसूस नहीं करतीं? और क्या यह गलत है?’

साध्वी खामोश। रागिनी मुखर हो उठी। उसने कहा, ‘मंजी, प्रेम हमें सच बोलना सिखाता है, मन-वचन-कर्म से चतुराई छोड़ सरलता अपनाने की सीख और हृदय में कुछ और वचन-आचरण में कुछ हो, इस कपट को त्यागने का साहस देता है, तो क्यों न हम इस बारे में बड़ी माताजी से बात करें?’

मंजीत के लिए यह घड़ी- उसके हृदय की, इतने दिनों की तपस्या, त्याग और समर्पण की जीत थी। उसने भावुक हो, रागिनी का हाथ दबा दिया। 

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