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मन का भटकाव
दिन बीतते गए... राघवी के शब्द उसके मन में गूँजते रहे। वह समझ चुका था कि मेरा अतीत, मेरी गलतियों का बोझ है, लेकिन उस बोझ को उतारने का रास्ता भी है...। उसने अपने जीवन को नई दिशा देने का फैसला कर लिया।
अपने स्कूल के बच्चों के लिए एक नया प्रोजेक्ट शुरू किया उसने, जिसमें उन्हें अहिंसा, करुणा, और नैतिकता की कहानियाँ सुनाता...। जैन धर्म की शिक्षाओं को सरल भाषा में बच्चों तक पहुँचाने लगा, बिना यह जताए कि वह किसी धर्म का प्रचार कर रहा है।
एक दिन, उसने रावी के किनारे एक छोटा सा समारोह आयोजित किया, जिसमें बच्चों ने पर्यावरण संरक्षण के लिए पौधे लगाए। मंजीत ने देखा कि कुछ दूरी पर साध्वी राघवी अपने शिष्यों के साथ उसी तट पर थी। वह आश्रम के बच्चों के साथ नदी किनारे स्वच्छता अभियान चला रही थी। मंजीत ने हिम्मत जुटाकर उसके पास जाने का फैसला किया।
‘साध्वी जी,’ उसने सिर झुकाकर कहा, ‘मैंने आपकी बात मानी। मैंने अपनी गलतियों को क्षमा किया और अब बच्चों को सिखा रहा हूँ कि जीवन का मतलब केवल पाना नहीं, देना भी है।’
राघवी ने मुस्कुराकर कहा, ‘मंजीत, तुमने अपनी आत्मा की आवाज सुनी, यही सबसे बड़ी जीत है। धर्म सिखाता है कि हर जीव की आत्मा एक जैसी है। जब तुम दूसरों के लिए कुछ करते हो, तो तुम अपनी आत्मा को शुद्ध करते हो।’
मंजीत ने पूछा, ‘साध्वी जी, क्या मैं कभी उस शांति को पा सकूँगा, जो आपके चेहरे पर दिखती है?’
राघवी ने जवाब दिया, ‘शांति बाहर नहीं, भीतर है। जब तुम राग-द्वेष, क्रोध, और इच्छाओं को छोड़ दोगे, तब वह तुम्हें मिल जाएगी। अहिंसा का पालन करो, सत्य की राह पर चलो, और अपनी आत्मा को जानो।’
...
शिवालिक की तलहटी में वह एक सर्द सुबह थी, जब रावी का पानी ठंड से और भी सघन लग रहा था। मंजीत अपने स्कूल के बच्चों के साथ रावी के किनारे सफाई और पर्यावरण जागरूकता के लिए एक छोटा सा अभियान चला रहा था। उसकी आँखें बच्चों की हँसी और उनके उत्साह पर टिकी थीं, लेकिन मन कहीं और भटक रहा था। रागिनी से वह अकस्मात मुलाकात, उसकी शांत मुस्कान, और उसकी बातें उसके मन में बार-बार लौट रही थीं। वह आत्मा की खोज की बातें समझने की कोशिश कर रहा था, लेकिन देह का आकर्षण, वह पुराना प्रेम, अभी भी उसके मन को बेचैन करता था।
उधर, साध्वी राघवी अपने शिष्यों के साथ ध्यान शिविर के अंतिम दिन की तैयारियों में व्यस्त थी। उसकी साधना अब और गहरी हो चुकी थी। वह घंटों ध्यान में लीन रहती, और उसकी वाणी में अब वह शक्ति थी जो सुनने वालों के मन को झकझोर देती थी। लेकिन देह का यथार्थ उसके सामने भी आ खड़ा हुआ था।
...
एक दिन, जब वह आश्रम के पास एक छोटे से गाँव में प्रवचन देने गई, एक युवती ने उससे पूछा, ‘साध्वी जी, आत्मा की बात तो समझ आती है, लेकिन यह देह... यह मन... यह जो चाहतें उठती हैं, इन्हें कैसे शांत करें? मैं एक लड़के से प्यार करती हूँ, लेकिन वह मुझसे दूर है। मैं उसे भूल नहीं पाती।’
राघवी बनी रागिनी ने हठात उस युवती की आँखों में देखा, और एक पल के लिए उसे अपनी जवानी की स्मृतियाँ ताजा हो आईं। मंजीत का चेहरा, उसकी कविताएँ, उसकी आवाज... सब कुछ जैसे एक क्षण में जीवंत हो उठा। लेकिन उसने तुरंत अपने मन को संभाला और कहा, ‘देह का आकर्षण स्वाभाविक है, क्योंकि हम देह में बंधे हैं। लेकिन यह देह नश्वर है। जो चाहतें देह से शुरू होती हैं, वे मन को बंधन में डालती हैं। सच्ची मुक्ति तब मिलती है, जब तुम देह को केवल एक साधन समझो, न कि अपनी असलियत।’
उस रात, जब राघवी अपने कक्ष में अकेली थी, उसने ध्यान में बैठने की कोशिश की। लेकिन मन बार-बार भटक रहा था। वह सोच रही थी कि क्या वह वाकई राग-द्वेष से मुक्त हो चुकी है? मंजीत की वह कविता, उसकी नम आँखें, और उसका बदला हुआ स्वरूप... यह सब उसके मन में एक हल्की सी हलचल पैदा कर रहा था। उसने अपनी डायरी खोली और लिखा:
‘देह दिखती है, आत्मा छिपी है। मन भटकता है, क्योंकि देह का रंग गहरा है। लेकिन साधना का रास्ता देह को पार करना सिखाता है।’
दूसरी ओर, मंजीत भी अपने मन के द्वंद्व से जूझ रहा था। वह राघवी की शिक्षाओं को अपनाने की कोशिश कर रहा था। वह रोज ध्यान करता, जैन धर्म के सिद्धांतों को पढ़ता, और बच्चों को अहिंसा का पाठ पढ़ाता। लेकिन रात के सन्नाटे में, जब अकेला होता, रागिनी की वह पुरानी छवि- उसकी हँसी, चंचल बातें और स्पर्श उसे बेचैन कर देता।
वह सोचता, ‘क्या वह प्रेम देह का था और अब आत्मा का है! देह का था, और देह नश्वर है तो उसके उपभोग में स्वर्गिक आनंद क्यों...? और अब आत्मा का है तो देह का अवलंब, यह आकर्षण क्यों? आत्मा अमर है, तो यह बेचैनी क्यों? आत्मा शुद्ध और चैतन्य है तो उसकी शुद्धता और चैतन्यता के लिए ध्यान-धारणा विधि क्यों...?
द्वंद्व में उलझा एक दिन वह आश्रम जा पहुँचा। उसने हिम्मत जुटाकर साध्वी विशुद्धमति से इस दुविधा के बारे में बात करने का फैसला कर लिया था। साध्वी विशुद्धमति अपने कक्ष में अपने आसन पर विराजमान थीं। दो अन्य आर्यिकाएँ उनकी सेवा में तत्पर थीं। सभी ने स्वेत वस्त्र धारण कर रखे थे। कमरे में असाधारण शांति तारी थी। मंजीत प्रणाम करके बैठ गया। थोड़ी देर में उसने साध्वी जी के समक्ष अपनी बात रखी:
‘माताजी, मैं आत्मा की खोज में हूँ, लेकिन मेरा मन मुझे बार-बार देह की ओर खींचता है। रागिनी... साध्वी राघवी की यादें मुझे छोड़ती नहीं। क्या यह गलत है? क्या मैं कमजोर हूँ?’
विशुद्धमति के आगे यह राज पहली बार उजागर नहीं हुआ था। वे मंजीत और रागिनी के प्रेम के बारे में पहले से जानती थीं। उन्होंने शांत स्वर में कहा, ‘मंजीत, देह का आकर्षण मनुष्य का स्वभाव है। यह न तो गलत है, न कमजोरी। लेकिन साधना का मतलब है इस स्वभाव को समझना और इसे नियंत्रित करना। राघवी की यादें तुम्हारे मन में इसलिए हैं, क्योंकि तुमने उन्हें देह से जोड़ा है। जब तुम उन्हें आत्मा के रूप में देखोगे, तो यह बेचैनी खत्म हो जाएगी। जैन धर्म कहता है- संसार का हर रिश्ता, हर भावना, देह से शुरू होती है, लेकिन उन्हें हमें आत्मा की ओर ले जाना चाहिए।’
मंजीत ने पूछा, ‘लेकिन माताजी, अगर देह ही सब कुछ है, अगर आत्मा केवल एक कल्पना है, तो क्या यह सारी साधना व्यर्थ नहीं?’
विशुद्धमति ने गहरी साँस ली और कहा, ‘देह यथार्थ है, मंजीत! लेकिन वह क्षणिक है। आत्मा की बात इसलिए कही जाती है, क्योंकि वह देह के बंधन से परे है। अगर तुम आत्मा को कल्पना मानते हो, तो भी देह की सच्चाई को समझो- वह बदलती है, बूढ़ी होती है, और एक दिन खत्म हो जाती है। लेकिन मन की शांति, वह अनुभव जो साधना से मिलता है, स्थायी है। तुम्हारी बेचैनी देह की चाहत से है, लेकिन तुम्हारी शांति आत्मा की खोज से आएगी।’
...
उस दिन के बाद, मंजीत ने अपने जीवन को पूरी तरह बदल दिया। उसने जैन धर्म की शिक्षाओं को गहराई से समझना शुरू किया। वह नियमित रूप से आश्रम जाता, जहाँ वह साध्वी विशुद्धमति और राघवी के प्रवचन सुनता। उसने ध्यान और प्रायश्चित की साधना शुरू की। उसका मन अब पहले जैसा अशांत नहीं रहा। उसने अपनी डायरी में आखिरी कविता पूरी की:
‘मैं आत्मा, तू आत्मा, दोनों की इक राह।
मया छुटी, मन हुआ शांत, अब मुक्ति की चाह।।’
...
उधर, साध्वी राघवी आश्रम में अपनी साधना और संघ की सेवा में डूबी रही। वह अब बच्चों को पढ़ाने के साथ-साथ महिलाओं के लिए एक सशक्तिकरण केंद्र भी चलाने लगी थी, जहाँ वह उन्हें आत्मनिर्भरता और आत्मिक शांति का पाठ पढ़ाती। कभी-कभी, जब वह अपने कक्ष में ध्यान करती, तो मंजीत का चेहरा उसकी आँखों के सामने आ जाता। लेकिन अब वह उस चेहरे को देखकर मुस्कुराती थी, क्योंकि वह जान गई थी कि मंजीत भी अब अपनी राह ढूँढ चुका है।
रागिनी और मंजीत की कहानी अब प्रेम की नहीं, आत्मिक खोज की कहानी बन चुकी थी। दोनों ने अपने-अपने रास्ते चुने थे, लेकिन उनकी राहें एक ही सत्य की ओर बढ़ रही थीं- आत्मा की शुद्धि और मोक्ष का मार्ग। रावी नदी की तरह, जो चुपचाप बहती रहती है अपने गंतव्य की ओर...।
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