Ishq Benaam - 13 in Hindi Fiction Stories by अशोक असफल books and stories PDF | इश्क़ बेनाम - 13

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इश्क़ बेनाम - 13

13

विरह ने बदली राह

मंजीत का जीवन अब पहले जैसा नहीं रहा। रागिनी के साध्वी बनने की घटना ने उसका दिल जैसे चीर कर रख दिया था! कहाँ वह सोचता था कि एक दिन उसे मना लेगा, अपने प्यार की सच्चाई समझा देगा। मगर वह रास्ता, अब उसके लिए सदा को बंद हो चुका था। 

रागिनी, जो अब साध्वी राघवी बन चुकी थी, एक ऐसी दुनिया में चली गई थी, जहाँ मंजीत की कोई जगह नहीं थी। उसकी आँखों में बसी उसकी आखिरी छवि- मंदिर के प्रांगण में एक शांत चेहरा, सादा वस्त्र, और आँखों में वह चमक, जो संसार से परे थी, मन में बार-बार उभरती थी। 

वह उस चमक को समझ नहीं पाया, मगर उसे यह जरूर समझ आ गया था कि रागिनी अब उसकी नहीं, बल्कि अपनी आत्मा और मोक्ष की राह की हो चुकी थी।

मंजीत का मन अब न दफ्तर में लगता, न घर में। वो सरकारी नौकरी, जो कभी उसके लिए गर्व की बात थी, एक बोझ बन गई थी। दफ्तर की फाइलें, सहकर्मियों की बातें, और वह एकसार जिंदगी- सब उसे खोखली लगने लगी थी। 

अपने आलीशान घर की चारदीवारी में ही अब उसका जी, गैस चैम्बर की तरह घुटता। वह रात भर जागता, करवटें बदलता, कभी रागिनी की यादों में डूबता-उतराता, कभी नताशा के हैरतअंगेज कारनामे में। कि एक तो उसने तलाक के बदले भारी-भरकम मुआवजे की माँग कर उसे आफत में डाल दिया। फिर खुद भी रुकी नहीं क्योंकि उसका प्रेम तो विदेश में ही था। वह तो तलाक के बहाने उसे लूटने आई थी। लेकिन जब उसने मुआवजे के बदले तलाक से इनकार कर दिया तो रागिनी के नाम वह जहरीला खत भेज उसे ऐसा अचूक डंक मार दिया कि उस लाल बिच्छू का भयानक विष उसकी रग-रग को फाड़े-खाये जा रहा था।

उसका मन कहता कि वह कुछ करे, आग-धतूरा! कहीं जाए, मगर कहाँ? उसे कुछ सूझता नहीं। 

आखिरश, एक दिन, उसने फैसला कर लिया। 

उसने अपनी पक्की सरकारी नौकरी छोड़ दी। 

उसने अपना घर और कार बेच दी, जो कभी उसके सपनों का हिस्सा थे। 

पठानकोट शहर, जहाँ रागिनी की यादें हर गली, हर नुक्कड़ पर बिखरी थीं, उसे अब और बर्दाश्त नहीं हुआ। वह सब कुछ पीछे छोड़कर रावी नदी के किनारे एक छोटे से कस्बे में चला गया।

वहाँ, रावी के किनारे एक प्राइवेट स्कूल में उसने वार्डन की नौकरी कर ली। यह स्कूल बच्चों के लिए एक आवासीय विद्यालय था, जहाँ अनाथ और गरीब परिवारों के बच्चे पढ़ते। कुछ दिन बाद मंजीत ने अपनी जमा पूंजी भी स्कूल को डोनेट कर दी! 

प्रिंसिपल चमत्कृत हो गई। उसने कहा, ‘यह एक बहुत ही अच्छा और नेक काम है! इससे हमें छात्रों को बेहतर शिक्षा और सुविधाएँ प्रदान करने में मदद मिलेगी। आपका यह यह दान शिक्षा के क्षेत्र में एक बड़ा योगदान है और समाज के लिए एक अच्छी पहल।’

मंजीत को उसकी तारीफ से कोई फर्क नहीं पड़ा। वह इस नौकरी को चौबीसों घण्टे यहीं रहकर बाकायदा नौकरी की तरह करने लगा, जो उसने रोजी-रोटी के लिए नहीं, अपने मन को संभालने के लिए चुनी थी। 

दिन में वह बच्चों की भोजन-पानी की व्यवस्था देखता, रात में चौकसी और उनके साथ समय भी बिताता। हिंदी साहित्य तो कभी इतिहास पढ़ाता। 

बच्चों की मासूमियत और उनकी जिज्ञासा उसे रागिनी की उस दुनिया की याद दिलाती थी, जहाँ वह बच्चों को जैन धर्म की शिक्षाएँ देती थी। मंजीत को लगता कि शायद इस तरह वह रागिनी के करीब रह सकता है, भले ही वह अब उससे मीलों दूर थी।

रात के सन्नाटे में, जब बच्चे सो जाते, मंजीत रावी के किनारे आ बैठता। नदी का बहता पानी और उसकी हल्की-हल्की आवाज उसे कुछ पल के लिए सुकून दे देती। वह कभी-कभी अपनी डायरी लिखता, जिसमें उसका दर्द, उसकी उदासी, और रागिनी की यादें शब्दों के रूप में उतर आतीं। उसने एक बार लिखा:

‘रागिनी, तुमने अपनी आत्मा को मुक्त कर लिया, मगर मेरा मन अभी भी तुम्हारी यादों का गुलाम है। मैंने सब छोड़ दिया, फिर भी तुम्हारा साया मेरे साथ है। शायद यही मेरा प्रायश्चित है।’

मंजीत के लिए यह नई जिंदगी आसान नहीं थी। बच्चों के साथ समय बिताते वह बाहर से हँसता-मुस्कुराता, मगर भीतर से खाली था। बच्चों को गुरुवाणी सुनाने, कबीर को समझाने, और इतिहास की कहानियाँ सुनाने में उसे सुकून मिलता। मगर जब कोई बच्चा उससे पूछता, ‘सर, आप इतने उदास क्यों रहते हैं?’ तो वह ऊपर से तो मुस्कुरा देता, लेकिन भीतर और गहरा उदास हो जाता।

एक रात, जब वह स्कूल के प्रांगण में अकेला बैठा था, एक छोटी सी लड़की, जिसका नाम राधा था, उसके पास आई। उसने मासूमियत से पूछा, ‘सर, आप रात में इतना क्या सोचते हैं? क्या आप कोई अधूरी कहानी हमें सुनाने के लिए याद करते रहते हैं?’

मंजीत हँस पड़ा, मगर उसकी हँसी में दर्द था। उसने राधा के सिर पर हाथ फेरा और कहा, ‘हाँ, राधा, मेरी कहाणी अद्धी रह गई... मगर अब ओहदे नूं मुकाने दा समां नहीं रिहा। अब तुसां सब मेरी नई कहाणी ओ।’

राधा एक छोटी बच्ची, कुछ समझी नहीं। मगर वह मुस्कुराकर चली गई। मंजीत ने उस रात अपनी डायरी में लिखा:

‘शायद रागिनी सही थी। शांति बाहर नहीं, भीतर है। मैं उसे ढूँढने की कोशिश कर रहा हूँ, मगर रास्ता लंबा है। बच्चों की हँसी, रावी का पानी, और ये रातें- शायद यही मेरी साधना है।’

...

मंजीत अब धीरे-धीरे अपनी नई जिंदगी में रमने की कोशिश कर रहा था। वह जानता था कि रागिनी, जो अब साध्वी राघवी थी, अपनी राह पर चल पड़ी थी। और वह, अपने अधूरे सपनों और रागिनी की यादों के साथ, अपनी राह तलाश रहा था। रावी का किनारा, बच्चों की हँसी, और साहित्य की किताबें अब उसका सहारा थीं। मगर कहीं गहरे में, उसके दिल में रागिनी की वह आखिरी छवि हमेशा जिंदा रहती थी- एक साध्वी, जो शांति की ज्योति लिए मोक्ष की ओर बढ़ रही थी, और वह, जो उस ज्योति को दूर से देखकर ही अपने दर्द को भूलने की कोशिश कर रहा था...।

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