Chandrvanshi - 6 - 6.2 in Hindi Mythological Stories by yuvrajsinh Jadav books and stories PDF | चंद्रवंशी - अध्याय 6 - अंक 6.2

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चंद्रवंशी - अध्याय 6 - अंक 6.2


एक तरफ सूर्यांश को गुप्तचर ने चंद्रमंदिर का रहस्य बताया, दूसरी तरफ मदनपाल को उसके पिता ग्रह रिपु ने उसके पौराणिक ख़ज़ाने की बात बताई।  
राजा से निकलते ही झंगीमल मदनपाल को सामने मिला। शरण में आए झंगीमल का चेहरा बदला हुआ था, फिर भी उसे देखकर राजकुमार समझ नहीं सके कि इस सबके पीछे कहीं न कहीं झंगीमल ही है।  
"राजकुमार जी प्रणाम।" सामने आया झंगीमल बोला। मदनपाल वैसे तो अपने दुश्मनों को दूर ही रखता, लेकिन अपने पिता की आज्ञा के कारण उसने झंगीमल को जीवित छोड़ा। जो आज उसे प्रणाम कर रहा था। मदनपाल खुश हुआ और मन ही मन सोचा, पिताजी की बात मानी तो ये आज मेरे सामने झुका।  
कपटबाज झंगीमल के झुकने का कारण न समझ पाने वाला मदनपाल अभिमानी हो गया। इसलिए उसका चेहरा देखकर झंगीमल बोला, "लगता है बड़ी खदान हाथ लग गई!" इसका मतलब झंगीमल भी इस बात को जानता था।  
"अ... ना... हाँ... मुझे थोड़ा काम है। फिर मिलते हैं।" मदनपाल वहाँ से निकल गया।  
बाहर उसके साथ आने वाले सिपाही भी थे। जो कथा अर्धचंद्र की निशानी से पूरी हुई थी। वह तावीज़ के साथ मदनपाल अपने सिपाहियों के साथ जंगल में गया। उनके साथ एक वृद्ध सिपाही भी था, वह चंद्रमंदिर के अंग रक्षकों का अंतिम वंशज था। उन्हें हर चंद्रवंशी राजा जीवनभर का राशन देता था, ऐसी परंपरा बनाई गई थी। हालांकि सच्चाई ये थी कि उन्हें वर्षों से उस गुफा की रक्षा में रखा गया था। जो गुफा चंद्रमंदिर के यज्ञकुंड के पास ही थी।  
(जब चंद्रमंदिर में अथाह सोना रावभान द्वारा रखा गया, तब उसके विश्वासपात्र मित्र ने वचन दिया था कि जब तक इस धरती पर मेरा वंश रहेगा, तब तक इस सोने की खदान को कोई अधर्मी नहीं लूट सकेगा। उसकी चाल यह थी कि थोड़ा सा सोना द्युतखाड़ी में बहा देना चाहिए। क्योंकि, अगर किसी सूर्यवंशी राजा को इस बात की जानकारी हो जाए तो वहाँ स्थित खाड़ी से सोना पाकर वह शांत हो जाए। जिसे भी सोना मिलेगा वह खाड़ी में सोना खत्म होने के बाद वहाँ से निकल जाएगा और अथाह सोना हमेशा इस मंदिर की गुफा में ही रहेगा।)  
दूसरी ओर सूर्यांश चंद्रहाट्टी में वापस आकर पांडुआ गाँव के मुखी रमनलाल से मिलने पहुँचा। वहाँ वैभवराज का पुत्र अपने दादा के पास बैठा था। मुखी को संतान सुख नहीं था इसलिए वैभव का पुत्र परम रमनलाल के साथ ही रहता। हालांकि, परम की माता ने उसे जन्म देते ही स्वर्ग सिधार लिया था। इस समय मुखी की ओढ़नी में सन्नाटा था।  
"लक्ष्मण जैसा भाई सेवा नहीं कर सका, तो उसने मुझे श्रवण जैसा पुत्र अर्पित किया।" आँखों से आँसू पोंछते हुए रमनलाल बोले।  
"मुखी, आपके भाई की ज़िंदगी ही नहीं, बल्कि मृत्यु भी रहस्यपूर्ण रही।" सूर्यांश मुखी की ओढ़नी के द्वार पर आकर बोला।  
"रहस्य!" आश्चर्य से मुखी बोला और अपने खाट से उठकर मुखी भी दरवाज़े के पास पहुँचा।  
"हाँ मुखी, द्युतखाड़ी का रहस्य।" सूर्यांश बोला।  
"मैं कुछ समझा नहीं?" रमनलाल बोले।  
"मुखी, आपके भाई राज्य के युद्ध में नहीं बल्कि, खाड़ी की रक्षा में मरे थे।" सूर्यांश तेज़ी से बोला।  
"खाड़ी! रक्षा? तुम कहना क्या चाहते हो?" रमनलाल सीधी बात करता है।  
"मेरे गाँव के सिपाही ने देखा है।" परम के पास जाकर उसके कंधे पर हाथ रखकर सूर्यांश फिर बोला। "मुझे मेरे गुरुजी का वचन पूरा करना है।"  
"सूर्यांश, ये सब क्या चल रहा है, कुछ समझ नहीं आ रहा?" रमनलाल भी परम की ओर देखते हुए बोले।  
"यह अंतः युद्ध है मुखी।"  
"इसका मतलब राज्य संकट में है?" परम आश्चर्य से बोला।  
"हाँ, राज्य ही नहीं बल्कि प्रजा भी और बाकी सब से ज़्यादा नुकसान पांडुआ वासियों का ही है। जिसका कारण है द्युतखाड़ी।" सूर्यांश के शब्दों ने रमनलाल की होश उड़ा दिए।  
अब, मुखी ने गाँव के सभी सिपाहियों को इकट्ठा किया और आने वाले संकट के बारे में सभी सिपाहियों को बताया। जिसमें सिपाहियों का सिर्फ़ एक ही सवाल था। "द्युतखाड़ी में क्या है?"  
"उसका रहस्य तो अब वहाँ जाकर ही पता चलेगा।" परम बोला।  
परम की बात सुनकर मुखी की आँख भर आई। "परम!"  
"परम, तुम्हें वहाँ जाने की ज़रूरत नहीं है। तुम अभी पूर्ण सिपाही भी नहीं हो। तुम्हें यहीं रहकर गाँव की रक्षा करनी चाहिए।" सूर्यांश बोला।  
"अगर आप अपने गुरु के वचन के लिए प्राण त्यागने को तैयार हो जाओ, तो वो तो मेरे पिता थे। हाँ! मैं वैभवराज का पुत्र हूँ। क्या मैं अपने पिता के वचन को व्यर्थ जाने दूँ?" इतना बोलकर नवयुवक ने सिपाहियों के सामान से तलवार उठाकर उबलते हुए लहू के साथ ऊँचे स्वर में "जय भवानी..." का नारा शुरू किया।  
इस समय सूर्यांश ज़मीन पर बैठे रमनलाल के पास जाकर दोनों हाथ जोड़कर बोला। "माफ कीजिए मुखी। मैं गाँव की रक्षा के लिए आया था। आपकी वृद्धावस्था में लाठी का सहारा छीनने नहीं।"  
मुखी की आँखों में पुत्र प्रेम के आँसू थे। फिर भी, उन्होंने कायरों जैसे शब्द नहीं बोले और बोले, "जो खून एक सच्चे सिपाही का हो, वो संकट के समय स्त्रियों की तरह घर में न उबले। वह युद्ध के मैदान में ही शोभा देता है। जय भवानी..."  
सूर्यांश सिपाहियों को लेकर द्युतखाड़ी की ओर रवाना हुआ। परम भी जवानी के जोश में धरती का ऋण चुकाने सूर्यांश के क़दम से क़दम मिलाकर पूरी गति से उनके साथ चल रहा था। 

***