Chandrvanshi - 5 in Hindi Mythological Stories by yuvrajsinh Jadav books and stories PDF | चंद्रवंशी - अध्याय 5

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चंद्रवंशी - अध्याय 5

सुबह

ॐ सूर्याय नम: ।  
ॐ सूर्याय नम: ।।

दो हाथों के बीच एक सोने की कलश पकड़े एक सुंदर स्त्री सरोवर के किनारे सूर्य पूजा कर रही है। उसके सिर पर लगे मोगरे के फूल, उसकी जटाओं की सुंदरता को चार चाँद लगा रहे हैं। उसके दूधिया रंग की जीर्ण साड़ी को देखकर ऐसा लग रहा था मानो उसने विशाल आकाश ओढ़ लिया हो। रोज़ ऐसा लगता था जैसे सूर्य जागते ही सबसे पहले उसी को एकटक निहारता हो। उसके आसपास सूर्य की रोशनी की गर्मी नहीं, बल्कि शीतलता का अनुभव हो रहा था। उसके साथ एक दासी भी थी, जो रोज़ उसके साथ सूर्य पूजा की सामग्री लेकर आती। वह एक राजकुमारी है। उसके पिता राजा हैं और अब उसका भाई राजा बनने वाला है। हमेशा की तरह आज भी सूर्य उगने से पहले उसका भाई राज्य के कार्यभार संभालने में व्यस्त है। हमेशा की तरह राजकुमारी संध्या भी अपने प्रिय परमेश्वर की प्रार्थना करने ज़रकंद सरोवर के किनारे पहुँच गई थी। उसकी सूर्य पूजा समाप्त होते ही वह वहाँ से अपने महल की ओर चल देती है। वह सूर्य पूजा के लिए हमेशा नंगे पाँव चलकर आती है और लौटती है। महल से ज़रकंद सरोवर क़रीब ही है। राजकुमारी और उसकी दासी बातें करती हुई महल की ओर जा रही हैं।  
"पारो, आज तू देर से क्यों पहुँची?" राजकुमारी संध्या ने अपनी दासी को तीखी नजरों से देखकर मीठे स्वर में पूछा।
पारो थोड़ी सोचकर बोली, “क... कल रात थोड़ी देर से सोई थी, इसलिए सुबह जल्दी नहीं उठ सकी राजकुमारी।”
"क्यों? कल तो तू जल्दी घर चली गई थी! फिर देर से क्यों सोई और रात के समय भी तू नहीं आई?" राजकुमारी ने पारो से एक साथ तीन सवाल पूछ डाले।
"उसमें ऐसा हुआ राजकुमारी कि, कल मेरे भाई भोलो को देखने लड़कीवाले शाम को आए थे। मेरी माँ ने भोलो को छोड़कर सब कुछ उस बनने वाली नई बहू को दिखा दिया, इसलिए रात हो गई। रात को उन्हें भोजन कराया और अंधेरे में भोलो घर लौटा, तो मेरी माँ को अंधेरे का बहाना मिल गया और भाई की बात पक्की हो गई। मेहमानों को रात में देर से ही विदा किया। क्योंकि मेरी माँ को डर था कि अगर सुबह लड़कीवाले भोलो को देखकर मना कर देंगे तो!"  
राजकुमारी हँसने लगी। संध्या के गालों पर पड़ने वाले गड्ढे देखकर पारो बोल उठी, “राजकुमारी जी, आप हँसते हुए कितनी सुंदर लगती हैं! अगर इस समय कोई राजकुमार आपको देख ले, तो वो आपको देखकर ही मंत्रमुग्ध हो जाए।”  
यह सुनकर राजकुमारी नाराज़ हो गई। “पारो, फिर कभी इस विषय पर बात मत करना। मैं तुझे दासी नहीं, अपनी सखी मानती हूँ और तुझे तो पता ही है कि मुझे अभी विवाह नहीं करना है।”  
पारो घबरा गई और एक हाथ में थाली पकड़कर खाली हाथ से साड़ी का पल्लू लेकर मुँह पर बह रहे पसीने को पोंछते हुए हल्के स्वर में बोली, “माफ़ कीजिए राजकुमारी, मेरे मुँह से निकल गया। अब दोबारा ऐसी भूल नहीं करूँगी।”  
थोड़ी देर में वहाँ से एक सूबेदार गुज़रता है। वह बुज़ुर्ग था। उसने राजकुमारी संध्या को देखते हुए महल की ओर क़दम बढ़ाए। वह पारो को भी देखता है। यह देखकर पारो से रहा नहीं गया और वह बोल उठी,  
“यह बूढ़ा तो ऐसा लग रहा है जैसे ‘गहढ़ी गाने लाल लगाम’ बाँधकर निकला हो।”  
"पारो! यह कौन था? पहले तो कभी नगर में नहीं देखा?" राजकुमारी ने पूछा।
“कहाँ से देखा होगा ऐसे नकटा, नाक-कान बिना वाले को हमारे नगर में? यह वही है जिसे राजा बनने से पहले आपके भाई मदनपाल ने हराकर अपनी प्रजा को इस पापी से मुक्त करवाया था।” पारो अपनी साड़ी का पल्लू दाएँ हाथ की एक ऊँगली पर लपेटते हुए बोल रही थी।
“इसलिए पिता जी भाई की वीरता से प्रसन्न थे, इसका कारण यह बूढ़ा राजा था!” अब राजकुमारी को अपने पिता के प्रसन्न होने का कारण समझ में आया।
“राजकुमारी, मैं तो एक दासी हूँ। मुझे तो औरों से ही बातें सुनने को मिलती हैं। मैं तो बस इतना ही जानती हूँ। लेकिन...” पारो संध्या को जवाब देते-देते रुक गई।
“क्या लोगों को कुछ शंका है?” संध्या ने चलते हुए अपनी गति धीमी करते हुए पारो के “लेकिन” से उत्पन्न प्रश्न को उसके सामने रखा।
पारो के चेहरे पर फिर से पसीना छूटने लगा और काँपती आवाज़ में बोली, “आपके भाई तो राजा हैं और राजा के बारे में प्रजा बुरा कैसे कह सकती है?” पारो रुक गई।
पारो का रुकना राजकुमारी संध्या की जिज्ञासा और बढ़ा गया। इसलिए राजकुमारी बोली, “क्या हुआ पारो! क्यों रुक गई? क्या प्रजा को विश्वास नहीं है कि मेरा भाई एक अच्छा राजा बनेगा?”
पारो डर गई थी कि राजकुमारी उस पर क्रोधित हो जाएगी, इसलिए डर के मारे पारो के मुँह से अचानक निकल गया, “नहीं राजकुमारी, मेरा कहने का वह मतलब नहीं था। बस यह बात प्रजा को अच्छी नहीं लगी कि...” पारो जैसे कुछ ज़्यादा बोल गई हो, ऐसा सोचकर चौंकी और फिर रुक गई।
अब संध्या की जिज्ञासा ने उबाल लिया और वह ऊँचे स्वर में बोली, “प्रजा को क्या पसंद नहीं आया? यूँ बातों को घुमा मत, सीधे बात कर।”
डरी हुई पारो तुरंत बोल उठी, “महाराज ने परम को जीवित छोड़ने का आदेश दिया। जबकि राजकुमार मदनपाल ने उस राक्षस को मारने की कसम खाई थी।”  
राजकुमारी विचारों के भंवर से बाहर निकली।  
“तेरा कहने का मतलब यह है कि, राजा के आदेश का पालन करना महत्वपूर्ण है या अपने वचन का?”  
पारो घबरा गई। राजकुमारी को जो उलझन में डाला वह विचारणीय तो था ही, लेकिन अगर राजकुमारी यह बात अपने भाई से कहेगी, तो पारो भी दुविधा में पड़ जाएगी। इसलिए चिंतित पारो ने बात को मोड़ने की कोशिश की। “आपके लिए नए प्रकार के वस्त्र आपके पिताजी ने मँगवाए हैं। वे आज आ जाएँगे राजकुमारी।”  
“हाँ, लेकिन मेरे भाई का वचन...!” अब राजकुमारी भी रुक गई।  
“उस बारे में ज़्यादा मत सोचिए राजकुमारी। यह तो प्रजा है, आज बुरा बोले तो कल आपके चरणों में गिरे।” पारो बोली।
राजकुमारी भी उसका साथ देते हुए बोली, “जिस कारण पिताजी प्रसन्न हुए और भाई को राजा बनाया, वही बहुत है।”
“आज पूरे राज्य में उत्सव है। लोग बहुत प्रसन्न हैं, हर जगह केवल खुशी ही खुशी है।” पारो खुशी से बोली।
“हाँ, उन्हें दो ख़ुशियाँ हैं। जीत की और नए राजा की।” राजकुमारी संध्या बोली।
“हाँ, आपके भाई मदनपाल बहुत प्रतिभाशाली... राजा बनेंगे। उनके राजा बनने की खुशी में आज चंद्रताला मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा है। वहाँ मंदिर के बाहर महाराज की मूर्ति भी स्थापित की गई है।”  

***