चार छायाएं बचपन से एक थीं – अनूप, आनंद, पवन और बबलू। उनकी हंसी, उनकी शरारतें, उनके खेल, उनके सपने – सब कुछ साझा था। जब भी कोई गिरता, बाकी तीन उसे उठाने के लिए जान की बाज़ी लगा देते। गांव की गलियों में उनकी दोस्ती की कहानियां हवाओं में उड़ती थीं – "अगर कोई दोस्ती को जीता है, तो ये चारों।"
मगर वक़्त बहुत बेरहम होता है। वो खेलता नहीं, बदलता है... और जब बदलता है, तो जड़ से बदल देता है।
कॉलेज की उम्र आई। नई दुनिया, नए लोग, नई मोहब्बतें। और बस यहीं से शुरुआत हुई उस दरार की, जिसने दिलों को चीर दिया। अनूप को पूजा से प्यार हो गया, आनंद सीमा की आंखों में अपना अक्स देखने लगा, पवन को रितु के शब्दों में सुकून मिला, और बबलू को स्वाति की मुस्कान भा गई।
मगर मोहब्बत ने उन्हें जोड़ा नहीं, तोड़ा। जब उन्हें एक-दूसरे की मोहब्बत पर शक होने लगा, तब दोस्ती की दीवार में दरार पड़ी। अनूप को पूजा के फोन में आनंद के कॉल लॉग मिले, आनंद को सीमा के नोट्स में पवन का नाम दिखा, पवन को रितु की डायरी में बबलू का ज़िक्र दिखा, और बबलू को स्वाति की आंखों में अनूप की परछाईं।
वो जो कभी जान देने वाले थे, अब जान लेने को उतारू हो गए। दोस्ती की जगह नफ़रत ने ले ली। मिलना बंद हुआ, बातें बंद हुईं, और आंखें जब मिलतीं, तो उनमें सिर्फ़ आग होती।
गांव के कोनों में अब उनकी हंसी नहीं, लड़ाई की आवाज़ें गूंजती थीं। लोग कहते थे, “देखो, कैसे साया आपस में लड़ पड़ा है।” मगर किसी ने यह नहीं देखा कि इनकी दरार के पीछे कौन है।
वहीं गांव के एक कोने में दो आंखें ये सब देख रही थीं – धीरु और अंजू की आंखें। धीरु, वही धीरु जिसे कभी इन चारों ने अपना भाई कहा था। अंजू, वो लड़की जिसकी आंखों में सच्चाई की चमक और दिल में मां जैसी ममता थी। दोनों देख रहे थे कैसे दोस्ती खून में बदल रही है।
एक शाम, मंदिर की सीढ़ियों पर बैठा धीरु बोला – "अगर मैंने कुछ नहीं किया, तो मैं खुद को माफ नहीं कर पाऊंगा।"
अंजू ने उसका हाथ थामा, "मैं तुम्हारे साथ हूं। जो होगा, साथ होगा।"
उन्होंने चारों लड़कों और चारों लड़कियों से अलग-अलग मिलकर बातें कीं। और धीरे-धीरे उन्हें समझ आया कि असल लड़ाई मोहब्बत की नहीं थी, बल्कि एक जाल का हिस्सा थी।
एक रात, जब गांव की हवाएं कुछ ज्यादा खामोश थीं, धीरु ने अंजू से कहा – "अब समय है कि हम इस जहर को बाहर निकालें।" उन्होंने एक योजना बनाई – नकली खत, एक पुरानी कोठी, और एक आखिरी कोशिश।
चारों दोस्तों को अलग-अलग एक ही संदेश मिला – "अगर तुम्हें सच जानना है और अपनी मोहब्बत बचानी है, तो कल रात पुरानी कोठी में आओ। नहीं आए, तो धीरु और अंजू की जान चली जाएगी।"
रात हुई। चारों पहुंचे – लेकिन हाथों में हथियार लिए, एक-दूसरे से बचते हुए। पर जब उन्होंने देखा अंजू खून से लथपथ, और धीरु की छाती पर खून फैला हुआ, तो वक़्त थम गया।
एक पल में सब कुछ बदल गया। जो आंखें जलती थीं, उनमें आंसू भर आए। चारों दौड़े, अंजू को खोला, धीरु को गोद में उठाया।
"भाई... माफ कर दो..." अनूप की आवाज़ कांप रही थी।
तभी एक ज़ोरदार ठहाका गूंजा। अंधेरे से निकला गांव का सबसे अमीर आदमी – सेठ नरेशलाल। उसने कहा, "तुम्हारी लड़ाई, तुम्हारी मोहब्बत – सब मेरी चाल थी। दोस्ती में दरार डालो, और राज करो – यही मेरा काम है।"
धीरु की आंखें खुलीं। वो उठ खड़ा हुआ। "मैं जानता था... पर मुझे यकीन था, दोस्ती की एक चिंगारी काफी होगी सबकुछ फिर से रोशन करने के लिए।"
लेकिन सेठ का आदमी असली था। उसके पास असली बंदूक थी। एक गोली चली – अंजू की छाती चीरती हुई निकली।
दूसरी गोली – धीरु के दिल के आर-पार।
दोनों ज़मीन पर गिरे – एक-दूसरे की बांहों में।
धीरु ने आखिरी बार कहा – "अब लड़ना मत... अब टूटना मत... ये दोस्ती हमने खून से बचाई है..."
अंजू की आखिरी सांसें धीरु के नाम पर गईं।
चारों दोस्त चीख उठे। वक़्त के सामने पहली बार वे बेबस थे। दोस्ती बच गई थी... पर वो दो लोग जो उसकी नींव बने, वो नहीं बचे।
सेठ को गांव वालों ने पकड़कर पुलिस को सौंप दिया। अदालत ने उसे उम्रकैद दी। पर वो सजा चारों को जिंदगी भर की तड़प दे गई।
आज भी जब गांव में बारिश होती है, तो मंदिर की घंटियां खुद-ब-खुद बजने लगती हैं। कहते हैं वो धीरु और अंजू की आत्माएं हैं – जो आज भी दोस्ती को आशीर्वाद देती हैं।
चारों दोस्तों ने मिलकर एक जगह बनवाई – "धीरु-अंजू स्मृति स्थल"। वहां दोस्ती की शपथ दिलाई जाती है।
क्योंकि दोस्ती... केवल साथ रहने का नाम नहीं... दोस्ती वो रिश्ता है, जहां कोई तुम्हारे लिए अपनी जान भी हंसकर दे दे।