Beete samay ki REKHA - 12 in Hindi Classic Stories by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | बीते समय की रेखा - 12

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बीते समय की रेखा - 12

12.

कुछ अच्छे और नामचीन शैक्षणिक संस्थानों की आंतरिक संरचना में एक ख़ास बात रहती है जो हमें जाननी चाहिए। ये बात अलग है कि सतही तौर पर देख कर इसी खासियत को कहीं- कहीं एकपक्षीयता भी कह दिया जाता है।
ये महत्वपूर्ण बात यह है कि यहां ऊपर से नीचे तक चयन मानदंडों में एक सुरक्षित लॉयल्टी को प्राथमिकता दी जाती है।
रेखा को आरम्भ से ही इस संस्थान की ही छात्रा होने के कारण कुछ अतिरिक्त सद्भाव - सहयोग मिला। यह केवल अतिरिक्त था, बाकी अपनी नैसर्गिक योग्यताएं तो अपनी जगह थीं ही।
लिहाज़ा अपनी अगली पदोन्नतियों में रेखा को कुछ ऐसे दायित्व पूर्ण पद मिले कि उसके कुछ वरिष्ठजन उसके अधीनस्थ हो गए। यहां तक कि कुछ उसके पूर्व - शिक्षक भी उसके मातहत आ गए। यह एक विचित्र विकट स्थिति थी।
ऐसे में ये पूरी तरह आपके व्यवहार पर होता है कि आप इस असंतुलन को कैसे साधते हैं।
अब आप बॉस हैं। आपके चैंबर में आपके मातहत कार्य करने वाला कोई ऐसा व्यक्ति आएगा जो आपका शिक्षक भी रहा है। ऐसे में क्या होगा?
कई संभावनाएं हैं। मसलन आप खड़े हो जाएंगे, आप ही उसे पहले अभिवादन भी करेंगे। और आपको ही उससे विभागीय कार्य करवाते हुए उसे निर्देश भी देने हैं।
आप उससे नज़रें मिलाने से बचेंगे। उसकी अनदेखी करेंगे।
किसी तीसरे को मध्यस्थ बना कर उससे बात करेंगे और उसे काम बताएंगे आदि - आदि।
उस समय ऐसी जटिलता का हल सद्भावना और समझदारी से निकाल लिया जाता था।
वह समय ऐसा था कि कोई भी बात अभिधा,  लक्षणा या व्यंजना में कह कर उसका वांछित असर पैदा किया जा सकता था।
आज तो हमारे राजनीतिज्ञों ने इस स्थिति को एक आम बात बना छोड़ा है। प्रायः बड़े पदों पर नेताओं के बच्चे ही काबिज़ होते हैं और वर्षों से कार्य कर रहे वरिष्ठजनों को उनके अधीन काम करना पड़ता है। इसीलिए कार्य - कल्चर में चाटुकारिता, चालाकी जैसे लांछन लगाए जाते हैं। 
रेखा को अपनी इस स्थिति का बहुत अच्छी तरह से ख़्याल था। अपने सभी शिक्षकों को उसने वांछित आदर - सम्मान दिया। वह अपने इस संस्थान के प्रमुख के रूप में चैंबर में बैठते समय भी इस बात को कभी नहीं भूली कि डीन के रूप में कार्य करते हुए उसके साथ के कई सहकर्मी उसके वरिष्ठ अथवा शिक्षक भी रहे हैं। इसी भावना के चलते वह कभी अपनी आलीशान मेज़ के साथ लगी आरामदेह कुर्सी पर नहीं बैठती थी। हमेशा उसकी कुर्सी पर तो फ़ाइलों, किताबों, कागज़ों का अंबार सा लगा रहता और वह उसके पास ही एक छोटी कुर्सी लेकर बैठती थी।
उसकी यह सादगी उसके विद्यार्थियों को भी चकित करती थी। विद्यार्थी तथा सहकर्मी उसे इसके लिए और भी अधिक सम्मान देते थे। वह हर उम्र के लोगों से उनकी अपनी वेवलेंथ के अनुसार मिलती थी। अपने पद की गरिमा को उसने कभी आतंक में नहीं बदलने दिया।
विभाग के अधीनस्थ कर्मचारी तक उससे खुश रहते थे और उसके इशारों पर दौड़ - दौड़ कर कार्य करते देखे जाते थे। वह भी उनका पूरा ध्यान रखती थी और उनके साथ आत्मीयता से पेश आती थी।
यहां तक कि अपने महत्वपूर्ण दायित्वों के निर्वाह में देश - विदेश के दौरों पर जाने पर भी उसे अपने सहायकों के लिए समुचित तोहफ़े, चाहे बेहद छोटे और मामूली ही सही, लाना याद रहता था। आंखों में एक दूसरे के लिए लिहाज़ रहता था और कार्य को सुगम बना कर किसी न किसी तरह संपन्न कर ही लिया जाता था।
रेखा का व्यक्तित्व इस व्यावहारिक कुशलता में भी सफ़ल रहता था। लेकिन इस बीच जाने- अनजाने ही एक नई बात से भी रेखा का सामना होने लगा। बनस्थली विद्यापीठ में उसकी कार्य कुशलता की चर्चा के साथ - साथ दिल्ली और मुंबई में महत्वपूर्ण सरकारी विभागों में उसके कार्य कर लेने के कारण उसके पास कई अन्य संस्थानों से उच्च पदों के प्रस्ताव भी आने लगे।
प्रायः निजी क्षेत्र की शिक्षण संस्थाओं में यह परिपाटी होती ही है कि अपनी ज़रूरत के मुताबिक सक्षम, योग्य और अनुभवी लोगों को सेवा - प्रस्ताव दे दिए जाते हैं, चाहे उन्होंने स्वयं इसके लिए आवेदन दिया हो या नहीं।
आरम्भ में रेखा ने इस तरह के प्रस्तावों पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया।
किंतु महत्वाकांक्षी लोगों के लिए ऐसे प्रस्ताव एक आकांक्षा को जगाने वाले तो सिद्ध होते ही हैं। 
रेखा को भी दो नामी गिरामी संस्थानों से नौकरी का आमंत्रण मिला।
रेखा ने इनमें से एक को तो नजरअंदाज कर दिया लेकिन दूसरा एक ऐसे विश्वविद्यालय से था जो राज्य सरकार के विशेष अधिनियम के माध्यम से एक नई महिला यूनिवर्सिटी के रूप में खोला जा रहा था। इसके प्रथम कुलपति का प्रस्ताव मिलने पर इसे एकाएक अस्वीकार करना रेखा के लिए भी कठिन चुनौती बन गया।
 ये एक आंतरिक उथल - पुथल की बात थी।
छात्राओं को जब ये पता चला कि रेखा मैडम को किसी यूनिवर्सिटी से वाइस चांसलर पद का ऑफर मिला है तो उनके बीच तरह - तरह की अटकलें शुरू हो गईं।
- मिलना ही था, पता है, मैम यूनिवर्सिटी की यंगेस्ट कुलपति होंगी।
- हाय, फ़िर यहां हमारी यूनिवर्सिटी का क्या होगा?
- अरे सोचो तो सही, मैम बनस्थली के लिए तो अपनी इतनी शानदार मुंबई की सरकारी नौकरी छोड़ कर आई थीं, वो अब यहां से कहीं और भला क्यों जाएंगी? देखना वो रिफ्यूज़ कर देंगी।
- नहीं रे, किसी महिला के लिए कुलपति होना कोई साधारण बात नहीं होती। देश भर में गिनी- चुनी महिलाएं ही तो हैं जो इस पद पर हैं।
- देखना, यहां से उन्हें कोई जाने ही नहीं देगा।
- और अब उनके हसबैंड भी तो अपनी सरकारी सर्विस छोड़ कर यहां आ गए हैं। वो अब यहां के प्रशासन और जनसंपर्क अधिकारी बन गए हैं। अब क्यों जाएंगी।
- जा- जा...तू उन्हें नहीं जानती, उन्होंने काम की ज़िम्मेदारी के आगे घर- परिवार और अपनी निजी सुविधाओं को कभी तरजीह नहीं दी। वो नई यूनिवर्सिटी भी महिलाओं की ही यूनिवर्सिटी है। उसे राज्य सरकार ने विधानसभा में स्पेशल एक्ट पारित कर के बनाया है। रेखा मैम को पहली वाइस चांसलर बना रहे हैं, ज़रूर जाएंगी।
जितने मुंह उतनी बातें ! रेखा जब परिसर में इस तरह की चर्चा अपने विद्यार्थियों और स्टाफ के बीच सुनती तो एक ही बात कहती - तुम लोग अपनी पढ़ाई पर ध्यान लगाओ, जो होगा देखा जाएगा। 
ऐसी बातों पर निर्णय तो बहुधा समय और नियति ही लेते आए हैं। रेखा को शायद अब जयपुर शहर बुला रहा था, जहां यह नई यूनिवर्सिटी आकार ले रही थी। तमाम औपचारिकताएं और आत्मीयताएं अपनी जगह थीं।
निर्णय भी लिया ही जाना था। 
शास्त्री जी का कहना था कि हमारी कोई पुरानी छात्रा यदि उज्ज्वल भविष्य के लिए यहां से जाती है तो यह विद्यापीठ के लिए गर्व की ही बात है। फ़िर यह प्रस्ताव तो महिला शिक्षा की बेहतरी के लिए एक प्रकार से हमारे ही काम का विस्तार है।
लेकिन इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि हमारे लिए विद्यार्थियों की नियमित पढ़ाई महत्वपूर्ण है अतः हम चाहेंगे कि रेखा जी वहां से कुछ और समय लेकर यह पूरा सत्र यहीं निकालें ताकि विद्यार्थियों का परीक्षाओं के बीच में कोई नुकसान न हो।
यह बहुत बड़ी बात थी जो वास्तविक शिक्षाविद ही विद्यार्थियों के हित में सोच सकते हैं अन्यथा सरकारी संस्थानों में तो कितने ही राजनैतिक सरोकारों के चलते शिक्षा की उपेक्षा के मामले होते रहते हैं।
स्वयं रेखा का भी ऐसा ही सोचना था कि प्रशासनिक निर्णयों से विद्यार्थियों की पढ़ाई का नुकसान हर्गिज नहीं होना चाहिए। 
ये रेखा की एक और परीक्षा साबित हुई। एक ओर उसे अपने मौजूदा कार्यों व जिम्मेदारियों का पूरा अहसास था तो दूसरी ओर आने वाली ज़िम्मेदारी भी उसने स्वीकार कर ली। लगभग चार महीने उसे "एक पैर यहां, एक पैर वहां" की स्थिति में गुजारने पड़े।
महान लोगों की ज़िंदगी में ईमान की शायद यही अग्नि परीक्षा होती है जब आप उस जगह की दिल से बेहतरी चाहते हैं जहां से आप विदा हो रहे हैं और साथ ही आपके दिल में उस नई जगह का भी सुनहरा सम्मान होता है जहां आपको अब जाकर अपना नया भविष्य बनाना है। लेकिन कुदरत ने महिलाओं को यह दृढ़ता दी ही है कि वो दो नावों में सवारी करते हुए भी दोनों जगह अपनी कीर्तिपताका फहरा सकें। महिलाएं अपने निजी जीवन में भी तो दो ध्रुवों का केंद्र बिंदु होती ही हैं। दो परिवारों का मंगल सूत्र!
रेखा ने अपनी इस दोहरी भूमिका को अत्यंत कुशलता से निभाया।
एक साधारण इंसान तो किराए का घर भी बदलता है तो अपने नए घर की साज- सज्जा में पुराने घर में उखाड़ - पछाड़ करके नुकसान करने में कोई गुरेज नहीं करता लेकिन यहां तो दोनों ही स्थानों की महिमा का सम्मान अक्षुण्ण रखने की चुनौती थी।
रेखा को भी विद्यार्थियों तथा उनके अभिभावकों के इस यक्ष प्रश्न का सामना जब तब करना ही पड़ता था कि "मैम, दोनों में से कौन सा विश्वविद्यालय बेहतर है, हम अपने बच्चों को कहां प्रवेश दिलाएं?"
यहां तो एक बड़ा आधारभूत संरचना का अंतर था। एक ओर अत्यधिक पुराना, नैतिक मूल्यों पर विकसित, गांधीवादी सिद्धांतों पर चलता आया, सादा जीवन उच्च विचार केंद्रित संस्थान था तो दूसरी ओर पूरी तरह व्यावसायिक स्पर्धा के तहत आधुनिक सोच और सरोकारों को अपनाए हुए खड़ा नया नवेला संस्थान।
एक ओर था खादी के परिधान पहने आत्म निर्भरता पूर्ण, शाकाहारी भोजन अपनाने वाला जीवन तो दूसरी ओर आज के समय की तमाम इच्छाओं -आकांक्षाओं की चाह लिए फैशन परस्त जीवनशैली से सजा जीवन।
दोनों के बीच किसी पुल की तरह रेखा। लेकिन रेखा ने अपने छोटे से जीवन में अनुभवों की लंबी और समृद्ध पारी खेली थी। उसने व्यावहारिकता के नए मानदंड अपनाते हुए इस नए संसार में तो जगह बनाई ही, अपने पुराने संस्थान की गरिमा का भी पूरा ध्यान रखा।
वह अभिभावकों और बच्चों से कहती कि विद्यार्थियों को इस उम्र में खानपान, पहनावे या सुविधाओं की अपेक्षा यह देखना चाहिए कि जीवन में तुम्हारे सपने क्या हैं? तुम समाज को कुछ देने का हौसला रखते हो, या समाज से पाने की लालसा ही तुम्हारा ध्येय है, वातावरण तुम्हें न बनाए, तुम उसे बनाने की कोशिश करो।
बच्चे आदर से उसे देखते!
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