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विश्वविद्यालय का दर्ज़ा मिल जाने के बाद बनस्थली में और भी कई नए - नए विभागों के खुलने का रास्ता साफ हो गया था। कंप्यूटर साइंस, इलेक्ट्रॉनिक्स, प्रबंधन, एविएशन आदि की बढ़ती हुई मांग को देखते हुए पारंपरिक पाठ्यक्रमों, जैसे - कला, गृहविज्ञान, ह्यूमैनिटीज, आदि में छात्राओं का रुझान धीरे- धीरे कम होने लगा। इनमें विद्यार्थियों की संख्या भी घटने लगी। यह एक प्रकार से विश्वव्यापी ट्रेंड ही था क्योंकि महिला शिक्षा के क्षेत्र में अब बुनियादी परिवर्तन हो रहे थे। अब महिलाएं शिक्षित होने या पढ़लिख कर मात्र घर संभालने की जगह रोज़गार की ओर भी उत्साह से देख रही थीं। रोज़गार भी ऐसा नहीं कि स्नातक डिग्री करके बी. एड. कर लिया और शिक्षिका की आसान सी सुविधाजनक नौकरी मिल गई, बल्कि अब लड़कियों की रुचि इंजीनियरिंग, मेडिकल, मैनेजमेंट, कंप्यूटर साइंस, प्रशासनिक अधिकारी, सी. ए., सी. एस., जैसे अपेक्षाकृत कठिन समझे जाने वाले कोर्सेज में भी होने लगी थी और वो लगभग हर क्षेत्र में ही पुरुषों को चुनौती देती दिख रही थीं।
बनस्थली विद्यापीठ क्योंकि एक भावनात्मक जलजले से जन्म लेकर नारी शिक्षा के क्षेत्र में उभरा था, अतः यह देखना भी पर्याप्त दिलचस्प था कि समाज की कुछ आधारभूत बातों पर यहां अच्छी चर्चा या विचारविमर्श के द्वारा निर्णय लिए जाते थे। यह केवल सरकार द्वारा मान्य नियमों -अधिनियमों से गठित संस्थान नहीं था कि सरकार जो कहे, संस्थान उसे ही मानकर अपनाता चला जाए। बल्कि कई मामलों में तो इसने सरकार को भी मार्ग दिखाया।
यहां की कुछ बातें बाद में सरकारी संस्थानों के लिए प्रस्तावित या अनुशंसित की गई। यहां की पंचमुखी शिक्षा एक ऐसा ही कदम था।
मंगलवार को साप्ताहिक अवकाश के रूप में घोषित करना भी विद्यापीठ का एक ऐसा ही कदम था जिसने अन्य शहरों में स्थित संस्थानों से बेहतर संपर्क बनाने में शानदार काम किया। बाहर से महत्वपूर्ण लोग अपनी सुविधा से यहां आ पाते और यहां के लोगों को भी शोध व अध्ययन हेतु बाहर जाने का समय मिल जाता।
यहां कई ऐसी शासी समितियां कार्यरत थीं जो हर बात का ध्यान रखते हुए निर्णय प्रक्रिया में सहयोगी बनतीं।
रेखा को अपनी प्रतिबद्धता और स्पष्टवादिता के कारण आरम्भ से ही इन समितियों में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ। वह इन सभी मुद्दों पर अपनी बेबाक राय देती थी और उसका विद्यार्थियों से सीधा संपर्क होने के कारण उसकी बात पूरी गंभीरता से सुनी भी जाती थी। उसे अन्य विश्व विद्यालयों तथा कॉलेजों में भी बहुधा विशेषज्ञ के रूप में आमंत्रित किया जाता था। इसी के चलते उसके कुछ विदेश दौरे भी हुए। सीरिया जैसे देश में उसके व्याख्यान को बहुत अच्छा प्रतिसाद मिला।
संस्थान परिसर में खादी पहनने की अनिवार्यता भी एक ऐसा ही विषय था। शुरू में देश के स्वतंत्रता आंदोलन और गांधी जी की विचारधारा के अनुसार यहां खादी पहनने की अनिवार्यता की गई थी। कहा जाता था कि खादी एक प्रकार से आत्मनिर्भरता का प्रतीक है क्योंकि इसे स्वयं चरखा कात कर बनाया जा सकता है इसलिए इसे व्यवहार में अपनाया गया था। किंतु अब विद्यापीठ में कई आधुनिक पाठ्यक्रमों के शुरू हो जाने, विदेशों तक में यहां की छात्राओं का प्लेसमेंट होने तथा मल्टीनेशनल कंपनियों के प्रचलित कामकाज संभालने की वजह से छात्राओं को अपने परिधानों को अप टू डेट रखने के लिए प्रेरित किया गया। उधर खादी ने भी कई आधुनिक ब्रांड, डेनिम, खादी सिल्क आदि बना कर समयानुकूल बनने की चेष्टा की। रेखा का संतुलित समन्वयकारी दृष्टिकोण इस संदर्भ में बहुत सफ़ल और लोकप्रिय रहा।
विद्यापीठ की ख्याति में उस समय चार चांद लग गए जब इसकी संस्थापक रतन शास्त्री को सरकार द्वारा पद्मभूषण सम्मान प्रदान किया गया। उन्हें प्रतिष्ठित जमनालाल बजाज पुरस्कार भी दिया गया।
विद्यापीठ में सभी धर्मों से संबंधित प्रार्थना होती थी जिसे विशेष रूप से यहां के वातावरण के अनुरूप ही लिखा गया था। यहां किसी भी प्रकार जातीय वैमनस्य को भी पनपने नहीं दिया गया था और सभी जाति धर्मों की छात्राएं एकसाथ मिलकर रहती थीं, भोजन करती थीं, पढ़ाई करती थीं, खेलकूद में भाग लेती थीं।
रेखा जिस परिवार से संबंधित थी वो आर्यसमाजी था किंतु रेखा ने अपने घर परिवार से लेकर संस्थान तक में विचार, पूजा और आस्था की सभी पद्धतियों का भरपूर विधिवत सम्मान किया।
रेखा का यह स्पष्ट कहना और मानना था कि समाज में वर्षों से रहे स्त्री - पुरुष असमानता के मूल्यों के बावजूद नारी कल्याण इसमें नहीं है कि हम अब अपने कर्तव्य छोड़ कर अधिकार पाने पर ही आ जाएं। हमें अपनी कार्यक्षमता बढ़ाने पर जोर देना चाहिए ताकि हम अपने कर्तव्यों का निर्वाह करते हुए अधिकार पाने के हकदार हो सकें। यदि हम अधिकार मांगेंगे तो मांगने वाले ही बने रहेंगे।
रेखा सचमुच भारतीय मूल्यों के अधुनातन स्वरूप की निर्मिति थी जिसका श्रेय विद्यापीठ की संस्कारशील शिक्षा प्रणाली को भी जाता था।
भाषा को लेकर रेखा के विचार शुरू से ही बहुत स्पष्ट थे। यद्यपि उसका आरंभिक रुझान गणित विषय की ओर था जिसकी अपनी कोई भाषा नहीं होती। इसी तरह कंप्यूटर साइंस भी सभी भाषाओं में डील करती है। लेकिन भारत जैसे देश में भाषा की समस्या भी एक उलझन बन कर रह गई है।
रेखा का मानना था कि बच्चे की आरंभिक शिक्षा उसकी अपनी मातृभाषा में ही होनी चाहिए। यकीनन बच्चा सबसे पहले अपने पालनहार के हावभाव से ही सीखता है जो सबसे पहले मां ही होती है। भावनाओं के मौन आदान - प्रदान के बाद बच्चा उन्हीं चीज़ों और बातों को शब्दों में पिरोना सीखता है।
रेखा कहती थी कि चार सौ भाषाओं का देश बार - बार गुलामी के चंगुल में फंसता रहा, शायद इसका एक कारण यहां कोई एक भाषा का न होना भी है। भाषा समाज को जोड़ती है।इसलिए यदि हमने हिंदी को अपनी राजभाषा चुना है तो सभी को हिंदी की दक्षता भी प्राप्त करनी चाहिए।
विज्ञान, तकनीक और कंप्यूटर्स के क्षेत्र के लोग इस बात पर आश्चर्य करते थे कि जहां सारे में अंग्रेज़ी का ही बोलबाला है वहां रेखाजी हिंदी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं की हिमायत करती हैं। लेकिन चालीस साल पहले व्यक्त किए गए रेखा के ये विचार अब देश की नवीनतम शिक्षा नीति में झलकते हैं।
रेखा ने अनुवाद पर भी काफ़ी काम किया। बहुत सारी अध्ययन सामग्री के कई भाषाओं में उपलब्ध होने में भी उसका पर्याप्त योगदान रहा।
वह देश के तकनीकी शब्दावली आयोग से भी जुड़ी।
बनस्थली विद्यापीठ आरम्भ में केवल हिंदी माध्यम से चलने वाला संस्थान था किन्तु धीरे - धीरे इसमें अंग्रेज़ी और हिंदी दोनों माध्यमों का प्रवेश हुआ।
यहां एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि बनस्थली में क्षेत्रीय भाषाओं का प्रभाव न के बराबर ही रहा। राजस्थान में स्थित होते हुए भी राजस्थानी भाषा का असर यहां नहीं दिखाई पड़ता।
पाठकों को यह दिलचस्प कारण भी जानना चाहिए कि ऐसा क्यों हुआ?
विद्यापीठ के सह- संस्थापक शास्त्री जी प्रायः कहा करते थे कि बनस्थली में सारे देश के लोग आते हैं। आवासीय संस्थान होने के कारण वो यहीं रहते भी हैं। ऐसे में यदि हम लोग राजस्थानी भाषा में अपना व्यवहार और बातचीत करेंगे तो अन्य राज्यों से आए लोग भी ऐसा ही करेंगे। पंजाब वाले पंजाबी बोलेंगे, गुजरात वाले गुजराती, कर्नाटक वाले कन्नड़। इस तरह लोगों के बीच में अलग - अलग समूह बन जाएंगे और हमारा एक देशवासी होने का सपना अधूरा सा लगेगा। यदि कोई उड़िया है, कोई मराठी, कोई बंगाली... तो फ़िर भारतीय कौन है?
रेखा के मानस में यह बात गहराई से समाई हुई थी।
शायद यही कारण था कि रेखा प्रायः हिंदी में ही बोलना पसंद करती थी। उसके मुंह से कभी कोई क्षेत्रीय भाषाओं का वार्तालाप सुनाई नहीं देता था जबकि उसके जन्म स्थान की भाषा बृज, उसके अध्ययन क्षेत्र की भाषा ढूंढाड़ी ( राजस्थानी ) उसकी पहली नियुक्ति के स्थान की भाषा मराठी थी। अपने शैक्षणिक सरोकारों में अवश्य ही उसे अंग्रेज़ी का प्रयोग करना ही पड़ता था।
उसने पुणे के सी- डेक के साथ भी कार्य किया। इसके अतिरिक्त उसे कई सरकारी परियोजनाओं में कार्य करने का अवसर भी मिला। विश्वविद्यालयों को सरकार से मिलने वाले प्रोजेक्ट्स में तो उसका सक्रिय सहभाग होता ही था, उसे अपने स्तर पर भी कई परियोजनाओं का संचालन करने का अवसर मिला।
ज्ञानजोत राजस्थान सरकार की एक ऐसी ही परियोजना थी। जिस समय राज्य में लगभग हर शहर - कस्बे में ई - मित्र कियोस्क खोलने की योजना पर विचार हो रहा था तब ये बात भी उभर कर आई कि स्वरोजगार के इन केंद्रों पर लड़कियों की नियुक्ति भी की जानी चाहिए। इसी अवधारणा को लेकर राज्य के सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय ने राजस्थान राज्य के सभी जिलों में कुछ महिलाओं को चुन कर उन्हें कियोस्क संचालन का प्रशिक्षण देने का कार्यक्रम बनाया। रेखा को इस प्रोजेक्ट के प्रिंसिपल इन्वेस्टिगेटर के तौर पर चुना गया। राजस्थान के सभी जिलों में पचास- पचास महिलाओं को चुन कर एक प्रशिक्षण दिया गया जिसमें कंप्यूटर टेक्नोलॉजी, प्रबंधन, एंटरप्रिन्योरशिप तथा स्किल डेवलपमेंट का पाठ्यक्रम जोड़ कर एक नेतृत्वकारी पहल की गई। इसकी सफलता के साथ ही रेखा को व्यापक स्तर पर शैक्षणिक हलकों में भी स्वीकार मिला। इस परियोजना की उन्मुक्त सराहना राज्य की तत्कालीन मुख्यमंत्री द्वारा भी की गई जो स्वयं एक महिला थीं। सभी जिलों के जिलाधिकारियों की देखरेख और मार्गदर्शन में यह परियोजना एक मील का पत्थर साबित हुई।
इस प्रकार रेखा ने अपनी पढ़ाई और अकादमिक योग्यता का कदम- कदम पर भरपूर उपयोग किया।
इक्कीसवीं सदी के आगाज़ के साथ ही महिलाओं का सहभाग हर क्षेत्र में बढ़ता हुआ दिखाई देने लगा। रेखा अपने विद्यार्थी जीवन से ही यह सपना देखती आ रही थी।
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