१.
अबीर… नाम जितना सीधा, स्वभाव उतना ही उल्टा। उसे ना कल की चिंता थी, ना आज की कद्र। जिंदगी उसके लिए एक खुला मैदान थी जिसमें उसे बस आज़ादी से दौड़ते जाना था। बिना किसी मंज़िल के। हर सुबह की शुरुआत उसके बेपरवाह ठहाकों से होती और हर शाम मि. अभिमन्यु की नाराज़गी से खत्म। वे बार-बार समझाते, टोकते, राह दिखाने की कोशिश करते, लेकिन अबीर तो जैसे हवा था, जिसे कोई बांध नहीं सकता।
उधर एक दूसरा संसार था... पायल का।
पायल… एक ऐसा नाम जो सुकून देता था। उसकी मुस्कान जैसे किसी टूटे दिल पर मरहम लग जाए। वह जहां जाती, वहां की फिज़ा खुद-ब-खुद बदल जाती। रिश्तों को निभाने का सलीका उसमें कूट-कूट कर भरा था। वह छोटी-छोटी बातों में खुशियां ढूंढ़ लेना जानती थी और दूसरों की खुशी के लिए खुद की इच्छाएं भी चुपचाप समेट लेती थी।
ज़िंदगी ने उसे कम उम्र में ही बड़ा बना दिया था। दस साल की नन्हीं पायल जब अपने पापा को एक कार एक्सीडेंट में खो बैठी, तब दुनिया की सच्चाई पहली बार उसके मासूम दिल से टकराई थी। उस हादसे ने सुनीति जी को भी झकझोर दिया था, लेकिन एक मां कभी हार नहीं मानती। उन्होंने खुद को संभाला, और अहमदाबाद के एक मॉल में मैनेजर की नौकरी कर घर की ज़िम्मेदारी उठा ली।
पायल ने भी वक्त से समझौता करना सीख लिया था। पढ़ाई में होशियार, स्वभाव में विनम्र और दिल से बेहद मजबूत। अब वह एक मल्टीनेशनल कंपनी में काम करती थी। नए लोगों से मिलना, उनकी कहानियां सुनना और दिल से जुड़ जाना उसकी फितरत थी।
दो अलग दुनिया के दो किरदार.... अबीर और पायल।
जिनके रास्ते शायद कभी न मिलते, लेकिन किस्मत की कहानी तो अक्सर वही होती है जो हमें सोचने पर मजबूर कर दे।
अबीर और पायल… दोनों अपनी-अपनी दुनियाओं में मसरूफ थे। दो अलग धड़कनों की तरह, जो एक ही धड़कन की तलाश में थीं लेकिन खुद इस बात से अंजान थीं।
अबीर को अपनी बेपरवाह दुनिया में कोई कमी न दिखती थी। उसे आज़ादी प्यारी थी, और बंधनों से चिढ़। वहीं पायल, अपनी ज़िम्मेदारियों और रिश्तों की गर्माहट में संतोष पा चुकी थी। उसकी मुस्कान में एक अपनापन था, तो अबीर की हंसी में एक अजनबीपन।
दोनों एक-दूसरे की ज़िंदगी में कहीं नहीं थे, लेकिन फिर भी जैसे कोई अदृश्य डोर थी जो उन्हें खींच रही थी। कहते हैं न कभी-कभी ज़िंदगी हमें उन राहों पर ले जाती है, जिनके बारे में हमने सोचा तक नहीं होता। जो हमारे लिए बना होता है, वह चाहे कितनी भी देर से आए, आता जरूर है।
बस, ज़रूरत होती है तो बस पहचानने की। और वो पहचान... अक्सर वक्त लेती है।
अबीर और पायल के जीवन की घड़ी चल तो रही थी, लेकिन किस्मत ने उनके लिए जो वक्त चुना था, वो अब धीरे-धीरे पास आने लगा था। वे दोनों अनजाने थे उस मोड़ से, जहां उनकी कहानियां टकराने वाली थीं।
एक मुलाक़ात… जो शायद एक पूरी ज़िंदगी बदल सकती थी।
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रविवार की सुबह कुछ खास होती है। वो भागदौड़ नहीं, वो अलार्म की झुंझलाहट नहीं… बस एक धीमा-सा सुकून जो पूरे हफ्ते की थकान को धो डालता है। आज भी ऐसा ही एक रविवार था।
पायल ने अपने ऑफिस के कामों से कुछ पल चुराए और अपनी कुछ खास सहेलियों के साथ मॉल जाने का प्लान बना लिया। मौसम भी बेहद खुशगवार था। हल्की धूप और ठंडी हवा के झोंके मन को और भी तरोताजा कर रहे थे। अहमदाबाद के उस बड़े और भीड़-भरे मॉल में चारों तरफ चहल-पहल थी। कपड़ों की दुकानें, डिस्काउंट के बोर्ड, लोगों की हंसी और बच्चों की शरारतें, हर कोना जिंदगी से भरा हुआ था।
पायल अपने मनपसंद ब्रांड की दुकान में घुसी और नए डिज़ाइनों को देखकर उसकी आंखों में चमक आ गई। वह हंसती-खिलखिलाती अपनी सहेलियों के साथ कपड़े देखते हुए आगे बढ़ रही थी।
गुलाबी रंग के सूट में उसकी मासूमियत और भी निखर कर सामने आ रही थी। कंधों तक खुले बाल, माथे पर हल्की बिंदी, झुमके की हल्की खनक… वो दिखने में जितनी सादी थी, उतनी ही प्यारी।
उधर मॉल के उसी फ्लोर पर, कुछ दूर… अबीर अपने दोस्तों के साथ मौजूद था। वह मॉल में खरीददारी कम और मस्ती ज़्यादा करने आया था। हाथ में एक कोल्ड ड्रिंक का कप और चेहरे पर वही बेफिक्री भरी मुस्कान।
अचानक…
भीड़ का एक तेज़ धक्का आता है। और वो धक्का… पायल को जा लगा। उसके हाथ से कपड़े फिसले और वो खुद का संतुलन खो बैठी।
“आह…!”
एक तेज़ चीख के साथ वो ज़मीन पर गिर पड़ी। उसका माथा हल्का सा टकराया, और एक पल को आसपास सबकुछ जैसे थम सा गया था। चीख सुनकर, भीड़ में से एक लड़का पलटता है। वह अबीर था।
वह बस पलटकर देखता है… लेकिन वो एक नज़र जैसे ठहर गई थी।
उसकी आंखें पायल पर टिक गई थी… हाथ में से गिरते हुए कपड़े, बिखरे बाल, और दर्द से कराहता चेहरा, अबीर की आंखों में कुछ देर के लिए सन्नाटा फैल गया था। वो वक्त जैसे धीमा पड़ गया था।
भीड़ अब भी आगे बढ़ रही थी, लेकिन अबीर वहीं खड़ा… बस देखता रहा…
पायल की आंखों में हल्की चिढ़ और थोड़ी तकलीफ़ थी, लेकिन उसके चेहरे पर वो मासूमियत… वो किसी को भी थमा देती थी।
अबीर उसे बस देखता रह गया। पहली बार उसकी बेपरवाह आंखों में ठहराव आया था।
वो पल कुछ और कह रहा था… पर अबीर खुद को संभाल, बिना कुछ कहे चल जाता है।
पायल थोड़ा झुंझलाते हुए खुद को संभालती है, कपड़े झाड़ते हुए वह पलटकर देखती है वो लड़का जा चुका था।
"अजीब है… कम से कम माफ़ी तो मांग सकता था!" वह
बुदबुदाई और अपनी सहेलियों के पास चली गई, जो अब भी ज्वेलरी सेक्शन में मग्न थीं।
पर एक बात थी…
पायल को खुद नहीं पता चला कि जाते-जाते वो अजनबी कहीं उसकी सोच में एक कोना घेर गया था।
***
शाम की हल्की हवा अबीर के बालों से खेलती हुई उसके साथ घर के दरवाज़े तक पहुँची थी। मॉल से लौटते वक्त उसके चेहरे पर वही हमेशा वाली लापरवाह मुस्कान थी। लेकिन जैसे ही वह गेट के अंदर कदम रखता है, वैसे ही उसकी मुस्कान थोड़ी सिकुड़ जाती है।
ड्रॉइंग रूम की चुप्पी कुछ अलग सी थी।
सोफ़े पर मि. अभिमन्यु हाथ में अखबार पकड़े बैठे थे, पर नज़रें अखबार से ज़्यादा घड़ी पर थीं। माथे की लकीरें उनके मूड का साफ़ इशारा कर रही थीं। आज कुछ ज़्यादा ही गुस्से में हैं।
अबीर सब समझते हुए भी चेहरे पर मासूमियत का नकाब चढ़ाकर धीमे कदमों से घर के अंदर दाखिल होता है।
रसोई के पास नीला जी कुछ बर्तन समेट रही थीं। अबीर सीधा उनके पास आकर उनके कान के पास झुककर फुसफुसाता है कि, "आज हिटलर का पारा हाई क्यों है, नीला जी?"
नीला जी ने झट से पलटकर उसे आँखें तरेरीं और हाथ के इशारे से चुप रहने को कहा।
"अबीर...!" उनकी धीमी-सी फुसफुसाहट में चेतावनी छुपी थी।
अबीर ने गर्दन झुकाई और होंठ दबा लिए। पर उसके चेहरे पर मुस्कान अब भी कायम थी—जैसे उसे डांट की आदत हो।
उधर मि. अभिमन्यु की आवाज़ आई,
"अबीर! तुम्हें समय का कोई अंदाज़ा है या फिर ये घर तुम्हारी मर्ज़ी से चलता है?"
अबीर हल्के कदमों से आगे बढ़ते हुए कहता है कि, "डैड, रविवार था… थोड़ा रिलैक्स होना तो बनता है!"
"रिलैक्स? हर दिन तुम्हारे लिए रविवार ही होता है! ये उम्र है भटकने की या कुछ कर दिखाने की?"
उनके स्वर में निराशा और नाराज़गी दोनों साफ़ थे।
अबीर चुप हो गया।
उसके पास जवाब था, पर देने का मन नहीं था।
वो बस वहीं खड़ा रहा, दीवार की घड़ी की टिक-टिक सुनता हुआ… और कहीं उस पल में उसके ज़हन में एक हल्की सी तस्वीर उभर आई
गुलाबी सूट वाली लड़की… गिरते हुए… उसकी आंखें… उसकी सादगी।
अबीर की आंखें पलभर के लिए कहीं और खो गईं।
क्रमशः