सुबह के साढ़े नौ बजे होंगे। अस्पताल का माहौल रोज़ की तरह तेज़ और व्यस्त था, लेकिन डॉक्टर मयूर के मन में एक बेचैनी थी। वो सीधे अपने कैबिन की ओर बढ़े। कैबिन में दाखिल होते ही उन्होंने इधर-उधर देखा, मगर वहाँ कोई नहीं था।
"रुशाली..." उन्होंने धीरे से पुकारा, लेकिन कोई जवाब नहीं आया।
कुर्सी पर बैठते ही उन्होंने अपना मोबाइल निकाला और रुशाली को कॉल लगाया। तभी उनकी नज़र पड़ी — रुशाली का फोन वहीं टेबल पर रखा हुआ था। उन्होंने फोन की स्क्रीन को देखा, और फिर उनकी नज़र उस नाम पर टिक गई जिससे उनका नंबर सेव था — “Dr. Akdu”।
एक हल्की मुस्कान उनके होठों पर तैर गई, पर उसके पीछे एक अजीब सा एहसास भी था।
मन ही मन बोले—
“उसकी ख़ामोशी में छुपी एक दुनिया है,
जो हर बात बिना कहे कह जाती है।
कभी डांटने को जी चाहता है उसे,
कभी बस यूँ ही देखते रहने का मन करता है।”
वो रुशाली को ढूंढते हुए हॉस्पिटल के गलियारे की ओर निकल पड़े। रास्ते में नर्स स्टाफ से पूछा,
“रुशाली को देखा क्या आपने?”
“हाँ सर, वो एक बच्ची का ब्लड सैंपल लेने गई हैं।”
वहाँ पहुँचकर मयूर सर थोड़ी दूरी पर रुक गए। सामने जो दृश्य था, वो उन्हें मुस्कुराने पर मजबूर कर गया।
उधर रुशाली, चिल्ड्रन वॉर्ड में एक नन्हीं बच्ची का ब्लड सैंपल लेने गई थी।
एक छोटी बच्ची — नाम था ‘ख़ुशी’ — जो मुँह बना रही थी।
“मुझे नहीं देना ब्लड… मुझे बहुत डर लगता है,” बच्ची बोली।
रुशाली ने झुकते हुए नर्मी से कहा,
“पर पहले नाम तो बताओ, प्यारी गुड़िया?”
“ख़ुशी…” बच्ची ने धीरे से कहा।
“अरे वाह! इतना प्यारा नाम… और तुम ऐसे मुँह बना रही हो?” रुशाली ने बच्चे की नकल करते हुए मुँह बनाया और बच्ची खिलखिलाकर हँस पड़ी।
मयूर सर पास खड़े होकर ये सब देख रहे थे। उनके चेहरे पर एक अलग सी चमक थी, एक सुकून।
रुशाली ने फिर कहा,
“देखो ख़ुशी, अगर ब्लड नहीं लेने दोंगी तो ठीक कैसे होगीं?”
ख़ुशी ने डरते हुए कहा, “मुझे सुई से डर लगता है।”
रुशाली मुस्कुराई —
“तो एक काम करो, आँखे बंद करो और सोचो कि तुम परियाँ देख रही हो... बस एक सेकेंड लगेगा।”
ख़ुशी ने आँखें बंद कीं, और एक झपक में रुशाली ने सैंपल ले लिया।
“हो गया?” बच्ची ने हैरानी से पूछा।
“हाँ, हो गया। अब बताओ — दर्द हुआ?”
“नहीं! दीदी आप तो जादूगर हो! अब हर बार आप ही आना, और कोई नहीं!”
रुशाली ने उसकी नन्हीं हथेली को चूमा और कहा,
“जब तुम्हारा नाम ही ख़ुशी है, तो दर्द कैसे टिक सकता है?”
मयूर सर वही खड़े सोच रहे थे —
कभी इतनी परिपक्व, कभी इतनी मासूम...
ये लड़की आखिर कौन सी दुनिया से आई है?”
रुशाली जैसे ही बाहर आई, सामने मयूर सर खड़े थे।
मयूर सर (आँखों में हलकी शरारत): "तो Dr. Akdu से मिलना हुआ आपका?"
रुशाली: "क्या...? मेरा फोन... ओह गॉड!"
मयूर सर ने फोन बढ़ाया और बिना कुछ कहे मुस्कराए।
रुशाली (संकोच में): "I’m sorry sir... मैंने बस... वो... मज़ाक में..."
मयूर सर ने उसकी आँखों में झाँका और कहा,
“माफ़ी क्यों माँग रही हो? कम से कम नाम में सच्चाई तो है...” और दोनों हँस पड़े।
चलते-चलते मयूर सर बोले,
“तुमने उस बच्ची को बहुत अच्छे से हैंडल किया, तुम्हारा तरीका काबिल-ए-तारीफ है।”
रुशाली ने नम्रता से मुस्कराते हुए सिर हिलाया।
मयूर कुछ देर चुप रहे फिर बोले,
“लेकिन एक बात कहूँ?”
“जी?”
“तुम्हें देखकर कभी कभी लगता है कि तुम एक ऐसी बंध किताब हो जिसे पढ़ना मुश्किल है... कोई अनसुलझी सी पहेली। और कभी लगता है जैसे तुम एक खुली किताब हो — बस पलटो और सब समझ में आ जाए।”
रुशाली कुछ नहीं बोली। बस मुस्कुरा दी।
“माफ़ करना, तुम... नहीं, आप... गलती से 'तुम' निकल गया।”
रुशाली ने नज़रें झुकाते हुए कहा,
“कोई बात नहीं सर... आप मुझे 'तुम' कह सकते हो।”
मायूर सर ने मुस्कुराकर कहा,
“अब तो तुम्हें 'तुम' ही कहूँगा, रुशाली मैम।” और दोनों फिर से हँस पड़े।
कई बार रिश्ते शब्दों के मोहताज नहीं होते, वो बस नज़रों के सफ़र में धीरे-धीरे जगह बना लेते हैं।
रुशाली की नज़रें कुछ कहती थीं, पर होंठ चुप थे।
उसकी मुस्कान में कई सवाल थे, पर आवाज़ थमी हुई थी।
वहीं मयूर सर के मन की एक परछाई बोली—
“ये खामोश सी लड़की,
हर बात आँखों से कहती है,
पर जब वो चुप होती है,
तो दिल चीखने लगता है।”
दोपहर ढल रही थी। दोनों कैबिन में वापस आ चुके थे। मयूर सर कुछ फाइलें देख रहे थे और रुशाली कंप्यूटर पर रिपोर्ट तैयार कर रही थी। बीच-बीच में मयूर सर की नज़रें उस पर टिक जातीं और जैसे ही रुशाली की नज़रें मिलतीं, वो तुरंत नज़रें फेर लेते।
रुशाली ने हँसते हुए कहा,
“सर... आप तो बिल्कुल वैसे ही हो जैसे कोई बच्चा गलती करने पर मासूम बन जाए।”
मयूर सर ने चौंकते हुए पूछा,
“क्या मतलब?”
“मतलब ये कि आप देखने में सख्त हो, बोलने में रुखे, पर अंदर से बहुत नरम हो... और बहुत सच्चे भी।”
मयूर सर कुछ पल चुप रहे, फिर बोले,
“तुम भी ना... जितनी बार समझने की कोशिश करता हूँ, उतनी ही उलझ जाती हो।”
रुशाली हल्के से मुस्कुराई और बोली—
“कुछ लोग किताबों की तरह नहीं होते,
उन्हें समझने के लिए पढ़ना नहीं, महसूस करना पड़ता है।”
उनकी बातें रुक-रुक कर बहती रहीं, जैसे कोई धीमी सी नदी हो जो चुपचाप रास्ता बनाती जा रही हो।
"मयूर सर उसे देख लेते, बात कर लेते, हँस भी लेते…
पर फिर भी कुछ छूट जाता... हर बार।
मयूर सर खुद नहीं समझ पा रहे थे कि ये जो हल्की सी बेचैनी है, ये क्या है?
क्या वो उसे पसंद करने लगे हैं? नहीं… शायद नहीं…
फिर ये क्या है जो हर रोज़ उसे देखने की चाह रखता है?
शायद ये वही एहसास है — जो बिना कहे ज़िंदगी में दाख़िल हो गया है।
क्या ये दोनों अब अपने-अपने दिल की बात समझने लगे हैं?
क्या मयूर सर अब सिर्फ रुशाली की काबिलियत ही नहीं, उसकी मासूम खामोशी में भी कुछ तलाशने लगे हैं?
क्या वाकई दिल की वो खामोशियाँ अब लफ़्ज़ों में ढलेंगी?
या फिर, फिर से वही ख़ामोश रिश्ता... जो हर रोज़ कुछ कहता है, पर कभी कहा नहीं जाता?"
एक पल और था… जहाँ शायद सब कुछ बदल सकता था।
पर वो पल... अभी आया नहीं था।
शायद अगली सुबह…
शायद अगली ख़ामोशी…
जानने के लिए पढ़िए – "दिल ने जिसे चाहा" का अगला एपिसोड… जो और भी करीब ले आएगा दो दिलों को।
जारी........