कुछ दिन बाद.....
सुबह की नर्म किरणों ने जैसे ही खिड़की से झाँककर कमरे को छुआ, एक हल्की सी गर्माहट कमरे में फैल गई। रुशाली आज कुछ जल्दी जाग गई थी। अलार्म की ज़रूरत ही नहीं पड़ी। बीते दिनों के अनुभव ने उसे भीतर से एक अलग ही ऊर्जा दे दी थी—एक अनकहा आत्मविश्वास, जो उसके चेहरे पर झलक रहा था।
"आज का दिन बेहतर होगा," उसने खुद से कहा और आईने में खुद को देखा। उसके होंठों पर हल्की मुस्कान थी और आंखों में उम्मीद की चमक।
जल्दी तैयार होकर वो हॉस्पिटल पहुंची। रिसेप्शन से कुछ फाइल्स लेनी थीं, कुछ पेपर्स क्लासिफाई करने थे—सब कुछ वो बड़ी सादगी और फुर्ती से कर रही थी। लेकिन इसी जल्दबाज़ी में उसकी उंगलियों से एक रिपोर्ट फिसलकर किसी दूसरी फाइल में चली गई। ये छोटी सी गलती उसने महसूस भी नहीं की।
कुछ देर बाद, जैसे ही मयूर सर ने राउंड शुरू किया, उन्होंने एक मरीज की रिपोर्ट मांगी।
मयूर सर(गंभीर स्वर में): "रुशाली, इस पेशेंट की रिपोर्ट कहां है?"
रुशाली (हड़बड़ाते हुए): "सर... शायद गलती से किसी और फाइल में रख दी होगी... मैं देखती हूँ।"
उसने तेजी से फाइलें पलटनी शुरू कीं। लेकिन उसकी उंगलियों में अब घबराहट थी। और फिर उन फाइलों में से रुशाली को उस पेशेंट की रिपोर्ट्स मिल गई।
मयूर सर(आवाज़ में सख़्ती): "रुशाली, ये अस्पताल है—यहां एक सेकेंड की लापरवाही कई जिंदगियों पर भारी पड़ सकती है। I hope you’ll be more careful next time."
उनके शब्दों का तीखापन रुशाली के दिल तक उतर गया।
वो चुप रही। कुछ कहने को था नहीं... सिर्फ आंखें झुक गईं और दिल के कोने में एक टीस उठी—
"क्या मैं सच में इतनी लापरवाह हूँ? क्या मैं भरोसे के लायक नहीं?"
एक घंटे बाद, दोनों एक साथ बैठकर रिपोर्ट्स अपडेट कर रहे थे। बीच में सन्नाटा पसरा था। पेन की स्याही की आवाज़ और कंप्यूटर की क्लिकिंग के सिवा कोई आवाज़ नहीं थी।
अचानक मयूर सर ने अपनी गहरी आवाज़ में खामोशी को तोड़ा —
मयूर सर: "By the way, I hope you didn’t take my tone the wrong way. I was a little stressed because of the patient’s condition."
रुशाली (धीमे स्वर में): "नहीं सर, मैं समझती हूँ।"
फिर कुछ पल खामोशी रही।
मयूर सर (धीरे और संजीदा स्वर में): "रुशाली, आपको मुझसे डरने की ज़रूरत नहीं है। आप मुझसे खुलकर बात कर सकती हो। वैसे... मेरे रुख से आपने मुझे गलत तो नहीं समझा?"
रुशाली (हिचकिचाते हुए): "सर... आप अच्छे हो। पर... उस समय थोड़ा अकड़ू लगे थे।"
मयूर सर ने उसकी तरफ देखा, फिर अचानक मुस्कुराए।
मयूर सर(हंसते हुए): "अकड़ू...? वाकई? आपने मुझे अकड़ू कहा?"
रुशाली (थोड़ी घबराई हुई): "वो... मैं... मेरा मतलब वो नहीं था सर। बस यूँ ही निकल गया।"
मयूर सर: "Don’t worry, मैं मजाक कर रहा हूँ। वैसे… अकड़ू नाम तो दिलचस्प है। शायद मैं वाकई वैसा ही हूँ।"
रुशाली (हल्के से मुस्कुराकर): "आप बहुत अच्छे हो सर… तभी तो मुझे आप पसंद…"
वो एकदम चुप हो गई। शब्द जैसे होंठों पर अटक गए।
पसंद... ये शब्द इतना भारी क्यों लग रहा था?
मयूर सर ने थोड़ा चौंकते हुए उसकी ओर देखा, लेकिन शायद उन्होंने पूरा सुना नहीं।
मयूर सर(धीरे से मुस्कुराते हुए): "वैसे... मैं दोस्त भी बन सकता हूँ, अगर आप मुझे इस लायक समझो तो।"
ये सुनते ही रुशाली के चेहरे पर हल्की सी मुस्कान फैल गई।
रुशाली: "Thank you, sir... शायद दोस्त वही होता है, जो गलती में इंसान को नहीं खोए... उसे और बेहतर बना दे।"
शाम को, जब दिन थक चुका था और लिफ्ट दोनों को नीचे ले जा रही थी, माहौल एकदम शांत था। सिर्फ मशीन की आवाज़... और उनके बीच वो ख़ामोशी, जिसमें ना कोई सवाल था, ना जवाब... सिर्फ एहसास।
मयूर सर ने अचानक पूछा: "घर में सब ठीक है?"
रुशाली (थोड़ा रुककर):
"जी… अब सब ठीक है। बस पापा अब नहीं रहे। उनके जाने के बाद सब कुछ बदल गया।
मम्मी, मैं, भाई और छोटी बहन... हम चार लोग ही हैं अब।"
मयूर सर कुछ पल चुप रहे। उनकी आंखों में सहानुभूति थी, शब्द नहीं।
रुशाली (धीरे-धीरे):
"ज़िंदगी ने बहुत कुछ जल्दी सिखा दिया। बचपन जैसा कुछ बचा ही नहीं।
कभी-कभी लगता है, जैसे ज़िम्मेदारियाँ उम्र से बड़ी हो गई हैं।
लेकिन अब आदत हो गई है... लड़ते रहने की।"
मयूर सर(गहराई से):
"And yet... you still smile.
That’s rare, you know."
फिर थोड़ा रुककर बोले:
"ज़िम्मेदारी उठाना आसान नहीं होता। और अपने सपनों को बचाकर रखना उससे भी ज़्यादा मुश्किल होता है।
But I admire your strength."
रुशाली (आंखों में नमी, पर चेहरे पर मुस्कान):
"Thank you, sir... शायद कुछ हौसले, आपके जैसे लोगों की बातों से ही मिलते हैं।"
फिर उसने बहुत धीमे स्वर में एक बात कही—
"कुछ ज़िम्मेदारियाँ इंसान को तोड़ती नहीं... गढ़ती हैं।
और शायद... तब ही उनकी मुस्कान में एक अनकहा दर्द भी अद्भुत हो जाता है।"
फिर रुशाली अपने घर के लिए निकल गई ।
उस रात, पहली बार मयूर सर ने अपनी डायरी खोली।
उनकी उंगलियों ने कलम थामी, लेकिन लिखने वाले शब्द दिल से निकले—
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"उसकी आंखों में कोई ठहराव है।
जैसे गहराई से भरा समंदर—बाहर से शांत, पर भीतर कुछ कहता हुआ।
क्या वो बस एक इंटर्न है?
या फिर कोई ऐसा रिश्ता, जो वक़्त की परिभाषा से परे हो?"
"कुछ लोग किताबों से नहीं, खामोशी से पढ़े जाते हैं।
कुछ रिश्ते बातों से नहीं, एहसासों से गढ़े जाते हैं।
और कुछ मुलाकातें... धीरे-धीरे दिल का हिस्सा बन जाती हैं।
बिना शोर मचाए, बिना नाम लिए..."
"पर हर रिश्ते की शुरुआत इतनी आसान नहीं होती...
कभी दिल चुप रहता है, तो कभी नज़रों में बगावत सी होती है।"
रुशाली की खामोशियों में कुछ तो था,
जो मयूर सर को अब सिर्फ एक इंटर्न नहीं,
एक अधूरी कहानी लगने लगी थी...
पर क्या वो ये एहसास खुद से कह पाएंगे?"
क्या मयूर सर और रुशाली की ये 'दोस्ती' वक़्त के साथ और भी गहराएगी?
या फिर कोई मोड़... सब कुछ बदल देगा?
जानने के लिए पढ़ते रहिए — 'दिल ने जिसे चाहा' का अगला एपिसोड।
(जल्द आ रहा है — एपिसोड 10)
(जारी...)