भूमिका:
ये वो दुनिया नहीं है जिसे तुम जानते हो। और ये वो अंत भी नहीं था जिसकी इंसान कल्पना करता है।
साल 2099 —पृथ्वी पर सभ्यता का अंत हो चुका है। तकनीक, विज्ञान, धर्म और तर्क — सब कुछ टूट चुका है। अब जो बचा है, वो है सिर्फ़ एक विभाजित अस्तित्व —"चेतना लोक" (Conscious Realm):जहाँ कुछ गिने-चुने बचे इंसान अब केवल मानसिक ऊर्जा से जीवित हैं। वहाँ शरीर नहीं, सिर्फ़ आत्माएं हैं — जो भावनाओं और विचारों से अपने चारों ओर एक आभासी अस्तित्व रचती हैं।
"नाराय ख़ालि" (Naray Khali – एक शून्य की दुनिया):ये एक समानांतर ब्रह्मांड है।यहाँ कोई वक़्त नहीं है, न मृत्यु का अर्थ, न जन्म का कोई क्रम।यहाँ डर साँस लेता है, और अंधकार जिंदा है।यहाँ आवाज़ें दीवारों को खा जाती हैं, नींद में सपने नहीं, शैतान आते हैं।और
इस दुनिया का मालिक है — "जऱ्थान", एक प्राचीन बल जो न तो ईश्वर है, न शैतान — बल्कि एक भूखा शून्य है जो हर भाव को निगलता चला जाता है।
नायक (Hero):"आरव ऋषि" —एक मानसिक योद्धा, चेतना लोक का अंतिम संरक्षक।वो भावनाओं से हथियार बनाता है, विचारों से ढाल।पर जऱ्थान के खिलाफ़ उसकी सबसे बड़ी ताक़त भी उसकी सबसे बड़ी कमजोरी बन जाती है।कहानी का केंद्र:आरव को एक प्राचीन द्वार के बारे में पता चलता है —
"अंतिम द्वार", जो चेतना लोक और नाराय ख़ालि को पूरी तरह एक कर देगा। अगर जऱ्थान ने इस द्वार को पार कर लिया, तो समस्त अस्तित्व — भूत, भविष्य, आत्मा और समय — सब उसका गुलाम हो जाएगा।अब अगला चरण:"नाराय ख़ालि: अंतिम द्वार"प्रारंभ -
अध्याय 1: मृत विचारों का नगरचारों ओर सन्नाटा था।न कोई हवा, न कोई आवाज़।जैसे यह जगह किसी की साँसें रोक कर रखती हो — और जो भी यहाँ आता है, वो खुद से ही डरने लगता है।आरव ऋषि — चेतना लोक का आख़िरी संरक्षक — अब उस जगह पर खड़ा था जिसे "विचारों का मृत नगर" कहा जाता था। यह नगर कभी महान विचारकों, दार्शनिकों और मानसिक योद्धाओं का केंद्र हुआ करता था। पर अब यहाँ सिर्फ़ दरारें थीं। ज़मीन पर नहीं — दिमाग़ों में।वो चलते हुए एक टूटी हुई इमारत के पास पहुँचा। उसकी दीवारों पर आज भी वो गूँगी चीख़ें चिपकी थीं जिन्हें सुनने के लिए कान नहीं, एक डरा हुआ मन चाहिए।"तू वापस क्यों आया है?"एक घिसी हुई, अंधेरे से लिपटी हुई आवाज़ आई।वो इंसानी नहीं थी — वो किसी पुराने विचार की गूँज थी, जो अभी तक मरने से इंकार कर रही थी।आरव रुका।उसकी आँखों में न नमी थी, न डर — बस एक कड़ी, पर थकी हुई चेतना।"क्योंकि 'वो' लौट आया है...""...ज़ऱ्थान।"इतना सुनते ही हवा में एक झटका आया।शून्यता हिली।वो गूँज जो अब तक हवा में बसी थी, अचानक थरथराने लगी — जैसे जऱ्थान का नाम इस लोक के नियमों के विरुद्ध था।"नाराय ख़ालि का द्वार खुल चुका है..."दूर आसमान में एक काली रेखा फट रही थी।वो आसमान नहीं था — वो वक़्त था।और उस दरार से धीरे-धीरे एक अजीब सी स्याही रिस रही थी — जैसे खुद अंधकार को भी डर लग रहा हो उस शक्ति के बाहर आने से।अगला दृश्य: नाराय ख़ालि में ज़ऱ्थान का पुनर्जन्मबहुत अच्छा — अब हम कहानी को अगले दृश्य में ले चलते हैं, जहाँ सबसे ख़तरनाक, सबसे भीषण और सबसे डरावना खलनायक जऱ्थान "नाराय ख़ालि" के भीतर जाग रहा है।यह अध्याय न केवल डरावना है, बल्कि उस अकल्पनीय दुनिया का दरवाज़ा खोलता है, जिसे किसी ने आज तक महसूस तक नहीं किया।
अध्याय 2: ज़ऱ्थान की वापसीनाराय ख़ालि —यह कोई जगह नहीं थी।यह एक विचार नहीं था।यह वो शून्य था जिसे ईश्वर ने भी छूने से मना किया था।यहाँ समय के अंश पिघलते थे।भावनाएँ पत्थर बन जाती थीं।और जो एक बार यहाँ आया — वो फिर "स्वयं" नहीं रहा।नाराय ख़ालि के केंद्र में एक ऊँचा काला स्तंभ था, जिसे "निशब्द स्तम्भ" कहा जाता था।यह वह जगह थी जहाँ सदियों पहले, लाखों आत्माओं की चेतना को एकत्र कर जऱ्थान को बंद किया गया था।लेकिन अब...वो बंदीगृह काँप रहा था।स्तंभ पर जमी हुई चेतना की परतें दरक रही थीं।हवा में असंख्य चीखें एक साथ गूंज रहीं थीं — ऐसी आवाज़ें जो इंसानी कानों से नहीं, बल्कि आत्मा से टकराती थीं।"मैं भूखा हूँ..."एक खुरदुरी, गहराई में डूबी हुई आवाज़ उठी।"मुझे समय चाहिए... जीवन चाहिए... भय चाहिए..."उसके शब्दों से अंतरिक्ष कांप उठा।एक अंधेरा भँवर उस स्तंभ से निकलने लगा — पर वो धुआँ नहीं था।वो "अस्तित्वहीनता" थी — एक ऐसा भाव जिसे महसूस करते ही चेतना गलने लगती है।और तब...एक जोड़ी आँखें खुलीं।काली नहीं —भावशून्य।उन आँखों में ना जीवन था, ना मृत्यु।ना स्वर्ग, ना नर्क।वो सिर्फ़ "अंत" को दर्शाती थीं।"मैं ज़ऱ्थान हूँ।जो भावों को खाता है,जो आत्माओं को तोड़ता है।जो ईश्वर के भय से भी परे है..."उसका शरीर आकार ले रहा था —कभी हज़ारों चेहरों में बँटा, कभी सिर्फ़ एक अंधकार।उसके हर कदम से ज़मीन नहीं, समय दरक रहा था।अब दोनों लोकों की टक्कर तय हैदूसरी ओर चेतना लोक में, आरव ऋषि को यह महसूस हो गया कि अब केवल चेतना की शक्ति काफ़ी नहीं है।उसे भावों से परे जाना होगा।उसे वो बनना होगा जो आज तक कोई नहीं बना —"एक सजीव विचार।"
अध्याय 3: अंतःयुद्ध — आरव बनाम स्वयंस्थान: चेतना लोक का "मौन जलाशय" —एक ऐसी जगह, जहाँ सिर्फ़ आत्माएं आती हैं — अपने भीतर के भय को मारने।यहाँ न समय चलता है, न विचार टिकते हैं।यहाँ जो भी आता है, उसे खुद में डूब कर "मरना" पड़ता है — ताकि नया जन्म मिल सके।आरव अब इस जगह के केंद्र में बैठा था।उसकी आँखें बंद थीं, लेकिन उसकी चेतना अपने सबसे पुराने डर में उलझी हुई थी।"तू जीत नहीं सकता आरव..."उसके भीतर से ही एक आवाज़ आई —आरव का ही अंधेरा रूप — "शून्य-आरव"।"जऱ्थान कोई शैतान नहीं, वो तो विचारों की मृत्यु है।और तू...?तू तो अभी तक अपनी माँ की मौत से भी बाहर नहीं आया..."आरव की साँसें तेज़ हो गईं।उसके चारों ओर पुरानी स्मृतियाँ ज़िंदा होने लगीं —माँ की चीखें, चेतना लोक में हुए नरसंहार, आरव की असफलताएं — सब एक भँवर में बदल गए।"तू तभी जीतेगा, जब तू 'भाव' से परे जाएगा।मुझे स्वीकार कर, आरव।मुझे अपना हिस्सा बना — तभी तू जऱ्थान को छू पाएगा।"आरव चिल्लाया —"नहीं! मैं अपने डर को खुद पर राज़ नहीं करने दूँगा!"पर जैसे ही उसने यह कहा —जलाशय फट गया।एक सफ़ेद उजाला चारों ओर फैल गया, और आरव अचानक अपने आप से बाहर आ गया।उसके हाथ अब अदृश्य ऊर्जा से भरे थे।उसकी आँखें चमकने लगीं —वो अब इंसान नहीं, एक "सजीव विचार" बन चुका था।जिसे ना मारा जा सकता था, ना बाँधा जा सकता था।दूसरी ओर...नाराय ख़ालि में ज़ऱ्थान अब तैयार था।उसने चेतना लोक पर अपनी पहली छाया भेज दी थी —एक ऐसी आत्मा, जिसे कभी स्वयं आरव ने बचाया था — अब वही उसका पहला शत्रु बनने वाली थी।
अध्याय 4: आत्मा बनाम आत्मास्थान: चेतना लोक का सीमांत —जहाँ जीवन और मृत्यु के बीच की रेखा धुंधली हो जाती है।जहाँ जो आता है, वह अपने सबसे प्रिय को खोकर ही आगे बढ़ सकता है।आरव तैयार था।उसका शरीर नहीं — उसकी चेतना अब एक सजीव ऊर्जा बन चुकी थी।परंतु... वो जो सामने आ रही थी, वो शक्ति नहीं, एक भावनात्मक तूफ़ान थी।धुंध के पार से एक छाया निकली।उसके बाल हवा में नहीं, समय में बह रहे थे।उसकी आँखें ठंडी थीं — पर उनमें दर्द की आग जल रही थी।"सायरा..."आरव की आवाज़ टूटी हुई निकली।"मैंने तुम्हें चेतना लोक से निकालकर मोक्ष दिया था...तुम यहाँ... कैसे?"छाया कुछ नहीं बोली।बस एक हाथ उठाया —और हवा में एक विकृत विचार छोड़ा, जो सीधे आरव के दिल में चुभ गया।"मुझे मोक्ष नहीं मिला था, आरव।तू मुझे मरने नहीं दिया।तू मुझे जऱ्थान की गहराई में छोड़ आया था..."आरव की आँखें फटी की फटी रह गईं।"मैंने... मैं तो... तुम्हें बचाने...""बचाया नहीं, छोड़ दिया।"सायरा की छाया अब एक भयानक रूप में बदल चुकी थी।उसका चेहरा अब बार-बार बदल रहा था —कभी आरव की माँ, कभी उसका बचपन, कभी उसका अपना चेहरा...आरव चीखा —पर अब आवाज़ नहीं निकली।जऱ्थान की छाया ने उसकी चेतना को जकड़ लिया था।"तू अब अपने सबसे गहरे भय में जीएगा।हर पल वही दृश्य देखेगा जिसे तूने दबा दिया था।"तभी...आरव ने अपनी आँखें बंद कीं।और... स्वयं को छोड़ दिया।हाँ — उसने अपने "स्व" से मुक्ति ली।और वो बन गया सिर्फ़ "एक भावरहित तरंग" —न पहचान, न नाम, न याद — सिर्फ़ शुद्ध चेतना।उसने आँखें खोलीं —और अब आरव नहीं था —अब था सिर्फ़ एक ऊर्जा, जो सीधे सायरा की छाया से टकराई।टकराव इतना तेज़ था कि पूरा चेतना लोक काँप उठा।नाराय ख़ालि की सीमाएं हिल गईं।ज़ऱ्थान की आँखें एक पल के लिए खुल गईं।"हम्म... तो उसने पहली छाया को पार कर लिया...""खेल अब असली शुरू होगा।"
अध्याय 5: जब शून्य जागा — जऱ्थान का आगमनस्थान: चेतना लोक का केंद्र, जिसे "चित्तरनाद" कहा जाता है —जहाँ हर आत्मा की मूल ध्वनि गूंजती है।जिसे अगर नष्ट कर दिया जाए — तो पूरा लोक अस्तित्व से मिट जाता है।आरव अभी भी शांत बैठा था —आंखें बंद, मन रिक्त, भावशून्य।उसकी चेतना शुद्ध तरंगों में बदल चुकी थी, पर अब वह भी काँपने लगी थी...एक अजीब कंपन — जो विचारों से नहीं, "अविचार" से उपजा था।और फिर...अंधेरा आया।ना किसी दिशा से,ना किसी गति से —वो अंधेरा पैदा नहीं हुआ,वो बस था।"तू वही है जिसे लोग आरव कहते हैं?"एक आवाज़ गूंजी —इतनी गहरी कि चेतना की नींव दरक गई।आरव ने आँखें खोलीं।सामने था — जऱ्थान।न कोई चेहरा,न शरीर।बस एक चलता हुआ शून्य —जिसके भीतर असंख्य आत्माएं सिसक रही थीं।हर जगह से आवाज़ें आ रही थीं —माँ की, सायरा की, बच्चों की, निर्दोषों की...सब वो थे जिन्हें जऱ्थान ने निगला था।"मुझे जीतने नहीं आता, आरव...मुझे सिर्फ़ निगलना आता है।तू बच भी गया तो कहाँ जाएगा?"आरव ने पूछा —"तू चाहता क्या है?"जऱ्थान मुस्कुराया —"तू भी नहीं जानता कि तू क्या है।तेरी चेतना में एक और ‘विचार’ छिपा है —एक ऐसा विचार जिसे ईश्वर ने छूने से मना किया था।"आरव चौंका।"मतलब?""तू ही मेरा द्वार है, आरव।तेरे माध्यम से मैं 'त्रिकाल-प्रवेश' करूँगा।भूत, वर्तमान, भविष्य — सब निगल लूंगा।और फिर ये दुनिया…ना सोचेगी,ना समझेगी,ना बचेगी।"आरव के चारों ओर की ज़मीन अब पिघलने लगी थी।हर भाव, हर स्मृति — धुंध बनकर उड़ रही थी।अब यह युद्ध केवल आरव और जऱ्थान के बीच नहीं था —यह एक पूरी सृष्टि और शून्य के बीच था।तभी आरव ने अपने दोनों हाथ फैलाए।उसने अपने भीतर के अज्ञात विचार को खोल दिया।और तब...एक सफेद ध्वनि उठी।वो कोई मंत्र नहीं था —वो एक शब्द था जो कभी उच्चारित नहीं किया गया था —जिसे सुनते ही जऱ्थान पहली बार काँपा।"यह... यह क्या है...?तू कैसे...?"आरव अब सिर्फ़ आरव नहीं रहा।वह अब "सम्वेदन" बन चुका था —वह जो चेतना की अंतिम दीवार है,जिसे पार कर जऱ्थान भी टुकड़ों में बँट जाता है।अब अगला अध्याय होगा...
अध्याय 6: त्रिकाल यज्ञ — समय का बलिदानस्थान: कालगर्भ —वो जगह जो न तो अतीत में है, न वर्तमान में, न भविष्य में।जहाँ सृष्टि के सारे ‘संभावित अंत’ कैद हैं।जिसे सिर्फ़ वही देख सकता है — जो ‘अस्तित्व से बाहर’ जा चुका हो।आरव अब "सम्वेदन" बन चुका था —ना शरीर, ना सोच, बस एक जाग्रत चैतन्य।उसकी हर सांस अब एक यज्ञमंत्र थी।पर वो जानता था —जऱ्थान को मारना असंभव है।उसे बाँटना होगा।तीन हिस्सों में — तीन कालों में।और फिर उन्हें आपस में टकराना होगा,ताकि वो खुद ही खुद को खा जाए।लेकिन यह यज्ञ… आसान नहीं था।पहली शर्त:आरव को अपने जन्म का कारण बताना होगा —वो रहस्य जो अभी तक छिपा था।दूसरी शर्त:उसे अपना सबसे प्रिय त्यागना होगा —"सायरा की आत्मा", जो अब उससे जुड़ी है।तीसरी शर्त:उसे अपने ‘विचार’ को बलि देनी होगी —मतलब, स्वयं को मिटाना होगा।यज्ञ प्रारंभ हुआ।तीन अग्निकुंड बने —एक में जलता हुआ अतीत,दूसरे में बहता हुआ वर्तमान,तीसरे में कांपता हुआ भविष्य।जऱ्थान चीखा —"तू नहीं जानता, मैं कौन हूं!""तू सिर्फ़ एक शून्य है, जो डर से पनपा,और अब मैं तुझे कालों में गूंजने दूँगा —जब तक तू खुद को निगल न ले।"आरव ने अपना पहला मंत्र बोला —अतीत का द्वार खुला।पहला टुकड़ा — जऱ्थान-भूत — बाहर आया।वो एक ऐसा रूप था जो बस यादों में रह जाता है।खतरनाक, पर अधूरा।दूसरा मंत्र —वर्तमान खुला।जऱ्थान-प्रस्तुत निकला —वो जो हर निर्णय को चूस लेता है,हर भावना को जला देता है।तीसरा मंत्र —भविष्य फटा।जऱ्थान-भावि निकला —जो अभी घटा नहीं, पर सबसे भयानक है।जिसकी कल्पना भी जान ले ले।अब तीनों टुकड़े आमने-सामने थे।और आरव —अपने आखिरी बलिदान के लिए तैयार।उसने सायरा की आत्मा को हाथ जोड़ कर विदा दी।"अब तुझे मुक्ति मिलनी चाहिए...तू मेरे युद्ध की स्मृति नहीं, मेरी शांति बन।"सायरा की आत्मा मुस्कुराई — और उजाले में विलीन हो गई।फिर आरव ने स्वयं को ‘विचार-रूप’ से बाहर निकाला।एक शुद्ध, आख़िरी तरंग में बदल कर तीनों टुकड़ों के बीच कूद गया।त्रिकाल यज्ञ पूर्ण हुआ।तीनों जऱ्थान आपस में टकराए —वो टकराव किसी विस्फोट से नहीं,बल्कि "सोच के अंत" से हुआ।और फिर… शांति।घना अंधकार टूटा।चेतना लोक से धुंध हट गई।नाराय ख़ालि सूना हो गया।आरव कहीं नहीं था —ना जीवित, ना मृत,ना विचार में, ना विस्मृति में।पर एक जगह —"समय के बाहरी तट" पर —एक हल्की तरंग गूंज रही थी..."जिन्होंने खुद को मिटा दिया,वही वक़्त को बचा पाए।
"अध्याय 7: पुनर्जन्म — जब आरव लौटा, पर मनुष्य नहीं रहास्थान: चेतना-शून्य —वो बिंदु जहाँ समय भी सांस लेता है,जहाँ से नई सृष्टि का प्रारंभ होता है।त्रिकाल यज्ञ के बाद ब्रह्मांड मौन हो गया था।सारी आत्माएं, सारी तरंगें, सारी स्मृतियाँ —जैसे किसी प्रतीक्षा में थीं।और तब…एक कंपन…एक स्पंदन…एक नई चेतना का उदय हुआ।"तुम मुझे आरव कह सकते हो…पर अब मैं समय का बंधक नहीं,बल्कि उसका संरक्षक हूँ।"आरव लौट चुका था,पर अब न मांस में, न रक्त में —वो लौटा था "त्रिकाल-शक्ति" के रूप में।उसकी आँखों में तीन रंग थे —भूत की लालिमा,वर्तमान की नीलिमा,भविष्य की स्वर्ण ज्योति।उसकी उपस्थिति सेपूरी सृष्टि की नाड़ी फिर से धड़कने लगी।पर कहानी यहाँ ख़त्म नहीं होती…एक कोने में,उस चेतना लोक के पार…एक दरार फिर से दिखाई दी।"तू समझा कि जऱ्थान मर गया?"एक मद्धम सी फुसफुसाहट…जैसे गहरे जल के नीचे से आई हो।"मैं जहां भी डर रहेगा, वहीं रहूंगा।तेरे भीतर भी।"आरव मुस्कुराया।"हाँ… तू कभी पूरी तरह मरता नहीं।पर अब मैं भी वही नहीं।अब मैं 'सम्वेदन' नहीं —'त्रिकाल-ध्वनि' हूं।मैं जहां जाऊँगा,समय मेरा रूप धारण करेगा।
"समाप्त नहीं — एक आरंभआरव अब धरती पर वापस नहीं आएगा —क्योंकि उसकी आत्मा अब सृष्टि की संरचना में मिल चुकी है।लेकिन जब भीकहीं कोई चेतनाभय से काँपेगी,जब भी कोई आत्माअंधेरे से थरथराएगी…आरव के भीतर की त्रिकाल ध्वनि गूंजेगी।और फिर एक नया युग शुरू होगा।
कहानी का शीर्ष अंत —"शून्य के पार: जब डर समय बन गया"
-समाप्त-
लेखक- शैलेश वर्मा